दादा मुनि और किशोर दा की यादें जिस घर से जुड़ी रहीं, मिट गया उस ऐतिहासिक ‘राजबाटी’ का नामोनिशां
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…गुजर जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते
दादा मुनि और किशोर दा की यादें जिस घर से जुड़ी रहीं, मिट गया उस ऐतिहासिक ‘राजबाटी’ का नामोनिशां भागलपुर : मैं भागलपुर शहर की ऐतिहासिक कोठी हुआ करती थी. लोग मुझे राजबाटी के नाम से पुकारा करते थे. अब मैं जिंदा नहीं हूं. ढहा दी गयी मैं. मैं सदियों से तिल-तिल मरती रही हूं. […]
भागलपुर : मैं भागलपुर शहर की ऐतिहासिक कोठी हुआ करती थी. लोग मुझे राजबाटी के नाम से पुकारा करते थे. अब मैं जिंदा नहीं हूं. ढहा दी गयी मैं. मैं सदियों से तिल-तिल मरती रही हूं. मेरा दर्द केवल यह नहीं कि मैं बेवजह मार दी गयी. मैं तो उस वक्त ही मर गयी थी, जब अपनों ने हमसे नाता तोड़ा. किसी का दिल टूटते देखा है आपने? दिल टूटने की आवाज नहीं आती, वह केवल महसूस ही किया जा सकता है. किसी ने मेरे दिल की आवाज नहीं सुनी.
…गुजर जाते हैं …
कुछ लोग मेरे फसाने पर मोहित भी हुए, लेकिन मरते हुए को कौन कितना दिन फसाना सुना कर जिंदा रख सकता है. एक बात और बता दूं. सपना देखना, उसे संजोना किसी समाज को जिंदादिल बनाये रखता है, लेकिन अफसोस कि समाज का सपना ही मर गया था. मरे हुए सपने को ढोते-लड़खड़ाते समाज में क्या मेरा जिंदा रहना संभव था?
गूूगल पर दिख जायेंग तसवीरें : फिलहाल मेरा कुछ मलवा बचा है. मैं टूट रही थी, मेरी एक-एक ईंट बिखर रही थीं. इसकी तड़प भी हो रही थी. पर उतनी नहीं, जितनी कि मेरे घर की संतान रत्ना ने मेरे टूटने-बिखरने की खबर सुनते ही जब कहा कि…धक से रह गया कलेजा. जब इस बेटी ने सिर पर हाथ रख कर कहा कि अब तो उस जगह को देख कर यह भी नहीं कह पाऊंगी कि यही है मेरे पूर्वजों की निशां, तो मेरे जिम्मे छटपटाने के सिवा कुछ नहीं रह गया था. बचा-खुचा मेरा खंडहर-सा स्वरूप भी जब जमींदोज ही हो चुका है, तो लगा कि आप सभी के बीच अपनी जिंदगी के कुछ किस्से सुना दूं. शायद लोग नयी पीढ़ी को कभी मेरे होने की चर्चा कर सके. गूगल पर सर्च करोगे, तो मेरी कुछ तसवीरें दिख जायेंगी.
मुझे थोड़ी संतुष्टि है कि इस शहर ने थोड़ी जमीन मेरे संतानों के आसरे के लिए तब दी थी, जब यह देश ब्रिटिश हुकूमत के चंगुल में था. तब शहर का भरपूर प्यार मिला करता था.
यादों में संजो कर रखा हर लम्हा : मैं उस महान पुरुष राजा शिवचंद्र बनर्जी के कर्ज को कैसे भूल सकती हूं, जिन्होंने वर्द्धमान जिले से आकर मेरा निर्माण कराया था. वे जब भागलपुर आये थे, तो उनके साथ उनके माता-पिता मोक्षदा बनर्जी और दुर्गाचरण बनर्जी भी साथ थे. शिवचंद्र की तकलीफ के उन दिनों को कैसे भूल जाऊं, जब वे अपनी पढ़ाई स्ट्रीट लाइट में पूरा करने घर से निकल जाया करते थे. उनके सुख के दिनों को भी मैंने अपनी यादों में संजो कर रखा है, जब उन्होंने ब्रिटिश शासक के पक्ष में कई मुकदमे जीते और उनके राजशाही के दिन शुरू हुए. मैं इतरा उठी थी, जब राजा शिवचंद्र की शानो-शौकत का दायरा काफी लंबा-चौड़ा हो गया था.
दादा मुनि सुन रोम-राेम नाच उठता था : शिवचंद्र की जिंदगी में खुशी के दिन-दोगुने तब होने लगे, जब मेरे अंगने में उनके बेटे सतीश चंद्र बनर्जी और चार बेटियों की किलकारियां गूंजने लगी. समय बीता, सतीश की शादी हुई. सतीश का दो बेटा शानू बाबू व शीला बाबू और दो बेटी वीणा व लूना हुई. लूना के बेटे अशोक कुमार और किशोर कुमार. वीणा को एक ही बेटा हुआ अरुण कुमार. अशोक तो मेरे अंगने में खेला-कूदा. बाद में जब मैं सुनी कि वह प्रख्यात फिल्म अभिनेता बन गया है
और लोग प्यार से उसे दादा मुनि कह कर पुकारते हैं, तो मेरा रोम-रोम नाच उठा. मैं अपनी खुशी छिपा नहीं पा रही थी. किशोर तो कभी-कभार ही आता था, लेकिन उसके गीतों को दुनिया भर में सुननेवाले फैन होने की बात सुन कर मेरी भी गरदन गर्व से तन गयी थी.
कुछ मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता : उन दिनों की यादें मैं भूल नहीं सकती, जब इस शहर के रईस और बड़े-बड़े नेता मेरे प्रांगण में बिलियर्ड्स खेलने आया करते थे. मेरे परिसर में मिलनेवाला अपनापन ही तो था कि लोग मुझे निहारना जरूर चाहते थे. अरुण कुमार के संगीत निदेशक बनने की खुशी न सिर्फ भागलपुर को हुई थी, बल्कि मैं भी फूले नहीं समा पा रही थी. परिणीता और समाज जैसी बेहतरीन फिल्म में संगीत देकर चर्चा में आया था
मेरे अंगने में पला-बढ़ा अरुण. मैं उस वक्त खूब रोयी थी, जब पता चला कि कम उम्र में ही अरुण इस दुनिया को अलविदा कह गया. अरुण की बेटी रत्ना मुखर्जी तब बहुत ही छोटी थी. उसने विपरीत परिस्थिति में पढ़ाई पूरी की और अपनी मां को संभालते हुए तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय की शिक्षक बनी.
अरुण के जाने के बाद जो मेरे दुख के दिन आये, फिर खुशियां नहीं देख पायी. शानू बाबू अलग टाइप के इनसान थे. शीला बाबू भालोमानुष थे. लेकिन उनके पोते जॉली व सुबित की पीढ़ी ने मेरी ओर प्यार से दो पल भी निहारा नहीं. उनके दिल में शायद मेरे लिए प्यार नहीं था. हो सकता है, उनकी भी कोई मजबूरी हो, क्योंकि कहा भी जाता है कि उनकी कुछ मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता.
मैं कर भी क्या सकती थी : अंतिम बार 1970 में किशोर भागलपुर आये थे एक कार्यक्रम में गीत गाने के लिए. उन्हें यहां का माहौल नहीं भाया और प्रोग्राम समाप्त होने के बाद रातों-रात मुंबई के लिए निकल गये. मैं कर भी क्या सकती थी. मेरे पास वो सब बचा कहां था, जो किशोर को एक दिन के लिए भी रोक सकती. वर्ष 2012 में दो दिसंबर को किशोर का पुत्र अमित कुमार जब भागलपुर आया और मेरे एक-एक कमरे में घूमा,
पलंग और तसवीरों को छूकर अपने पूर्वजों को याद करने लगा, तो मेरे दिल में अचानक ही एक टीस उठी. मूक रह कर उनके पिता किशोर को याद करते हुए बस इतना कह कर अमित को संतोष दिलाने का प्रयास किया था कि…बेटे…जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते. लेकिन इस शहर से एक सवाल तो पुछूंगी कि क्या यही प्यार है ?
दादा मुनि और किशोर दा की यादें जिस घर से जुड़ी रहीं, मिट गया उस ऐतिहासिक ‘राजबाटी’ का नामोनिशां
राजबाटी भागलपुर की पहचान हुआ करती थी. प्रसिद्ध अभिनेता अशोक कुमार का भी राजबाटी में जन्म हुआ था. अमित कुमार जब भागलपुर आये थे, तो राजबाटी से लौटने के बाद मुझसे मिले थे. वे दुखी थे राजबाटी की बदहाली देख कर. लेकिन दुख हो रहा है कि अब वह ऐतिहासिक भवन नहीं रहा.
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