पंकज झा, अररिया : जिले में फसल अवशेष को खेतों में जलाने देने का चलन तेजी से बढ़ रही है. बीते कुछ सालों से यह ट्रेंड रफ्तार पकड़ता जा रहा है. खास कर मक्का उत्पादन के प्रति किसानों के बढ़ते रुझान के बाद अक्सर मकई के भुट्टे तोड़ लिये जाने के बाद पौधों के शेष अवशेष को किसान खेतों में ही जलाने लगे हैं.
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अगर खेतों में जलाते रहे फसल का अवशेष धरती हो जायेगी बंजर, धुएं से घुटेगा दम
पंकज झा, अररिया : जिले में फसल अवशेष को खेतों में जलाने देने का चलन तेजी से बढ़ रही है. बीते कुछ सालों से यह ट्रेंड रफ्तार पकड़ता जा रहा है. खास कर मक्का उत्पादन के प्रति किसानों के बढ़ते रुझान के बाद अक्सर मकई के भुट्टे तोड़ लिये जाने के बाद पौधों के शेष […]
गौरतलब है कि फसल अवशेष को खेतों में जलाया जाना ना सिर्फ खेतों की सेहत के लिए नुकसानदेह है. बल्कि इससे हमारे पर्यावरण को भी गंभीर क्षति पहुंचाती है. इसके बावजूद जानकारी के अभाव व अज्ञानतावश किसान इस कुप्रथा को तेजी से अपना रहे हैं. जो बेहद चिंतनीय है. नि:संदेह जिले के किसानों को इसे लेकर जागरूक करने की जरूरत है. साथ ही इस पर प्रभावी नियंत्रण के लिए कृषि विभाग द्वारा सख्त कदम उठाया जाना जरूरी हो गया है.
सीमित हो रही है फसल अवशेष की उपयोगिता: फसल कटाई के बाद फसल का बड़ा हिस्सा अवशेष के रूप में शेष रह जाता है. ऐसा नहीं है कि बचा हुआ सारा अवशेष किसानों के लिए पूरी तरह अनुपयोगी होते हैं. या फिर इसके उपयोग की जानकारी किसानों को नहीं है. फसल अवशेष का इस्तेमाल किसान शुरू से ही पशुचारा, कच्चे घरों के निर्माण, जलावन सहित अन्य उपयोग में लाते रहे हैं. लेकिन अब गांव-घरों की स्थिति तेजी से बदल रही है.
लिहाजा खेती के तौर-तरीकों में भी बदलाव दिखने लगा है. दरअसल अब गांव घरों में भी पक्के घरों की संख्या बढ़ती जा रही है. पशुपालन के प्रति किसानों को मोह भंग होने लगा है. तो लकड़ी के चुल्हों की जगह खाना बनाने के लिए गैस सिलिंडर का उपयोग तेजी से होने लगा है. इस कारण फसल अवशेष की उपयोगिता किसानों के लिए सीमित होने लगी है. इन कारण फसल अवशेष को खेतों में जला दिये जाने का चलन तेजी से बढ़ रहा है.
फसल अवशेष खेतों में जलाना वातावरण के लिए हानिकारक : खेतों में फसल अवशेष जलाने का हमारे वातावरण पर नाकारात्मक प्रभाव पड़ता है. अवशेष जलाने से हाइड्रोकार्बन, कार्बन डाय आक्साइड, डायऑक्सीन सहित अन्य जहरीली गैस का उर्त्सजन बड़े पैमाने पर होता है.
इन हानिकारक गैस का प्रभाव बड़े इलाके में लंबे समय तक रहता है. इससे त्वचा, सास से संबंधित बीमारी पैदा होती है. जीवों के प्रजनन क्षमता व हार्मोन का स्तर प्रभावित होता है. साथ ही रोग प्रतिरोधक क्षमता का ह्रास होता है. इतना ही नहीं इन जहरीली गैस के संपर्क में आकर बड़ी संख्या में लोग कैंसर जैसे गंभीर रोग का शिकार हो रहे हैं. यह गैस ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन कर ग्लोबली मौसम परिवर्तन का कारण बनता है.
खेतों की उर्वरा शक्ति होती है प्रभावित: फसल अवशेष खेतों में जलाने से मृदा की सेहत प्रभावित होती है. इससे उत्पादन पर असर पड़ता है. विशेषज्ञों के मुताबिक अवशेष खेतों में जलाने से मिट्टी का तापमान में वृद्धि होती है. तापमान बढ़ने से खेतों में मौजूद महत्वपूर्ण जैविक पदार्थ नष्ट हो जाते हैं. साथ ही खेतों की उर्वरा शक्ति को बरकरार रखने के लिए जिम्मेदार जीवाणु, खनिज सुक्ष्मजीव का स्तर अत्यधिक तापमान के कारण नष्ट हो जाता है. इससे खेतों की उर्वरा शक्ति प्रभावित होती है.
खेतों की उर्वरता व पर्यावरण संरक्षण के लिए करें उपाय
कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो फसल अवशेष को पुन: खेतों में जोत कर मृदा स्वास्थ्य को बढ़ाया जा सकता है. अवशेष को एकत्रित कर ईंधन, कंपोस्ट, पशु आहार, मशरूम उत्पादन सहित अन्य उपयोग में लाया जा सकता है. फसल अवशेष से जैविक ईंधन तैयार किया जा सकता है. अवशेषों को सुक्ष्म जीवाणुओं की मदद से सड़ाना बेहद आसान है. इसे कंपोस्ट तैयार कर मृदा की भौतिक संरचना व उर्वरता दोनों बढ़ाया जा सकता है.
अवशेषों का लाभकारी इस्तेमाल जरूरी
फसल अवशेष को खेतों में जलाने की प्रवृति से किसानों को बचना चाहिए. पर्यावरण, मानव स्वास्थ्य व मृदा की सेहत पर इससे गहरा नुकसान पहुंचता है. अवशेष को जलाने की जगह उसे खेतों में डिकंपोस्ट कर मृदा स्वास्थ्य को बेहतर बनाया जा सकता है. साथ ही पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दीर्घकालिक प्रभाव से भी बचा जा ंसकता है. अवशेष को खेतों में जोत कर महज छोड़ देने से यह खूद ब खूद डिकंपोस्ट हो सकता है.
अनिल कुमार, कृषि वैज्ञानिक
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