– अजय पांडेय –
गया : यों तो पिंडदानियों के लिए गया की धरती व विष्णुपद मंदिर की आभा ही पर्याप्त है, लेकिन इसके साथ फल्गु का सम्मिलन पिंडदान को परिपूर्ण करता है. पिंडदानियों की मन:स्थिति में एक दैवीय व अलौकिक श्रद्धा का संचार करता है.
यह सिर्फ कहने-सुनने की बात नहीं है, बल्कि आम दिनों से लेकर पितृपक्ष तक में उमड़ी पिंडदानियों की भीड़ को देख कर प्राप्त किया गया अनुभव है. यह अनुभव है, जो एनआरआइ किरण तिवारी से लेकर ऑस्ट्रेलिया की इलियाना की श्रद्धा को देख कर मिलता है.
अनुभव की किरण वहां से प्रस्फुटित होती है, जहां से ग्वालियर के 92 वर्षीय प्रभुदयाल के जीवन की लौ बुझती नजर आने के बावजूद वह अपने ढाई वर्षीय पोते के लिए गया में पिंडदान करते हैं.
सवाल यह है कि जब लोगों की आस्था व श्रद्धा इतनी प्रबल है, तो उस पर कुठाराघात क्यों? क्या सिर्फ गया, विष्णुपद व फल्गु के नाम पर सब उचित है? हालांकि पिंडदानी भी इस बात को लेकर उतने सजग नहीं दिखते कि फल्गु में जिस पानी का प्रवाह है, वह कैसा है. वे तो बस विष्णुपद व फल्गु को जानते हैं.
कोलकाता से आये एक दंपती को विश्वास नहीं होता है कि जिस श्रद्धा व आस्था के साथ उसने गया आकर पिंडदान व तर्पण किया है, वह मनसरवा के बदबूदार पानी में घुट जायेगा. ऐसा ही आश्चर्य छत्तीसगढ़ से आये एक परिवार के सदस्यों को भी होता है, क्योंकि वे उसी नाले के पानी में स्नान भी कर चुके होते हैं.
फल्गु में बहते काले पानी का सच जानने के बाद एक पिंडदानी कहता है, ‘भाई, यह तो बाहर से आनेवाले लोगों की आस्था के साथ छल है. क्या यह एक तरह की भावनात्मक धोखाधड़ी नहीं है?’
वैसे, इस बात की शिकायत पंडा समाज को भी है तो जरूर, पर इससे पिंडदानियों को कोई फायदा नहीं. इनका दावा है कि वे लोग कई बार इस मामले को उठा चुके हैं. विष्णुपद प्रबंधकारिणी समिति के पूर्व संयुक्त सचिव गजाधर लाल कटरियार कहते हैं कि यह एक गंभीर समस्या है. प्रशासन को इस बात से अवगत भी कराया गया, लेकिन कोई हिलता-डुलता तक नहीं.
कर्ता-धर्ता ऐसे कि किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती. उन्होंने कहा कि मिनी पितृपक्ष में भी लाखों पिंडदानी आते हैं. लेकिन प्रशासन की तरफ से कोई व्यवस्था नहीं होती. फल्गु में पानी नहीं होने की वजह से वे नाले के पानी को नदी का ही पानी समझ कर उसमें तर्पण करते हैं.