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प्रभात खबर ने लिया बिहार के इन चार गांवों को गोद, जानिए इनके बारे में
वैसे तो अनेक गांव हैं, जहां के लोगों को तरक्की के मायने नहीं मालूम. इसी पृष्ठभूमि में हमने बिहार के चार गांवों का चयन किया जो विकास के मानक से काफी दूर हैं. इनमें भोजपुर का बजरुहा, मुजफ्फरपुर का मिठनसराय, गया का सिमरिया और भागलपुर का गोलाहू गांव शामिल हैं. इन गांवों में प्रभात खबर […]
वैसे तो अनेक गांव हैं, जहां के लोगों को तरक्की के मायने नहीं मालूम. इसी पृष्ठभूमि में हमने बिहार के चार गांवों का चयन किया जो विकास के मानक से काफी दूर हैं. इनमें भोजपुर का बजरुहा, मुजफ्फरपुर का मिठनसराय, गया का सिमरिया और भागलपुर का गोलाहू गांव शामिल हैं. इन गांवों में प्रभात खबर के स्थानीय संपादकों के नेतृत्व में वरिष्ठ सहयोगियों ने कई दौरे किये.
वहां की वस्तुस्थिति का जायजा लिया और इसके बाद तय किया कि इन गांवों की सूरत बदलने की पहल करनी चाहिए. यहां के लोगों को उस सुबह का इंतजार है, जिसकी परिभाषा समग्र विकास है. हम कोई दावा नहीं करते. पर खुद पर यकीन के साथ मानते हैं कि गांव स्तर पर चलने वाली योजनाओं को एक दिशा मिल जाये, तो छोटे-छोटे बदलाव बड़े फलक पर रेखांकित करने वाले होंगे. हम मानते हैं कि छोटी-छोटी कोशिशों से ही बड़ी राह निकल सकती है. गांवों को खुशहाल बनाने के लिए सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर कई एजेंसियां सक्रिय हैं. हम इस सक्रियता को और गतिशील बनाने की कोशिश करेंगे ताकि विकास की रोशनी उस चौखट तक पहुंचे, जहां के लोग अंधकार को अपनी नियति मान चुके हैं. यह मन:स्थिति टूटे, यह हम सबके लिए बेहद जरूरी है.
वैसे तो अनेक गांव हैं, जहां के लोगों को तरक्की के मायने नहीं मालूम. इसी पृष्ठभूमि में हमने बिहार के चार गांवों का चयन किया जो विकास के मानक से काफी दूर हैं. इनमें भोजपुर का बजरुहा, मुजफ्फरपुर का मिठनसराय, गया का सिमरिया और भागलपुर का गोलाहू गांव शामिल हैं. इन गांवों में प्रभात खबर के स्थानीय संपादकों के नेतृत्व में वरिष्ठ सहयोगियों ने कई दौरे किये. वहां की वस्तुस्थिति का जायजा लिया और इसके बाद तय किया कि इन गांवों की सूरत बदलने की पहल करनी चाहिए. यहां के लोगों को उस सुबह का इंतजार है, जिसकी परिभाषा समग्र विकास है. हम कोई दावा नहीं करते.
पर खुद पर यकीन के साथ मानते हैं कि गांव स्तर पर चलने वाली योजनाओं को एक दिशा मिल जाये, तो छोटे-छोटे बदलाव बड़े फलक पर रेखांकित करने वाले होंगे. हम मानते हैं कि छोटी-छोटी कोशिशों से ही बड़ी राह निकल सकती है. गांवों को खुशहाल बनाने के लिए सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर कई एजेंसियां सक्रिय हैं. हम इस सक्रियता को और गतिशील बनाने की कोशिश करेंगे ताकि विकास की रोशनी उस चौखट तक पहुंचे, जहां के लोग अंधकार को अपनी नियति मान चुके हैं. यह मन:स्थिति टूटे, यह हम सबके लिए बेहद जरूरी है.
पानी ढोने में ही खप जाती है आधी जिंदगी
गया : सिमरिया गांव
या एयरपोर्ट से सात किलोमीटर दूर सिमरिया ऐसा गांव है, जहां रहनेवाले करीब 750 लोगों से जीवन की मौलिक सुविधाएं भी कोसों दूर हैं. बोधगया से यहां की दूरी 16 िकलोमीटर है. यहां गांव के ही दो शिक्षकों के भरोसे जैसे-तैसे चलनेवाला एक प्राइमरी स्कूल जरूर है, पर सड़क, अस्पताल और बिजली जैसी सुविधाएं नदारद हैं.
पीने के लिए पानी तक का संकट है. गांववालों के सामने पानी जुटाने की चुनौती रोज ही खड़ी रहती है. काफी समय तो पानी के पीछे ही निकल जाता है. गांव के बाहर चलनेवाला एक नलकूप जब पानी दे रहा होता है, तो वहां लोगों की बड़ी भीड़ पहुंचती है. यह नलकूप गांव के मवेशियों के लिए भी मानो एक बड़ा वरदान है. क्योंकि, इनकी प्यास भी इसी से बुझती है.
और कोई स्रोत भी नहीं है, जहां मवेशी पानी पी सकें या नहा सकें. शहर से नजदीक होने के बावजूद सिमरिया में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ग्राम सड़क योजना, मुख्यमंत्री पुल-पुलिया योजना, मुख्यमंत्री नल-जल योजना सहित किसी भी योजना की अब तक झलक नहीं दिखी. गांववालों के मुताबिक, बाराचट्टी विधायक एक बार आग लगने पर आयी थीं. गांव की हालत पर अजय कुमार कहते हैं िक दो शिक्षकों के भरोसे बच्चों की पढ़ाई होती है. उमेश यादव कहते हैं कि जब सड़क ही नहीं है, तो विकास क्या होगा? बरसात आनेवाला है. इससे जब सारे किसान खुश होते हैं, तो सिमरिया वाले परेशान. सामान्य दिनों में भी किसी के बीमार पड़ने पर चौकी-खटिया ही यहां एंबुलेंस हैं.’ गांववाले बताते हैं कि बरसात में वे पड़ोस के गांव में ही अपनी साइकिलें रख देते हैं. पानी पार कर पड़ोसी गांव पहुंचने के बाद ही साइकिल से मदद मिल पाती है.
मुकेश कुमार बताते हैं कि बरसात में तो पढ़ाई भी ठप ही रहती है. तब गांव से बाहर निकल ही नहीं पाते. पप्पु कुमार व वार्ड सदस्य गणेश यादव कहते हैं कि आम दिनों में भी रात में किसी की तबीयत बिगड़ जाये, तो इलाज के लिए अस्पताल पहुंचना एक बड़ी चुनौती होती है. एक बार तो पैदल अस्पताल पहुंचने में देरी होने पर गांव की एक लड़की की जान ही चली गयी. उसे सांप ने डंस लिया था. सिमरिया के ही महेंद्र कुमार कहते हैं, ‘गांव में पानी की समस्या तो है ही. लेकिन, सबसे बड़ी समस्या सड़क की है. सड़क के बगैर रहना मुश्किल हो गया है. सड़क नहीं होने के कारण गांव में कोई वाहन नहीं आ पाता. हमलोग बहुत मुश्किल में जी रहे हैं.
तीन माह बंजारे-सी गुजरती है ‘गोलाहू’ की जिंदगी
भागलपुर : गोलाहू गांव
थनगर प्रखंड से तकरीबन छह किलोमीटर दक्षिण बेलखोरिया पंचायत में बसा है गोलाहू गांव. यहां दो सरकारी पोखर है. दोनों सूखे हुए. इसे खुदाई की जरूरत है. गांव में नियमित रूप से दो सरकारी चापाकल चलता है. बाकी कुछ घरों में चापाकल है, पर उपयोगी कम ही. चैत महीना आते-आते गांव में पानी संकट शुरू हो जाता है. खुद के लिए पानी की व्यवस्था बहुत मुश्किल से होती है. इस कारण हर घर से एक लोग मवेशियों को साथ लेकर दियारे की तरफ चल पड़ते हैं और जेठ के बाद ही लौटते हैं.
कच्ची गलियां, अंधेरे में कटती रातें
गांव पहुंचने की मुख्य सड़क पक्की है. लेकिन गांव के अंदर सिर्फ कच्ची गलियां हैं. आम दिनों में भी नाले के अभाव में पानी गलियों में बहता रहता है और कीचड़ से गलियां पटी रहती हैं. गांव में दो ट्रांसफॉर्मर लगे हुए हैं. एक ट्रांसफॉरमर छह माह से जला पड़ा है.
खटिया पर अस्पताल ले जाते हैं मरीज
गोलाहू से करीब छह किलोमीटर दूर है नाथनगर का रेफरल अस्पताल. रात में आपातकालीन स्थिति में लोग मरीज को खटिया पर लाद कर अस्पताल ले जाते हैं.
नयी पीढ़ी ही पढ़ी-लिखी
इस गांव में सिर्फ नयी पीढ़ी ही पढ़ी-लिखी है. वह भी सिर्फ स्कूली शिक्षा तक. हाइस्कूल और कॉलेज दूर है और दूसरा अभिभावक वर्ग शिक्षा को तवज्जो नहीं देते. इस कारण भी बच्चे आगे की पढ़ाई से मुख मोड़ लेते हैं. गांव में एक मध्य विद्यालय है, जहां 255 बच्चे नामांकित हैं.
स्वच्छता मतलब, पांच घर में शौचालय
मंटू यादव कहते हैं कि सभी लोग बहियार में शौच को जाते हैं. गांव में सिर्फ पांच-सात घरों में शौचालय है, वह भी साल-दो साल चलनेवाला.
हमारे गांव की सड़कें पक्की हो जाये और पानी समस्या दूर हो जाये. यही चाहते हैं. यहां हर घर में मवेशी है. इस कारण गोबर के सही उपयोग के लिए प्रशिक्षण मिले. पढ़े-लिखे लोग कम हैं, इसलिए नजदीक में एक हाइस्कूल भी हो.
सुनीता देवी, गोलाहू की इकलौती सिलाई-कटाई प्रशिक्षक
दंगल के लिए मशहूर हो सकता है गोलाहू
दुनिया भर में यह गांव मशहूर हो सकता है, पर यह अपने जिले में भी चर्चा का विषय आज तक नहीं बन पाया है. यहां के बच्चे होश संभालते ही दंगल की मिट्टी से मुहब्बत करना शुरू कर देते हैं. रूदल पहलवान यूपी और हरियाणा के कई पहलवानों को दंगल में धूल चटा चुके हैं. चंदन पहलवान, बबलू पहलवान जैसे डेढ़ दर्जन पहलवानों ने अपने खाते में कई अवार्ड दर्ज किये हैं.
82 बरिस उमिर हो गइल पर ए गो घरो ना मिलल
भोजपुर : बजरुहा
जपुर जिले के उदवंतनगर प्रखंड का बजरुहा गांव जिला मुख्यालय से आठ किलोमीटर और प्रखंड मुख्यालय से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. जिला व प्रखंड मुख्यालय के इतने करीब होने के बाद भी इस गांव में बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं. रहन-सहन, शिक्षा व्यवस्था, रोजगार और सिंचाई से लेकर हर मामले में यह गांव काफी पीछे है.
गांव का हर वर्ग विकास के लिए आगे आने को तैयार है लेकिन प्रशासनिक व्यवस्था से हर कोई दुखी है. गांव के लोगों के लिए जीविका का मुख्य आधार खेती है. इसी पर गांव के अधिकांश लोग अपनी गृहस्थी चला रहे हैं. खेतों में सिंचाई के लिए एक छोटी नहर है, जो उड़ाही नहीं होने के कारण जाम हो गयी है. इसकी वजह से अंतिम छोर तक पानी नहीं पहुंच पाता है.
एक स्कूल है, जहां बच्चों के बैठने तक की बेहतर व्यवस्था नहीं है. सामुदायिक भवन तो है, लेकिन हालत बेहद खराब. यादव, पासवान और महतो जाति बहुल इस गांव में कई गरीब परिवार पक्के मकान के लिए भी तरस रहे हैं. कई परिवार तो ऐसे हैं, जिनके घर और मवेशी के घर एक जैसे नजर आते है. ऐसे परिवार फूस के मकान में रहने को विवश हैं. गांव की नालियां कहीं कच्ची हैं, तो कहीं नाली का निर्माण ही नहीं हुआ है. सामुदायिक शौचालय भी नहीं है और हर घर शौचालय योजना के लाभ से गांव पूरी तरह वंचित है.
गांव में कुल 228 परिवार हैं, लेकिन निजी शौचालय केवल 40 घरों में ही हैं. गांव में शिक्षा का स्तर भी काफी नीचे है. उसमें भी साक्षरता दर 25 प्रतिशत ही है. पेयजल व्यवस्था चापाकल आधारित है. सरकारी चापाकल नाम मात्र के लगे हुए हैं.
बजरुहा गांव के लोगों के दिल में विकास नहीं होने का गम है. 82 साल की बुजुर्ग महिला किताबो देवी हों या फिर 20 साल का नौजवान पवन कुमार. सबको गांव के पिछड़ेपन का मलाल है. गांव में प्रवेश करने के साथ ही बुजुर्ग महिला से मुलाकात होती है. नाम पूछने पर महिला किताबो देवी ने अपना दुख यों जाहिर किया: 82 बरिस उमिर हो गइल लेकिन ए गो घरो ना मिलल. हमरा पास जमीनो नइखे. वहीं गांव के एक युवक पवन कुमार से मुलाकात हुई, तो उसने बताया कि गांव में सिंचाई के लिए नहर की उड़ाही कई वर्षों से नहीं हुई है. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए कोई व्यवस्था नहीं है. घर में शौचालय नहीं होने का मलाल गांव की महिलाओं को है.
महज नाम का है मिठनसराय दूर-दूर तक गायब है मिठास
मुजफ्फरपुर : मिठनसराय
टी प्रखंड का मिठनसराय गांव की दूरी मुजफ्फरपुर से केवल 12 किलोमीटर है. पर विकास के मामले में बहुत दूर खड़ा है. बाढ़ में यह टापू में तब्दील हो जाता है. गरमी में पानी के लिए यह तरसता है. पीने का पानी, सड़क, शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं की दशा ठीक नहीं है. बांस व बल्ली के सहारे लोग बिजली जलाते हैं.
मिट्टी भर कर छोड़ दिया
करीब डेढ़ हजार की आबादी वाले इस गांव में आने-जाने के लिए सड़क के नाम पर बूढ़ी गंडक के बांध पर बनी सड़क है. तीन साल पहले बनी यह सड़क खराब हो चुकी है. पीएमजीएसवाइ के तहत करीब 70 लाख की लागत से सड़क के बनने की तिथि एक जनवरी को समाप्त हो गयी. पर कुछ नहीं हुआ.
पेयजल का अभाव
पानी टंकी व नल का पानी आज तक इस गांव ने नहीं देखा. करीब आधा दर्जन सरकारी चापाकल लगे. पर वे भी खराब पड़े हैं. निजी चापाकल की गहराई कम होने के कारण उसके पानी से कीड़े भी आते है.
शिक्षा का हाल बेहाल
यहां एक प्राथमिक विद्यालय है, जिसमें दो छोटे-छोटे कमरे हैं. नामांकित छात्रों की संख्या 160 है. शिक्षकों की संख्या तो सात है, लेकिन बच्चों को बैठने के लिए जगह नहीं होने के कारण विद्यालय के बाहर बांस की छांव के नीचे पढ़ाया जाता है. दलित बस्ती के बच्चे पढ़ने नहीं जाते है.
नहीं है इलाज की व्यवस्था
स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं है. साधारण सी बीमारी में भी लोगों को इलाज कराने के लिए तीन किमी दूर एसकेएमसीएच जाना पड़ता है. .
खुले में जाते हैं शौच
गांव की 75 प्रतिशत आबादी खुले में शौच जाने को मजबूर है. हालात में लंबे समय से कोई बदलाव नहीं है.
सिंचाई की सुविधा नहीं
यहां सिंचाई की व्यवस्था नहीं है. पटवन की व्यवस्था होती, तो गेहूं व मक्का के अलावा धान व सब्जी की भरपूर खेती होती.
बिजली के पोल की कमी से लोग बांस में तार जोड़कर बिजली जला रहे है. इससे बड़ा हादसा हो सकता है.
शंभू कुमार पटेल, ग्रामीण
मजदूरी के लिए शहर जाना पड़ता है. लोगों को दूध की कीमत नहीं मिल पाती है. गांव में दूध क्रय केंद्र होना चाहिए.
उदय कुमार राय, ग्रामीण
शौचालय की जरूरत है. पीने के लिए पानी की व्यवस्था नहीं है. मनरेगा मजूदरों को 30 से 45 दिन का पैसा नहीं मिल रहा है.
राजेंद्र राम, ग्रामीण
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