गिद्धौर : भारत वर्ष में नारी शक्ति की पूजा शदियों से होती चली आ रही है. वेदों में भी वर्णित है यत्र नार्येस्तू पूज्यते तत्र रमणते देवता अर्थात जहां नारियों की पूजा होती है, वहीं देवता रमण करते हैं आद्य शक्ति मां दुर्गा भी नारी स्वरूपा हैं. इसलिए आदिशक्ति की पूजा व अराधना चार शताब्दी पूर्व से सूबे के इस छोटे से कस्बे गिद्धौर में शदियों से पौराणिक परंपरा नेम नष्ठिा के अनुरूप होती चली आ रही है. बिहार में गिद्धौर का यह दुर्गा मंदिर तप साधना के लिये सर्व प्रतष्ठिति शक्तिपीठ स्थल के रूप में माना जाता है.
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तांत्रिक विधि से होती है मां परसंडा की पूजा
गिद्धौर : भारत वर्ष में नारी शक्ति की पूजा शदियों से होती चली आ रही है. वेदों में भी वर्णित है यत्र नार्येस्तू पूज्यते तत्र रमणते देवता अर्थात जहां नारियों की पूजा होती है, वहीं देवता रमण करते हैं आद्य शक्ति मां दुर्गा भी नारी स्वरूपा हैं. इसलिए आदिशक्ति की पूजा व अराधना चार शताब्दी […]
गिद्धौर की ऐतिहासिक पहचान: इस कस्बे की ऐतिहासिक रूप से दो ही पहचान है, एक यहां की पुरानी रियासत तो दूसरी दुर्गा पूजा, और दोनों की ही लंबी परंपरा रही है.
चंदेल रियासत के ग्रामीणों में दशहरे को ले यह युक्ति है चरितार्थ:
गिद्धौर के ऐतिहासिक दुर्गा पूजा को ले सदियों से यहां एक कहावत प्रचलित है कि काली है कलकत्ते की दुर्गा है परसंडे की. अर्थात काली के प्रतिमा की भव्यता का जो स्थान बंगाल राज्य के कोलकाता में है, वही स्थान गिद्धौर में मां परसंडा की प्रतिमा का है. यहां पर नवरात्रि के समयावधि में हर रोज हजारों श्रद्धालु अनंत श्रद्धा व अखंड वश्विास के साथ माता दुर्गा की प्रतिमा को निहारते व उनके दर्शन कर अराधना करते नजर आते हैं.
11वीं शताब्दी से निरंतर होती चली आ रही है मां परसंडा की पूजा: यहां यह कहना मुश्किल है की दुर्गा पूजा की शुरूआत कब और कैसे हुई, और कालांतर में इसके मनाने के स्वरूप व संरचना में क्या बदलाव आये. लेकिन यह कहा जा सकता है कि जब से गिद्धौर रियासत की नींव वीर वक्रिम बर्मन ने 11वीं शताब्दी में रखी थी, तब से चाहे मुगल सम्राज्य के शासनकाल का समय रहा हो, ईस्ट इंडिया कंपनी, ब्रिटिश साम्राज्य, या फिर स्वतंत्र भारत का समयकाल, यहां यह पर्व विशेष रूप से मनाया जाता रहा है.
पूजा संपादन का अनोखा संगम: लोक परंपरा व पौराणिक विधान के अनूसार गिद्धौर के मां दुर्गा मंदिर में भगवती पूजन का अनोखा संगम देखने को मिलता है.पूजा विधि विधान के संदर्भ में गिद्धौर निवासी आचार्य लक्ष्मीकांत शास्त्री बताते हैं, कि यहां तंत्र पद्धति से पौराणिक परंपरा के अनुरूप पूजन कार्य संपादित कराया जाता है.
पुरोहित व पूजक का पूजा से पूर्व कराया जाता है अभिषेक: मंदिर में वही पुरोहित पूजा करा सकते हैं जिनका संपूर्ण अभिषेक हुआ हो,और पूजक का भी अभिषेक होना अनिवार्य होता है. तांत्रिक पद्धति से पूजा संपन्न कराने के लिये पूर्व में देवघर के वद्विान पंडित स्व.भूषण मश्रि तंत्र विधान की कुंडलिनि पद्धति से मां दुर्गा की पूजा अर्चना करवाते थे. वर्तमान में उनके पारिवारिक सदस्य के पुरोहितों द्वारा पूर्ण विधि विधान के साथ यहां यह ऐतिहासिक दुर्गा पूजा संपन्न कराई जा रही है.आचार्य श्री शास्त्री ने बताया कि पूजा में मां भगवती को छप्पन प्रकार का भोग लगाया जाता है.
बकरे की दी जाती है बलि: चंदेल राज घराने के परंपरा के अनुरूप प्रतिदिन राज परिवार द्वारा दो दिन छोड़ हर दिन बकरे की बलि दी जाती है.जो आज भी यहां कायम है.
अंग्रेजी शासक भी गिद्धौर मेले की बढ़ाते थे शान: दशहरे में गिद्धौर महाराजा के आमंत्रण पर तत्कालीन बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर एडेन,एलेक्जेण्डर मेकेंजी,एण्ड्रफ फ्रेजर,एडवर्ड ब्रेकर जैसे अंग्रेजी शासक दशहरा के मौके पर गिद्धौर आकर यहां के मेले में भाग ले संस्कृति की शोभा बढ़ाते थे.
पवित्र नदी के संगम में स्नान करने से निःसंतान दंपती को होती है पुत्र रत्न की प्राप्ति: सदियों पूर्व से जैनागमों में चर्चित पवित्र नागी नकटी गंगा यमुना सरीखी इन दो पवित्र नदियों में सरस्वती स्वरूपणी दुधियाजोर मिश्रित होती है.जिसे आज भी झाझा रेलवे के पूर्व सग्निल के पास देखा जा सकता है. जैनागमो में किये गये वर्णन के अनुसार इस संगम में स्नान करने के उपरांत मां दुर्गा मंदिर में हरिवंश पुराण का श्रवण करने से निःसंतान दंपत्ति को गुणवान पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है.
दशहरा के अवसर पर खेल तमाशों का भी होता है आयोजन:
यहां के प्रसद्धि मेले में कभी मल्लयुद्ध का अभ्यास, तीरंदाजी, कवि सम्मेलन, नृत्य संगीत प्रतियोगिता,काआयोजन हुआ करता था. वर्तमान समय में टावर झूला, काठघोड़ा, सर्कस, जादू मौत कुआं, विज्ञान कला मक्किी माउस, जैसे कई मनोरंजक खेल तमाशे मेले की शोभा बढ़ाते हैं. ऐसा माना जाता है की उन दिनों गिद्धौर महाराजा आम अवाम के बीच दर्शन के लिए उपस्थित होते थे.
चंदेल राजवंश ने 1566 में अलीगढ़ के कारीगरों से कराया था गिद्धौर दुर्गा मंदिर का निर्माण
गिद्धौर रियासत के आठवें वंशज पूरणमल ने सन 1566 में गिद्धौर के उलाय नदी तट पर अलीगढ़ के स्थापत्य कला से जूड़े राज मस्त्रिीयों को बुलाकर शास्त्र विधि विधान के अनूसार गिद्धौर परसंडा मां दुर्गा मंदिर का नर्मिाण शास्त्र विधि विधान अनुसार विधिवत रूप से करवाया था.तब से जैनागमों में चर्चित पवित्र नदी उज्जुवलिया वर्तमान में उलाय नदी के नाम से प्रसद्धि व नाग्नि नदी के संगम पर बने इस अति प्राचीन व ऐतिहासिक मंदिर में मां दुर्गा की पूजा अर्चना परंपरा अनुरूप होती चली आ रही है.हलांकि इस मंदिर का पूर्णोद्धार कई बार हो चूका है. लेकिन मंदिर की मूल संरचना वही है, आजादी के पहले दशहरे को गिद्धौर चंदेल राज रियासत के तत्कालीन महाराजा के अगुवाई में धूमधाम से विधिवत व वृहत पैमाने पर मनाया जाता था. 19 वीं एवं 20वी शदी के पूर्वार्द्ध तक गिद्धौर महाराजा जयमंगल सिंह, महाराजा रावणेश्वर सिंह, महाराजा चंद्रचूड़ सिंह, चंदेल राज रियासत की अपनी जम्मिेदारी को बखूबी निभाते हुये यहां के दशहरा को काफी लोकप्रिय बनाये रखा. लेकिन आजादी के बाद इस रियासत के अंतिम उत्तराधिकारी महाराजा बहादुर प्रताप सिंह के द्वारा इसे जनाश्रित घोषित कर दिया गया. तब से लेकर आज तक गिद्धौर के ग्रामिणों द्वारा गठित शारदीय दुर्गा पूजा सह लक्ष्मी पूजा समिति द्वारा मां दुर्गा की अराधना विधिवत रूप से वर्तमान समय में कराई जा रही है.
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