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मानव जीवन में नहीं होता मनोरथ का समापन

जीयर स्वामी आरा : मानव जीवन में मनोरथ का समापन नहीं होता बल्कि एक पूरा हुआ नहीं कि दूसरा खड़ा हो जाता है. बालपन से वृद्धावस्था तक उम्र के हर पड़ाव पर स्नेह और कामनाएं बदलती रहती हैं, लेकिन सुख मृग तृष्णा बना रहता है. उपरोक्त बातें श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी ने चंदवा चातुर्मास […]

जीयर स्वामी
आरा : मानव जीवन में मनोरथ का समापन नहीं होता बल्कि एक पूरा हुआ नहीं कि दूसरा खड़ा हो जाता है. बालपन से वृद्धावस्था तक उम्र के हर पड़ाव पर स्नेह और कामनाएं बदलती रहती हैं, लेकिन सुख मृग तृष्णा बना रहता है. उपरोक्त बातें श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी ने चंदवा चातुर्मास ज्ञान यज्ञ में प्रवचन करते हुए कहीं. स्वामी जी ने कहा कि मनुष्य का स्नेह एवं सुख की कामना बाल्यकाल से ही परिवर्तित होता रहता है. शिशु काल में बच्चा मां की गोद में सुख मानता है.
बड़ा होने पर पिता की गोद में, फिर साथियों के साथ खेलने में सुख पाता है. विवाह होने के बाद पत्नी में सुख का अनुभव करता है. इस तरह मां से शुरू स्नेह उत्तरोत्तर पुत्र-पौत्र की ओर बढ़ता जाता है, लेकिन वास्तविक सुख की प्राप्ति नहीं होती. उन्होंने कहा कि सुख केले के थंभ की भांति है. थंभ से परत- दर- परत छिलका हटाते जाएं, लेकिन सार तत्व की प्राप्ति नहीं होती. श्री स्वामी जी ने कहा कि अपने परिवार के साथ रहें. उनका भरण-पोषण भी करें, लेकिन जीवन भर उसमें अटके-भटके नहीं. इसलिए मानव का धर्म है कि परिवार रूपी प्लेटफॉर्म का अनाशक्त भाव से सदुपयोग करें, ताकि जीवन यात्रा के क्रम में बाधक नहीं बने. आशक्ति दु:ख का कारण है. प्रसंगवश उन्होंने कहा कि मनुष्य को शरीर त्यागने के वक्त जिस विषय-वस्तु में उसकी आशक्ति रहती है, वहीं जन्म लेना पड़ता है.
‘यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्,
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभवित:।
हे कुंती पुत्र अर्जुन! यह मनुष्य जिस-जिस भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उसको वही प्राप्त होता है. स्वामी जी ने कहा कि मानव को अपने शरीर नहीं आत्मा के उद्धार का प्रयास करना चाहिए. चंदन से शरीर जलाने से केवल शरीर का उद्धार होता है, आत्मा का इससे वास्ता नहीं.
मन पवित्र हुआ तो सब पवित्र होगा. इसलिये मन के भटकाव व चंचलता को रोकना चाहिए. उन्होंने कहा कि हर स्वस्थ व्यक्ति 24 घंटे में 21,600 बार सांस लेता है. सांस लेने, रोकने और छोड़ने की प्रक्रिया को कुंभक, पूरक एवं रोचक कहा जाता है. प्राणायाम चंचलता एवं मन के भटकाव को रोकने का श्रेष्ठ उपाय है. मन, वाणी एवं शरीर से किसी की अहित की भावना नहीं होनी चाहिए. मनुष्य के जीवन में संग भी अच्छा होना चाहिए, क्योंकि संग का बहुत बड़ा प्रभाव होता है.

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