सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
आये दिन यह खबर आती है कि फलां दल का पदाधिकारी हिंसक गतिविधियों में लिप्त पाया गया. कभी खबर आती है कि फलां दल का पदाधिकारी बलात्कार या किसी अन्य अपराध में पकड़ा गया. इसी तरह की अन्य बातें भी.
फिर उस घटना पर विभिन्न दलों की प्रतिक्रियाएं आने लगती हैं. प्रतिद्वंद्वी दल के कुछ नेता आरोप लगाते हैं कि फलां दल अपराधियों से ही तो भरा पड़ा है. अब सवाल है कि उस ‘अपराधी’ के अपने खुद के दल की ओर से क्या बयान आता है! यदि सचमुच वह दल अपराधियों को सम्मानित करने वाला दल है तो वह कहता है कि उसे झूठे मामले में फंसा दिया गया है. यदि दल ठीकठाक है तो उसे पार्टी से निकाल देता है. पर जो दल यह कहता है कि हम चूंकि शेर के खिलाफ बकरी को चुनाव में खड़ा नहीं कर सकते, इसलिए फलां बाहुबली हमारे दल में है तो क्या हुआ? वह रहेगा. पर जो दल लोकलाज में विश्वास रखता है, वह किसी व्यक्ति को अपने दल का पदाधिकारी बनाने से पहले उसके बारे में पुलिस से मालूमात कर लें.
यदि वह दल सत्ता में है तब तो उसके लिए यह काम आसान है. यदि प्रतिपक्ष में है तो उस भावी पदाधिकारी से शपथपत्र हासिल कर ले कि उसके खिलाफ गंभीर अपराधों के तहत कोई केस लंबित नहीं है. इससे यह होगा कि आदतन अपराधी पार्टी के पदाधिकारी नहीं बन पायेंगे. इन दिनों अधिकतर राजनीतिक दलों को अपराधियों से परहेज नहीं है.
पर जिन दलों को परहेज है, वे पहले से ही सतर्क रहें. इसका असर प्रशासन पर भी पड़ेगा. एक नेता जी पटना से अपने जिले में गये. उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को बुलाया. उनसे कहा कि पता करिए कि आपके इलाके में कौन नौजवान है जो अपने बाप को जवाब देता है. कौन अपने भाई को पीटता है. कौन अपने चाचा को उठा कर पटक देता है. ऐसे ही नौजवान हमारे दल के कार्यकर्ता बनने लायक हैं. उन्हें अपने दल में शामिल करिए. क्योंकि अब गांधी युग नहीं रहा. यह राजनीति के अपराधीकरण के शुरुआती दौर की बात है. पौधे अब वृक्ष बन चुके हैं.
आज के शरद को कभी याद आते हैं 1976 के शरद? : शरद यादव ने 1976 में जेल से ही लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था. तब देश में आपातकाल था. मधु लिमये के बाद वे दूसरे नेता थे जिन्होंने ऐसा किया. 1976 में लोकसभा का कार्यकाल इंदिरा सरकार ने बढ़ा दिया था.
मधु और शरद ने कहा कि हम तो पांच साल के लिए चुने गये थे, इसलिए अब हम अधिक दिनों तक सांसद नहीं रहेंगे. पर इन दिनों शरद यादव कभी अपनी सांसदी बचाने के लिए अदालत जा रहे हैं तो कभी सरकारी मकान. कितने बदल गये हैं शरद यादव! याद रहे कि जब शरद यादव ने खुद अपनी मर्जी से जदयू छोड़ दिया तो उनकी सदस्यता जानी ही थी. फिर उसके लिए लड़कर और हार कर क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या कभी आज के शरद 1976 के शरद को याद भी करते हैं?
दिल्ली को राज्य का दर्जा या लगातार कलह : दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया ने कहा है कि यदि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला होता तो यहां लोकपाल होता, सीसीटीवी कैमरे लग जाते और मेट्रो का किराया नहीं बढ़ता. साथ ही गेस्ट टीचर और कांट्रेक्ट पर रखे गये कर्मचारियों की नौकरियां पक्की हो जातीं. उपमुख्यमंत्री की बातों में दम है.
क्योंकि उपराज्यपाल यह सब नहीं होने दे रहे हैं. यदि किसी राज्य के मुख्यमंत्री या उनकी सरकार को इस तरह के कोई अधिकार नहीं दिया गया है तो उनका पद नाम मुख्यमंत्री क्यों रखा है? बेहतर है कि दिल्ली को मुंबई की तरह महा नगरपालिका बना दिया जाये. संसद, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केंद्रीय सचिवालय, संसद भवन और केंद्रीय मंत्रियों के आवास-भवन आदि को देखते हुए दिल्ली के कुछ खास इलाकों को वेटिकन सिटी की तरह कोई विशेष दर्जा दिया जा सकता है.
यदि दिल्ली वि धानसभा चुनाव में एक बार फिर ‘आप’ को बहुमत मिल गया तो अगले वर्षों में भी इसी तरह केंद्र और दिल्ली सरकार टकराती रहेंगी और लोगों के कामकाज बाधित होते रहेंगे. याद रहे कि 2011 की जनगणना के अनुसार मुंबई की जनसंख्या 1 करोड़ 24 लाख थी, जबकि दिल्ली की एक करोड़ 10 लाख.
हीरे की लूट और कोयले पर छाप : पूरे देश में रक्षा मंत्रालय की 10 हजार 200 एकड़ जमीन अवैध कब्जे में है. सेना के 2500 बंगलों पर भी कब्जा है. रेलवे की भी हजारों एकड़ जमीन पर कब्जा है. रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण को लेकर देश में दो लाख 20 हजार मुकदमे चल रहे हैं.
यानी, सेना जैसा मंत्रालय, जिस पर देश की रक्षा का भार है, अपनी जमीन भी नहीं बचा पा रहा है. इसके लिए इस देश के कुछ नेताओं को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है जो अपने वोट के लिए सैनिक छावनियों की आंतरिक सड़कों को भी आम लोगों के लिए खोल देने के लिए दबाव डालते हैं. इसके बावजूद पटना की कुछ एकड़ जमीन केंद्र सरकार खास कर रेलवे के लिए हीरा जैसी कीमती बन गयी है. पटना-दीघा रेलवे लाइन की जमीन बिहार सरकार को सौंपने को लेकर केंद्र सरकार पटना हाईकोर्ट का भी सम्मान नहीं कर रही है. यदि वह जमीन बिहार सरकार को मिल जाये तो उस पर चौड़ी सड़क बन सकती है. उससे रोज-ब-रोज के भीषण जाम से काफी हद तक उस इलाके को मुक्ति मिल सकती है. इस मामले में केंद्र सरकार का रवैया देख कर यह कहावत याद आती है- ‘हीरे की लूट और कोयले पर छाप.’
एक भूली-बिसरी याद : प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार सर जेआर सिली ने अपनी पुस्तक ‘एक्सपैंसन आॅफ इंगलैंड’ में लिखा है कि ‘भारत को विदेशियों द्वारा जीता हुआ शायद ही कहा जा सकता है. यह कहना अधिक संगत है कि खुद भारतीयों ने ही भारत को हमारे लिए जीता.’
इन दिनों भी कई लोग यह कहते सुने जा रहे हैं कि आज भारत की स्थिति वैसी ही हो गयी लगती है जैसी विदेशी आक्रणमकारियों द्वारा कब्जा कर लिए जाने के समय थी. ऐसे में सर सिली की बातों को एक बार फिर याद कर लेना प्रासंगिक होगा. सिली ने लिखा कि ‘सन 1757 से 1857 तक के सौ वर्ष के लंबे समय में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में 16 प्रतिशत से अधिक अंग्रेज सिपाही कभी नहीं रहे.’ केंद्रीय मुगल सत्ता के बिखराब के कारण भी ब्रिटिश सत्ता भारत में जमी. स्थानीय सामंत आपस में लड़ रहे थे. जनता अपने शासकों से जातीय, भाषागत और धार्मिक विद्वेष के कारण पूर्णतः अलगाव महसूस कर रही थी.’
सर सिली की पुस्तक का हिंदी अनुवाद करवा कर पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने आम लोगों में बंटवाया था. चौधरी चरण सिंह ने इसे इसलिए बंटवाया ताकि भारतीय समाज में देशभक्ति का उदय हो. वे कहते थे कि ‘सिंकदर से लेकर महमूद गजनवी तक और बाबर से लेकर राॅबर्ट क्लाइव तक भारत की हार के कारण स्पष्ट रूप से समान थे.’ ‘आज भी आतंकवाद के रूप में भारत के खिलाफ जारी छद्म विदेशी युद्ध और उस पर भारत के विभिन्न नेताओं और बुद्धिजीवियों की परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाओं को देखते हुए मध्य युग की ही याद आती है.
और अंत में : कैलिफोर्निया से हाल में लौटे एक व्यक्ति ने बताया कि वहां पान पराग का एक पाउच 17 डाॅलर में मिलता है. एक अमीर देश के लिए भी यह छोटी राशि नहीं है. यानी, इस देश में भी नुकसानदेह सामग्री की कीमत यदि काफी अधिक कर दी जाये तो शायद आम लोगों की स्वास्थ्य रक्षा में सुविधा होगी.