पटना: हाल के हफ्तों या दिनों में बिहार ने अचानक बड़े स्तर पर लोगों के बीमार होने, मौत का शिकार होने की घटनाओं में तेजी देखी है. ये घटनाएं प्रदेश के विभिन्न कोनों में पीने के पानी से हुईं.
स्वाभाविक रूप से लोगों में चिंता और यहां तक कि उनके आंदोलित होने की घटनाएं हुईं. मीडिया ने संवेदनशील बनाने व चिंता को दिखाने के लिए इन घटनाओं को भावनात्मक रूप से पेश किया. लोगों का अनवरत विरोध जारी रहा, लोग अपनी चिंता व एकजुटता दिखाने सड़कों पर उतर आये. नागरिक समाज भी समान रूप से आंदोलित हुआ. विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता अपनी चिंता जताने एक पांव पर खड़े दिखे और एक क्षण के लिए भी इसका राजनीतिक लाभ लेने से नहीं चूके. इस तरह पूरा प्रकरण निहायत ही क्षुद्र राजनीतिक उठा-पठक में बदल गया कि कुछ असामाजिक व आपराधिक तत्वों ने पेयजल स्नेतों में , बोरिंग के भीतर काफी नीचे जल स्तर तक जहर मिला दिये, जहां से चापाकल के जरिये पानी ऊपर आता है, जिसका इस्तेमाल पीने में किया गया और नतीजतन काफी लोग बीमार हुए, लोगों की मौतें हुईं और जिसका फल हुआ कि लोगों में भय का माहौल बना, जिससे हो सकता है राजनीतिक व अन्य मुद्दे भटक जाएं.
ऐसे भावनात्मक आवेग और मुद्दे के राजनीतीकरण ने, किसी वैज्ञानिक व वस्तुगत समझ के बिना बड़े पैमाने पर बीमार होने व मौत की घटनाओं के मूल कारणों को पीछे छोड़ दिया, लोगों की भारी चिंता के विषय को ठंडे बस्ते में डाल देने या हवा में गुम हो जाने के लिए छोड़ दिया, जैसा कि राज्य में अन्य मुद्दों के साथ पहले भी हुआ है. आश्चर्य नहीं कि आज सरकार व लोगों दोनों के लिए ही मुद्दा पुराना पड़ गया. अब मीडिया को ही कोई सुधार के उपायों को आगे बढ़ाने दें. जो हो , मामले की गंभीरता हम सबको चेतावनी दे रही है कि हम पूरे मामले को अकाट्य साक्ष्यों व वैज्ञानिक रुख के साथ देखें. इस दृष्टि से हाल के दिनों में लोगों के बड़े पैमाने पर बीमार व मौत का शिकार होने की घटनाएं कृषि के रसायनीकरण का परिणाम हैं, जो राज्य में खतरे के अनुपात को पार कर गया है, जिसकी वजह है बड़े पैमाने पर फसलों के उत्पादन में अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल. यह लंबे समय से पौधरोपण व बागबानी में भी इस्तेमाल किया जा रहा है, जो जमीन की सतह पर छिड़काव के बाद अंत:स्रवण के जरिये जमीन के नीचे जल स्तर में मिल जाता है और यह पीने के पानी को खतरनाक स्तर से अधिक जहरीला बना देता है. ये रासायनिक खाद व उर्वरक अपने संयोजन में जहरीले होते हैं और मिट्टी की जैव, रासायनिक गुणों को नष्ट कर देते हैं, पानी व इसके अवयवों को, एक बार मिश्रित होने पर, जहरीला बना देते हैं, आसपास को प्रदूषित करते हैं और स्थायी तौर पर स्थानीय व साथ ही दूरस्थ इकोलॉजिकल सिस्टम को बरबाद कर देते हैं, जो सैद्धांतिक तौर पर साबित हो चुका है .
दुनिया में विभिन्न साक्ष्यों व प्रयोगों से भी यह साबित हो चुका है. इस सबके बावजूद कृषि उत्पाद बढ़ाने के मकसद से ऐसे इनपुट (निवेश) को बढ़ावा दिया जाता है. वैकल्पिक तकनीकी व वित्तीय उपायों के अभाव में भी इनके इस्तेमाल को प्रेरित किया जाता है, यहां तक की अनुदानित कीमत पर दिये जाने के लिए कई कार्यक्रम चलाये जाते हैं. उधर, देश भर के किसान अपने जोश-उत्साह से कृषि उत्पाद को अधिकतम करने व आय बढ़ाने के लिए लगातार इन चीजों का अधिक इस्तेमाल करते हैं. बिहार के किसान भी अपवाद नहीं हैं. दरअसल, प्रदेश में खेत की प्रति इकाई खाद व उर्वरक के इस्तेमाल में हाल के वर्षो में तेजी आयी है, चाहे वे मध्यम किसान हों या सीमांत या बड़े किसान. यहां तक कि वे निश्चित मात्र से अधिक का इस्तेमाल कर रहे हैं. यह वृद्धि उन जगहों पर ज्यादा है, जहां कम वर्षा होती है या सिंचाई के साधन नहीं हैं.
खास बात यह कि रासायनिक खादों व उर्वरकों का इस्तेमाल निर्धारित अनुपात की तुलना में असंगत होते हैं. लगता है, सरकार ने भी इस प्रवृत्ति को स्वीकार कर लिया है और इस मुद्दे पर अपनी चिंता को प्रकट किया है, पर बना किसी परिणाम के. लोगों के जीवन के लिए खतरा बनने के साथ ही मवेशियों के लिए भी ये खतरा बन रहे हैं. ये, यहां तक कि लाखों लोगों के लिए कृषि के स्थायित्व व जीविका के अन्य स्नेतों के साथ ही आस-पास की वनस्पति व जीव-जंतुओं के लिए भी गंभीर खतरा उपस्थित कर रहे हैं. प्रदेश में तुलनात्मक रूप से काफी अधिक लोगों के बीमार होने और जानलेवा बीमारी के तौर पर तेजी से फैलाव रसायनीकरण का परिणाम हो सकता है.
(लेखक इंडो-नेपाल फ्रेंडशिप ट्रस्ट, पटना के चेयरमैन हैं)