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बच्चे चुनकर लाते हैं आम की गुठलियां सुखाने के बाद बनायी जाती है सब्जी
महादलित परिवारों को मुंह चिढ़ा रही है सरकारी खाद्य सुरक्षा योजना कचरे के बीच जिंदगी तलाश रहे महादलित परिवार मुंगेर : मुंगेर में मजबूर महादलितों को जहां सरकार की खाद्य सुरक्षा योजना मुंह चिढ़ा रही है, वहीं ये मादलित परिवार कचरे के ढ़ेर में अपनी जिंदगी तलाशते नजर आ रहे हैं. इन महादलित परिवारों के […]
महादलित परिवारों को मुंह चिढ़ा रही है सरकारी खाद्य सुरक्षा योजना
कचरे के बीच जिंदगी तलाश रहे महादलित परिवार
मुंगेर : मुंगेर में मजबूर महादलितों को जहां सरकार की खाद्य सुरक्षा योजना मुंह चिढ़ा रही है, वहीं ये मादलित परिवार कचरे के ढ़ेर में अपनी जिंदगी तलाशते नजर आ रहे हैं. इन महादलित परिवारों के जीवन का सफर इतना कठिन है कि वे दो वक्त की रोटी भी सही से नहीं जुटा पा रहे.
भूख को मिटाने के लिए ये लोग आम की गुठलियों को जमा करते हैं तथा गुठली के अंदर वाले भाग को खाद्य पदार्थ के रूप में उपयोग करने को मजबूर है. जहां तक खाद्य सुरक्षा योजना की बात है, उसके तहत मिलने वाले राशन की मात्रा इतनी कम है कि ये लोग उससे अपनी भूख भी नहीं मिटा पा रहे हैं. वहीं कई परिवार तो खाद्य सुरक्षा योजना के लाभ से भी वंचित हैं. यह तस्वीर मुंगेर के किसी सूदूर क्षेत्र की नहीं है, बल्कि शहरी क्षेत्र की है. जहां सरकार के नुमाइंदे बैठते हैं, लेकिन इन महादलितों की मजबूरियों से वे बिल्कुल पूरी तरह बेखबर हैं.
शहर के बोचोबीच वार्ड नंबर 15 के तीन नंबर रेलवे गुमटी के रेलवे मैदान में चहारदीवारी से घिरी महादलितों की एक बस्ती है. जहां 40 से 45 परिवार अपने परिजनों के साथ रहते हैं. इनकी जिंदगी इतनी दूभर है कि इन्हें छत तक नसीब नहीं हो पाया है. कुछ तो प्लास्टिक तान कर, तो कुछ यू ही अपनी जिंदगी की गाड़ी खींच रहे हैं. आलम यह है कि वृहद पैमाने पर शिक्षा के प्रचार के बावजूद यहां पर एक भी व्यक्ति पढ़ा लिखा नहीं है. पूरा परिवार कचरा चुन कर ही अपनी जिंदगी चलता है. नालों के बीच और खुले में शौच इनकी दिनचर्या में शामिल है. जबकि यहां के बच्चों का मुख्य खिलौना सूअर है.
यहां के बच्चे नाले के कीचड़ से लोटपोट सूअरों के साथ खेलते हैं. मुंगेर सहित अधिकांश हिस्सों में दलितों की बदकिस्मती है कि उनमें अधिकांश भूमिहीन है. रहने का ठिकाना कहीं भी तलाश लेते है. चाहे सरकारी जमीन हो या फिर खाली अन्य जमीन. ये लोग पूरबसराय में रह रहे हैं. पहले पूरबसराय एक छोटा स्टेशन था, आज गंगा नदी पर पुल बनने के बाद वह मुंगेर रेलवे स्टेशन में तब्दील हो गया है.
इस तब्दीली के साथ पूरे परिसर की घेराबंदी हो गयी है और इनके उजड़ने का खतरा बना हुआ है. भूमिहीनता के कारण सरकार की योजनाओं से ये लोग वंचित है. साथ ही इनकी भूमिहीनता सरकार के उस दावे को मुंह चिढ़ा रही है. जिसमें इन्हें बसाने के लिए तीन डिसमिल जमीन देने की बात कहीं गयी है. जहां पर ये लोग बसे हैं, वहां से कुछ ही दूरी पर भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का क्षेत्रीय प्रचार कार्यालय है. जिसका काम सरकार की योजनाओं से लोगों को वाकिफ कराना है और लाभ लेने के लिए प्रेरित करना है. लेकिन उस विभाग कर्मी आज तक इन लोगों के पास नहीं पहुंच पायी है.
इस मोहल्ले के महादलितों की जिंदगी कचरों में बसी हुई है. कचरों में ही पुस्त दर पुस्त जिंदगी तलाशने की बेबश कहानी कभी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है. यहां पर रहने वाले संतोष कुमार, जवाहर मांझी, सार्जन मांझी, सुखरी मसोमात, सिलिया देवी सहित अन्य ने बताया कि मुंगेर से ऑटो पकड़ कर वे लोग और उसके बच्चे बरियारपुर, जमालपुर, नौवागढ़ी तक कूड़ा चुनने के लिए जाते हैं.
दिन भर जो कूड़ा-कचरा चुन कर लाते हैं, उस दिन भर की मेहनत से महज 100-150 रुपये की कमाई हो पाती है. कचरे में अगर किसी दिन अच्छा समान मिल गया तो उस दिन 200 रुपये तक भी मिल जाता है. जिसके बल पर इन महादलितों का परिवार चलता है. इन लोगों का मानना है कि कचरा नहीं होता तो उसकी जिंदगी बेकार होती और वह भीख मांगने को विवश होता.
कहते हैं चिकित्सक
सदर अस्पताल के चिकित्सक डॉ राजीव कुमार ने बताया कि आम के गुठली से निकलने वाला बीज को नियमानुसार सेवन करने से फायदे ही फायदे हैं. लेकिन नाला, कचरों के ढेर से निकाल कर बिना साफ किये इसका सेवन करने से संक्रमण होने का खतरा बना रहता है. इसलिए गुठली को अच्छी तरह धो कर सुखा कर उसके अंदर के बीज को निकाल कर सेवन करना चाहिए.
कहते हैं एसडीओ
एसडीओ खगेशचंद्र झा ने बताया कि रेलवे की जमीन है. इसलिए वहां किसी प्रकार का सरकारी निर्माण कार्य नहीं कराया जा सकता है. उन्हें बसाने की दिशा में ठोस पहल की जायेगी. जहां तक खाद्य सुरक्षा योजना की बात है तो वे अपने बच्चों का नाम कार्ड में जुड़वा सकते हैं. वे खुद इस दिशा में पहल करें कि बच्चों का नाम कार्ड में जुड़ जाये.
सरकार की खाद्य योजना भी नहीं बुझा पाती पेट की आग
सरकार ने गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा योजना चला रखी है, ताकि भूख से किसी की मौत नहीं हो. इस योजना के तहत एक यूनिट पर तीन किलो चावल एवं दो किलो गेहूं दिया जाता है.
यह योजना पिछले कई वर्षों से चली आ रही है, जिसमें कोई तब्दीली नहीं हुई है. इसी पांच किलो अनाज के बूते एक महीना तक उस गरीब परिवार को अपनी भूख मिटानी पड़ रही है. अब सवाल यह उठता है कि समय दर समय परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ती जाती है, लेकिन कार्ड में उनके नाम नहीं जुटते. कुछ इसी तरह की परिस्थिति से इस स्लम बस्ती के लोग जूझ रहे हैं. जिसके लिए सरकारी खाद्य योजना भी पेट की आग बुझाने में नाकाफी पड़ रही है.
आम की गुठली से बनाते हैं भोजन
इन महादलित परिवारों के लिए दूभर जिंदगी बरसात के दिनों की होती है. क्योंकि बरसात में ये लोग कई दिन कूड़ा चुनने के लिए निकल भी नहीं पाते हैं. जब घर से बाहर निकलेंगे ही नहीं तो कचरे से होने वाला आमदनी भी खत्म हो जाता है.
उस समय अपना और अपने बच्चों का पेट पालना भी इनके लिए मुश्किल हो जाता है. इस मुसीबत से बचने के लिए इन गरीबों ने एकअलग रास्ता अख्तियार कर रखा है. आम के सीजन में घूम-घूम कर आम की गुठलियां जमा करते हैं और धूप में सुखा कर इसे रख लेते हैं.
उसके बाद गुठली के अंदर के बीज को निकाल कर उसे पुन: अच्छी तरह सुखा लेते हैं. ताकि वह अंकुरित नहीं हो सके. जब बरसात में खाने के लाले पड़ते है तो इसी आम के गुठली के बीज का आटा तैयार कर उसकी रोटी बनाते है और अपना व अपने बच्चों के पेट की आग बुझाते है.
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