पारंपरिक समाज में र्निवश को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता. र्निवश एक एक लांछित शब्द है, जो हमारी रगों में समाया हुआ है. इसे किस्मत और आस्थाओं से जोड ़कर भी देखा जाता है. कई रूढ़िवादी इसे पिछले जन्म के कर्म से जोड़ कर देखते हैं. आज के आधुनिक-वैज्ञानिक दौर में संतानहीनता को किस्मत का खेल कैसे माना जा सकता है? पर इस शब्द का उपयोग पुरातन और रूढिवादी अर्थो के साथ करने में आज की राजनीति को कोई परहेज नहीं है.
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विधानसभा चुनाव: बिहार की राजनीति में बेतुके बयान
पटना: विधानसभा चुनाव की गरमी के साथ ही नेताओं के तरह-तरह के बयान आने लगे हैं. ऐसा लगता है कि शब्दों के मायने और उसके असर से वे बेपरवाह बने हुए हैं. आज की राजनीति वहां पहुंच गयी है, जहां ‘र्निवश’, ‘विभीषण’, ‘रावण’ जैसे शब्द बेखटके व्यवहार में लाये जा रहे हैं. हाल ही में […]
पटना: विधानसभा चुनाव की गरमी के साथ ही नेताओं के तरह-तरह के बयान आने लगे हैं. ऐसा लगता है कि शब्दों के मायने और उसके असर से वे बेपरवाह बने हुए हैं. आज की राजनीति वहां पहुंच गयी है, जहां ‘र्निवश’, ‘विभीषण’, ‘रावण’ जैसे शब्द बेखटके व्यवहार में लाये जा रहे हैं.
हाल ही में एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ ने अपने बयान में भाजपा को र्निवश बताया और कहा कि इसीलिए वह विधानसभा चुनाव के लिए अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम का उल्लेख नहीं कर रही है. उस राजनीतिज्ञ को समाज की नब्ज पकड़ने वाला माना जाता है. किस शब्द को कैसे और कहां बोलना है, उन्हें पता है. उन्होंने इस शब्द का इस्तेमाल अनायास किया या जानबूझकर?
र्निवश यानी जिसकी कोई संतान न हो.
र्निवश पर रोने लगे थे मंत्री
जिस दंपती को संतान नहीं है, उसके लिए र्निवश शब्द व्यथित कर देता है. कुछ साल पहले विधानसभा में एक विधायक ने एक मंत्री की संतानहीनता पर टिप्पणी कर दी थी. विधायक की बात सुन कर मंत्री रोने लगे. पूरा सदन भावुक हो गया था. बाद में उस विधायक ने अपनी बातों पर खेद जाहिर किया.
आमतौर पर अपने बयानों में धीर-गंभीर रहने वाले एक राजनीतिज्ञ ने दूसरे राजनीतिज्ञ के बारे में ‘विभीषण‘ की उपमा का इस्तेमाल किया तो तीसरे दल के राजनीतिज्ञ सवाल कर रहे हैं कि तब बताएं कि रावण कौन है? क्या बिहार की राजनीति में ऐसे ही शब्द वाण चलेंगे? बोलचाल और बयानों में गवर्नेस, विकास पर तथ्य आधारित चर्चा क्यों नहीं होती?
बछिया, बछड़ा और गोरी चमड़ी
एक नेता ने दूसरे नेता के बारे में कहा कि वे किसान की बात क्या करेंगे? उन्हें तो ‘बछिया’ और ‘बछड़े’ में फर्क मालूम नहीं. उसी नेता ने नस्लभेद वाली टिप्पणी में कहा था, राजीव गांधी ने किसी नाइजीरियाई महिला से शादी की होती और यदि वह गोरी न होती, तो क्या कांग्रेस उस महिला का नेतृत्व स्वीकार कर लेती? उसी नेता ने लोकसभा चुनाव के दौरान कहा था कि नरेंद्र मोदी का विरोध करने वालों की जगह पाकिस्तान है. यानी लोकतंत्र के महापर्व में उस नेता को लोकतंत्र के बुनियादी उसूल भी याद नहीं रहे. दिल्ली चुनाव के क्रम में उसी नेता ने अरविंद केजरीवाल को मायावी पात्र मारीच बताया था.
बेतुके नारे
चुनाव के दौरान नारों के जरिये पार्टियां या नेता अपना नजरिया स्पष्ट करते हैं. इसी के आधार पर जनता को गोलबंद किया जाता है. लेकिन, अब कैसे-कैसे नारे चलन में हैं. एक बानगी – जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक बिहार में रहेगा लालू. ऐसे नारों या जुमलों का क्या मतलब?
पिछले कुछ दिनों में आये ऐसे-ऐसे बयान
भाजपा दाद, खाज, खुजली वाली पार्टी है.
मक्कार और बेइमान लोगों को दिये जाते हैं पद्म सम्मान.
दलितों और पिछड़ों को अंतरजातीय शादी कर जनसंख्या बढ़ानी चाहिए.
अगड़ी जाति के लोग आर्यो की संतान हैं.
सेना और पुलिस में लोग मरने के लिए ही जाते हैं.
जदयू कंस है तो भाजपा रावण.
देश में कानून की हालत वेश्या से भी बदतर.
परकटी महिलाओं के लिए है महिला आरक्षण बिल.
मैं मुख्यमंत्री होता, तो परीक्षा में छात्रों को किताब दे देता.
कई क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस का मसाज कर रही हैं.
राजनीति में ऐसी भाषा का चलन क्यों
जननायक कपरूरी ठाकुर पर किताब लिखने वाले नरेंद्र पाठक से ‘प्रभात खबर’ ने सवाल किया कि राजनीति में ऐसी भाषा का इस्तेमाल क्यों किया जाने लगा है? उनका कहना था कि राजनीति में शालिनता का लोप हो गया है. इसका बड़ा कारण है कि आज की राजनीति में ग्रास रूट से लोग नहीं आ रहे हैं. राजनीति भी ग्रास रूट से कट चुकी है. इसलिए वह भाषा के स्तर पर लांछित करने वाले शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करती है. ग्रास रूट की राजनीति धैर्यवान बनाती थी.
1970 में कपरूरी ठाकुर और रामानंद तिवारी के बीच गहरे मतभेद खड़े हो गये थे. उन दिनों हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘दिनमान’ में उस विवाद पर 11 किस्तों में रिपोर्ट छपी. पर कभी भी कपरूरी ठाकुर या रामानंद तिवारी ने एक-दूसरे के खिलाफ अमर्यादित टिप्पणी नहीं की. दोनों कायदे से, तर्को के साथ अपनी-अपनी बात रखते थे. कई ऐसे प्रसंग हैं जब कपरूरी ठाकुर के लिए खराब शब्दों का इस्तेमाल हुआ. पर वह अपने दायरे में रहे. यह दायरा उनका ही रचा हुआ था. उसमें अवांछित शब्दों का प्रवेश पाना मुश्किल था. वह खुद भी इसके प्रति सचेत रहते थे.
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