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कानून-व्यवस्था सही होने पर ही तेज विकास संभव

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक हार की नयी सरकार को इस बार ओवर टाइम काम करना होगा. कम से कम एक मोरचे पर. सबसे पहले कानून-व्यवस्था को बेहतर बनाना होगा. सन 2005 के बाद के वर्षों में बिहार की कानून-व्यवस्था की स्थिति बहुत अच्छी थी. इसी सरकार में शामिल लोगों ने वह कमाल किया था. उससे […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
हार की नयी सरकार को इस बार ओवर टाइम काम करना होगा. कम से कम एक मोरचे पर. सबसे पहले कानून-व्यवस्था को बेहतर बनाना होगा. सन 2005 के बाद के वर्षों में बिहार की कानून-व्यवस्था की स्थिति बहुत अच्छी थी. इसी सरकार में शामिल लोगों ने वह कमाल किया था. उससे पहले की डेढ़ दशक की अराजकता को नीतीश सरकार ने अपनी इच्छाशक्ति से ठीक कर दिया था.
पर हाल के महीनों में कानून-व्यवस्था की स्थिति संतोषजनक नहीं रही है. अपराध के सरकारी आंकड़े चाहे जो कहते हों, पर आम धारणा आंकड़ों के विपरीत है. वर्ष 2006-07 में आम धारणा भी अच्छी थी और आंकड़े भी. जदयू-भाजपा की नयी सरकार ने इस बार भी विकास की गति तेज करने का मंसूबा बांधा है. केंद्र सरकार से भी इस बार अधिक मदद की उम्मीद है.
बहुत दिनों के बाद केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार है. यह अच्छा संयोग है. सरकार ने कुछ साल पहले विकास के क्षेत्र में भी अच्छे काम किये थे. यह सरकार भी एक बार फिर वह कमाल कर सकती है. पर उसकी पहली शर्त है कि कानून व्यवस्था बेहतर हो. इस संबंध में मैंने बिहार वाणिज्य मंडल के नेताओं से जब-जब बात की, उन लोगों ने यही कहा कि कानून-व्यवस्था की गड़बड़ी के कारण बाहर के व्यवसायी बिहार आने से घबरा रहे हैं. बिहार के व्यापारी, जो थोड़ा अधिक पैसे कमा रहे हैं, वे भी दूसरे राज्यों में पूंजी निवेश कर रहे हैं. राज्य सरकार इस सूचना की सच्चाई की जांच कर इस दिशा में उचित कदम उठा सकती है.
शरद यादव, एक नेता लीक से हटकर
राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद ने एक बार एक पत्रकार से कहा था कि शरद यादव को समझने में आपको सौ जनम लेना पड़ेगा. भले सौ जन्म न लेना पड़े, पर इतनी बात तय है कि शरद यादव अपने ढंग के अकेले नेता हैं. लीक से हटकर हैं. वह कभी-कभी संसद में ऐसी गूढ़ बातें बोल जाते हैं जिसे समझने में लोगों को काफी दिक्कत होती है. जदयू-राजद ताजा विवाद पर शरद यादव चुप हैं.
अबूझ पहेली बने हुए हैं. लगता है कि इस बार भी वह लीक से हटकर कुछ कदम उठाएंगे. उनके कदम राजनीति को कितना प्रभावित करेंगे, यह तो नहीं पता, पर उन्हें बोलते और राजनीति करते देखना दिलचस्प अनुभव होता है. हवाला कांड में इस देश के दर्जनों बड़े-बड़े नेता फंसे थे. किसी ने यह स्वीकार नहीं किया कि उन्होंने हवाला कारोबारियों से पैसे लिये. सिर्फ शरद यादव ने कहा कि कोई जैन आया था. उसने मुझे तीन लाख रुपये दिये थे. दरअसल शरद के मन में कोई छल नहीं है. उस पैसे के बदले उन्होंने उस जैन का कोई उपकार नहीं किया. हालांकि उस हवाला कारोबारी का स्वार्थ यही था कि जब वह कहीं फंसे तो उसके खिलाफ नेता लोग आवाज नहीं उठाये. याद रहे कि उसी जैन पर यह आरोप था कि वह कश्मीर के अतिवादियों को हवाला के जरिये बाहर से आये पैसे पहुंचता है.
शरद यादव को इस बात का पता नहीं रहा होगा. कई बार शरद यादव की राय उस दल के नेता से नहीं मिलती जिस दल में वे होते हैं. फिर भी शरद यादव को बिहार के कुछ नेता सम्मान देते हैं. शरद यादव ने 2007 में दिल्ली के एक हिंदी दैनिक में लेख लिख कर यह दावा किया था कि जिसके साथ एक भी विधायक नहीं था, उस लालू प्रसाद को मैंने 1988 में कर्पूरी ठाकुर का उत्तराधिकारी बनवा दिया. उस लेख में शरद जी ने यह भी लिखा था कि लालू को मुख्यमंत्री बनवाना भी मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी. पर इन दिनों शरद यादव एक दूसरी भूमिका में हैं. क्या इस बार भी किसी असंभव से दिखने वाले काम में लगे हुए हैं? पता नहीं. देखते रहिये. शरद यादव को आप नजरअंदाज नहीं कर सकते.
गलत काम के पहले जरा सोच लें परिणाम : झारखंड के एक पत्रकार ने कुछ साल पहले एक प्रकरण सुनाया था. उस पत्रकार ने राज्य के एक दबंग नेता के घोटाले के बारे में कुछ खबरें छाप दीं. उस नेताजी के खिलाफ स्थानीय पुलिस ने कार्रवाई की. पर अपने प्रभाव और पैसे के बल पर नेताजी साफ बच गये. नेताजी ने बाद में उस पत्रकार को बड़ा अपमानित किया.
उधर बच जाने के कारण नेताजी ने अपना भ्रष्टाचार जारी रखा. अगली बार कुछ बड़ा घोटाला कर डाला. इस बार वह सीबीआइ की गिरफ्त में आ गये. लंबे समय तक सीबीआइ की गिरफ्त में रहे. कुछ समय तक जेल में भी रहे. सजा से तो वे इस बार भी बच गये. पर, सीबीआइ द्वारा की गयी अपनी पिटाई उन्हें याद रही. उस नेताजी ने उस पत्रकार को कातर स्वर में एक दिन कहा कि सीबीआइ वाला बहुत पीटता है. पत्रकार ने पूछा कि आपको भी? आप तो बड़े नेता हैं! विश्वास नहीं हो रहा है आपको? नेता ने कहा कि मुझे भी इसकी उम्मीद नहीं थी. पर बात सोलह आने सच है. नेता ने कहा कि जिसको भी पकड़ता है, उन सबको पीटता है.
सीबीआइ वाला बड़े-छोटे का ध्यान नहीं रखता. आपने पहली बार मेरे खिलाफ खबर छापी थी, उसी समय यदि मैं संभल गया होता तो इतनी मार नहीं खाता. मुकदमे में इतना खर्च हुआ कि मेरे सारे पैसे खत्म हो गये. उसने यह भी कहा कि बहुत सारे वीआइपी लाज से स्वीकार नहीं करते, पर पकड़ाने पर सीबीआइ वाला लगभग सबको पीटता है. पता नहीं यह प्रकरण कितना सच है? पर 1976 में बड़ौदा डाइनामाइट केस में पकड़े गये दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने मुझे बताया था कि सीबीआइ ने मुझे कुर्सी से बांध कर लंबे समय तक टार्चर किया था.
कांग्रेस ने खोया मौका : भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने का एक और मौका कांग्रेस ने खो दिया. ऐसा न हो कि उसके लिए यह अंतिम मौका साबित हो!
बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को हटाने को लेकर कांग्रेस मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मजबूती से साथ दे सकती थी. ऐसा कर के कांग्रेस खुद को राजग के मुकाबले देश में खड़ा होने के लिए नैतिक बल हासिल कर सकती थी. पर लगता है कि कांग्रेस ने भ्रष्टाचार के प्रति अपना रवैया नहीं बदलने की कसम खा रखी है. वही पुराना ढीला ढाला या सहयोगी रवैया! हालांकि इसके कारण खुद कांग्रेस दुबली होती जा रही है.
मुकदमा नीति का पालन करे सरकार : बिहार सरकार ने एक मुकदमा नीति बना रखी है. यह एक बहुत अच्छी नीति है. किसी एक मुद्दे पर किसी एक व्यक्ति के पक्ष में अदालत कोई फैसला करती है तो वह फैसला उस तरह के अन्य मामले में अन्य व्यक्तियों पर स्वतः लागू हो गया माना जायेगा.
उस मामले में हर व्यक्ति को अलग-अलग अदालत की शरण में नहीं जाना पड़ेगा. यही मुकदमा नीति है. पर राज्य शासन आम तौर पर मुकदमा नीति का पालन नहीं करता. नतीजतन अदालत में मुकदमों की संख्या बढ़ती जाती है. अदालत का काम बढ़ जाता है. नतीजतन कई अन्य जरूरी मुकदमों के निपटारे में देरी होती है.
और अंत में : पटना हाइकोर्ट ने सड़कों पर अतिक्रमण को लेकर एक बार फिर पटना जिला प्रशासन से रपट मांगी है. दशकों से ऐसी रपट मांगी जाती रही हैं.
फिर भी दशकों यह समस्या जारी है. आगे भी इस समस्या के जारी ही रहने की उम्मीद है. दरअसल अतिक्रमण का असली कारण तो थानेदारों को पता होता है. अतिक्रमण न हटाने के पीछे उनकी क्या मजबूरी है? या फिर न हटाने के पीछे उनका अपना किस तरह का निहित स्वार्थ है? यह सब बात कोई उनसे तो पूछे! अब तो कम कहना, अधिक समझना.

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