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भटकते सुर-ताल की होगी पड़ताल
भागलपुर: विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को वर्ष 2015-16 में एसएम कॉलेज ने आवेदन भेज कर एक प्रोजेक्ट पर काम करने की इच्छा व्यक्त की थी. विषय था फिल्मी संगीत में शास्त्रीय रागों के समावेश का विश्लेषणात्मक अध्ययन. आयोग के इस्टर्न रीजनल ऑफिस ने इस पर रिसर्च करने के लिए 2.40 लाख रुपये कॉलेज को आवंटित कर […]
भागलपुर: विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को वर्ष 2015-16 में एसएम कॉलेज ने आवेदन भेज कर एक प्रोजेक्ट पर काम करने की इच्छा व्यक्त की थी. विषय था फिल्मी संगीत में शास्त्रीय रागों के समावेश का विश्लेषणात्मक अध्ययन. आयोग के इस्टर्न रीजनल ऑफिस ने इस पर रिसर्च करने के लिए 2.40 लाख रुपये कॉलेज को आवंटित कर दिया. इसके आगे की प्रक्रिया शुरू कर दी गयी है. कॉलेज के संगीत विभाग के अध्यक्ष डॉ सुनील कुमार तिवारी द्वारा अगले माह से रिसर्च शुरू कर दिया जायेगा.
रिसर्च का यह है उद्देश्य :पहले के फिल्मों में जो भी गीत गाये जाते थे, वे किसी न किसी शास्त्रीय राग पर आधारित होते थे. उन गीतों में गायन, वादन और नृत्य का सटिक अनुपात होता था. बैजू बावरा फिल्म में आज गावत मन मेरो झूम के…गीत राग देसी पर उस्ताद आमीर खां ने गाये थे. ऐसे अनगिनत गीत आज नहीं बन रहे हैं. तब के गीतों में संगीत और साहित्य की श्रेष्ठता भी झलकती थी. ऐसा नहीं है कि आज के गीत बगैर किसी राग को टच किये गाये जाते हैं. लेकिन विडंबना है कि शास्त्रीय संगीत को उस हद तक सामने नहीं रखा जा रहा.
ऐसा था संगीत का महत्व
डॉ तिवारी कहते हैं कि फिल्म शोले में गब्बर सिंह के घोड़े की टाप की आवाज आप आज भी सुन लें, तो यह बताना मुश्किल होगा कि यह आवाज ऑरिजिनल नहीं है. इस फिल्म के निर्देशक रमेश सिप्पी साहब इस बात से काफी परेशान रहे थे कि घोड़े की टाप की आवाज कहां से लाएं. फिर उन्होंने बनारस घराने के महान तबला वादक समता प्रसाद उर्फ गोदई महाराज से संपर्क किया. गोदई महाराज ने तबले पर घोड़े की टाप की आवाज निकाली, जो यादगार बन गयी. डॉ तिवारी ने बताया कि उनके शोध का विषय ऐसा है, जो हर संगीतकार, गीतकार की प्यास बुझाने का काम करेगा. यह बतायेगा हम किस ओर भटक गये हैं, जहां संगीत की भारतीय आत्मा को संतुष्ट करने के लिए संभलने की जरूरत है.
अब गीतों में अधिक होता है शोर
एसएम कॉलेज के संगीत विभाग के अध्यक्ष डॉ तिवारी बताते हैं कि वर्ष 1945 से 1965 तक के संगीत निदेशक ख्यातिप्राप्त घरानों से होते थे. यही वजह है कि आज भी उस समय के गीत पसंद किये जाते हैं. अब इसमें पाश्चात्य संगीत आ गया है, जिसने शास्त्रीय संगीत को पीछे कर दिया है. अाज के दौर के गीतों में गाना से ज्यादा वाद्य का प्रयाेग होता है. पहले के गीतों में गिने-चुने वाद्य का प्रयाेग होता था. अब शोर ज्यादा हो गया है, बेस का अधिक प्रयोग होने लगा है. पहले के गानों में साहित्य होता था. कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे, तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे…जैसे गीत आज लिखे भी तो नहीं जा रहे. वे कहते हैं कि नौशाद का संगीतबद्ध किया हुआ मधुबन में राधिका नाचे रे…इसे राग हमीर पर मो रफी ने गाया है. आज ऐसे गीत शायद ही मिले, जिसे हम कह सकें कि यह गीत फलां राग पर आधारित है.
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