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पिता को चाहिए बच्चों का प्यार

फादर्स डे की पूर्व संध्या पर प्रभात खबर ने आयोजित की परिचर्चा गोपालगंज : आर्थिक युग में चारों तरफ रिश्ते दरक रहे हैं. रिश्तों को बचाना चुनौती बना हुआ है. भौतिकवादी इस युग में पिता को चाहिए सिर्फ बच्चों को प्यार और सम्मान. आज बच्चों के पास पिता के हाल जानने तक का वक्त नहीं […]

फादर्स डे की पूर्व संध्या पर प्रभात खबर ने आयोजित की परिचर्चा
गोपालगंज : आर्थिक युग में चारों तरफ रिश्ते दरक रहे हैं. रिश्तों को बचाना चुनौती बना हुआ है. भौतिकवादी इस युग में पिता को चाहिए सिर्फ बच्चों को प्यार और सम्मान. आज बच्चों के पास पिता के हाल जानने तक का वक्त नहीं है. इसके लिए कहीं-न-कहीं से हम हमारा समाज जिम्मेदार है.
हम अगर अपनी संस्कृति, सभ्यता और संस्कार को अपने बच्चों को ढाले होते तो शायद पश्चात संस्कृति प्रभावी नहीं होती. भले ही भारत आज फादर्स डे मना रहा है, लेकिन सच तो यह है कि हम पितृपक्ष मनाते हैं. प्रभात खबर की तरफ से आयोजित परिचर्चा में शामिल शहर के साहित्यकार, शिक्षाविद, कवि एवं प्रबुद्ध लोगों ने खुल कर चर्चा की. दो घंटे तक चली परिचर्चा में कई चौंकानेवाली बातें भी सामने आयी.
प्रबुद्ध लोगों की चिंता आनेवाले कल का भी था. आज जिस प्रकार बच्चों को अपने माता पिता का हाल जानने तक का वक्त नहीं है. सेवानिवृत्त कृषि पदाधिकारी जगदीश नारायण सिंह ने कहा कि बेटी बेटों से अधिक सेवा करती है. वह ससुराल जा कर भी माता – पिता का ख्याल रखती है.
हम बुजुर्गो को यह ध्यान देना कि वही बेटी ससुराल में जाकर सास-ससुर की सेवा क्यों नहीं कर पाती. बहू को भी बेटी की दृष्टि देखा जाये, तो वह बहू निश्चित ही माता-पिता की तरह सेवा करेगी. मां भूखे रह कर अपने बच्चों की परवरिश करती है. को-ऑपरेटिव बैंक के अध्यक्ष महेश राय ने कहा कि हमारी सभ्यता संस्कृति वेद, कुरान उपनिशद से भरा हुआ है. हमारा संस्कृति गवाह है कि ईश्वर से उच्च पिता और गुरु का सम्मान है, जबकि मार्केंडेय राय शर्मा ने कहा कि विश्व में भारत की संस्कृति संस्कार से जुड़ा हुआ है. आज संस्कार समाप्त होने के कारण समाज में पिता की दुर्दशा हो रही है.
इसके लिए हम सभी जिम्मेवार हैं, जबकि हरिनारायण सिंह ने कहा कि बचपन से हम संस्कार में जीते हैं. विवाह को भी हम संस्कार मानते हैं. 12 सौ वर्ष तक हक गुलाम रहे, पर आज भी हम गुलामी से बाहर नहीं निकल पाये. हमारा देश तो श्रवण कुमार जैसे बेटे की परिकल्पना करता है. हम एक दिन नहीं 15 दिन पितृपक्ष अपने पूर्वजों की याद में मनाते हैं.
परिचर्चा में वक्ताओं ने स्पष्ट किया कि आज के परिवेश में दो वक्त की रोटी और सम्मान की जरूरत है. परिचर्चा में रामदास त्रिपाठी, कन्हैया पांडेय, ध्रुप मिश्र, हरिहर प्रसाद, मो अजरुद्दीन हक, रामेश्वर तिवारी, रघुवंश पांडेय, राघव मणि त्रिपाठी आदि मौजूद थे.

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