गया: इसे भाषायी विद्वता कहें या पेशे की मजबूरी, जहां हर किसी को उसकी भाषा व शैली में सेवा दी जाती है. वैसे तो गया प्रारंभ से ही विभिन्न संस्कृतियों के संगम का केंद्र रहा है, लेकिन पितृपक्ष में जो दृश्य दिख रहे हैं, वे ‘कॉरपोरेट वर्ल्ड’ के शब्दकोश को और ज्यादा पुष्ट कर रहे हैं.
दरअसल हम बात कर रहे हैं गया पितृपक्ष मेले की, जहां विभिन्न देशों व राज्यों से पिंडदान करने आये श्रद्धालुओं को उनकी भाषा, लेकिन भारतीय संस्कृति में सेवा दी जा रही है. विश्व प्रसिद्ध पितृपक्ष मेले में किसी भी पिंडदानी को भाषायी तौर पर कोई परेशानी न हो इसके लिए यहां के पंडित भाषा पर विशेष ध्यान दे रहे हैं. नेपाल से आया सुबोध सिंह का परिवार अपनी भाषा को लेकर संशय में था, उन्हें लग रहा था कि हिंदी नहीं आने से उनको दिक्कत होगी. लेकिन, जब उनकी मुलाकात नेपाली बोलने वाले पंडित से हुई, तो उन्हें राहत मिली.
इतना ही नहीं ऑस्ट्रेलिया से आयी इलियाना व उसके पुत्र माइक को भी दिक्कत हो रही थी, लेकिन पंडित पुरुषोत्तम शास्त्री ने पिंडदान की क्रियाविधि अंगरेजी में समझाकर उनकी परेशानी को दूर कर दिया. जापान से पिंडदान पर शोध करने आई टोमोको मुशिगा का भी कुछ ऐसा ही हाल है. हालांकि उसे थोड़ी बहुत हिंदी आती है, लेकिन वह नाकाफी है. अंतत: उसे अंगरेजी का ही सहारा लेना पड़ता है.
भाषा संबंधी समस्या सिर्फ विदेशियों के लिए नहीं है, बल्कि पश्चिम बंगाल, दक्षिण भारत व अन्य अहिंदी भाषी राज्य से आये श्रद्धालुओं के साथ भी है. इसलिए उनको उन्हीं की भाषा में सेवा दी जा रही है. इस बारे में पंडित लोग बताते हैं कि मंत्र का उच्चरण तो संस्कृत में ही किया जाता है, लेकिन सामान्य बोलचाल व क्रियाविधि को उन्हीं की भाषा में बतायी जाती है. पेशेवर प्रारूप में इसे जो भी कहा जाये, लेकिन विभिन्न संस्कृतियों को आकर्षित करने की यह पहल सकारात्मक है.