-हरिवंश-
विश्लेषण
मैकू राम की जांच ने उजागर कर दिया है कि 1640 आरक्षी निरीक्षकों की नियुक्ति में भारी धांधली हुई है. पहला तथ्य तो यह है कि मैकू राम ने भी कुछ सफल उम्मीदवारों को अयोग्य पाया है. उन्होंने डीआइजी डीएन गौतम के कार्य को सही प्रमाणित किया है. श्री राम के अनुसार पुलिस प्रशिक्षण केंद्र (पीटीसी) सर्विस बुक में दोबारा मापी का नियम है. हालांकि 10 सितंबर को जब पुलिस के आला अफसर पटना में मुख्यमंत्री लालू प्रसाद को यह बता रहे थे कि पुलिस मैनुअल या आचार संहिता में कहीं दोबारा जांच का प्रावधान नहीं है, तो वे सफेद झूठ बोल रहे थे. मामले को रफा-दफा करने की नीयत से वे ऐसा कर रहे थे. इस मौकू राम ने यह कह कर प्रमाणित कर दिया है कि पुलिस प्रशिक्षण केंद्र में डीआइजी गौतम ने जो दोबारा जांच करायी, वह पीटीसी सर्विस बुक के तहत दिये गये नियम के अनुकूल है.
बिहार के समाज में जब सच कहने से राजनेता-अफसर और प्रभावी लोग मुंह चुरा रहे हों, तब डीआइजी गौतम ने सच कहने और उस पर टिके रहने का अद्भुत साहस दिखाया है. पर हर साहस और सच की कीमत होती है. यह कीमत तो श्री गौतम अपनी निजी जिंदगी, कैरियर और बच्चों की शिक्षा जैसे निहायत निजी मामलों में चुका भी रहे हैं. रोहतास के डीआइजी पद से उनका तबादला हुआ, तो वह हजारीबाग पुलिस प्रशिक्षण केंद्र भेजे गये. वहां पूर्व निदेशक द्वारा आवास खाली नहीं किया गया था, तो उन्हें सपरिवार ‘मेस‘ में रहना पड़ रहा था.
रोहतास में डीआइजी के रूप में ताकतवर गांजा तस्करों (जो राजनीतिज्ञ हैं), अपराधी राजनीतिज्ञों (जिनमें सांसद-विधायक हैं) और भ्रष्ट पुलिस अफसरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के कारण श्री गौतम को वहां से जाना पड़ा. हालांकि वहां की आम जनता इस स्थानांतरण के खिलाफ सड़क पर उतरी. पुलिस प्रशिक्षण केंद्र, हजारीबाग में श्री गौतम को आये महीने-दो महीने भी नहीं हुए कि उन्हें फिर जाना पड़ा. क्यों? क्योंकि पुलिस प्रशिक्षण केंद्र हजारीबाग के सर्विस बुक में दिये गये नियम के अनुसार उन्होंने नये आरक्षी निरीक्षकों की जांच करायी. इस प्रकरण के एकमात्र जांचकर्ता आइजी मैकू राम ने स्पष्ट कर दिया कि श्री गौतम ने यह कार्य नियमानुसार किया, तो क्या नियम-कानन के अनुसार चलने के कारण श्री गौतम का स्थानांतरित किये गये है?
क्यों नियम-कानून के अनुसार चलनेवाले एक वरिष्ठ अफसर का तबादला एक-डेढ़ माह में होता है, उसके बच्चों की शिक्षा प्रभावित होती है. परिवार को स्थानांतरण का संकट बार-बार झेलना पड़ता है? इसका जवाब क्या पटना के वे लोग देंगे, जो पुलिस मैनुअल की दुहाई देकर यह कहते नहीं थक रहे थे कि दोबारा जांच का प्रावधान नहीं है? अगर पटना के आला लोग यह नहीं जानते कि प्रशिक्षण केंद्र का मैनुअल (सर्विस बुक) क्या कहता है, तो क्या इसकी कीमत श्री गौतम को चुकानी पड़ेगी? स्पष्ट है कि जो लोग अपने प्रशिक्षण केंद्र का मैनुअल तक नहीं जानते, वे राज्य का पुलिस महकमा चला रहे हैं.
दंड, किसे मिलना चाहिए? पर दंड किसे मिल रहा है? जो नियम-कानून जानता है और उस पर चलने का साहस करता है. पर यह साहस श्री गौतम में नया नहीं है, वह जब उत्तर बिहार के एक जिले में प्रशिक्षु आइपीएस थे, तब एक उपचुनाव में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री को बूथ में जाने से रोक दिया था. विनम्रता से कहा कि हम आपको अंदर जाने पर गिरफ्तार कर लेंगे. वह मंत्री लौट गये. फिलहाल राज्यपाल हैं, पर फख्र के साथ कहते घूमते हैं कि हमारे राज्य में ऐसा अफसर है, छपरा में वह एसपी थे, तो एक उपचुनाव हो रहा था, तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के 3-4 मंत्रियों को उन्होंने बूथ पर जाने और गड़बड़ करने के आरोप में चुनाव के दिन गिरफ्तार कर लिया. कांग्रेसी खूब बिगड़े, स्थानांतरित भी किया. पर छपरा में उनके स्थानांतरण के खिलाफ जनांदोलन हुआ. गांवों से लोग इस विरोध में आये. यह उल्लेख अब गैर जरूरी लगता है, पर कहना चाहिए. तब श्री गौतम के स्थानांतरण के खिलाफ तत्कालीन विपक्ष (आज के सत्तारूढ़) खूब चीखा-चिल्लाया. इसका मकसद था कि जो जनता, गौतम के पक्ष में खड़ी है, उसकी भावना के अनुसार काम करो, ताकि वोट मिलेगें. सत्ता में तब जो कांग्रेस ने किया, आज राजद सरकार कर रही है.
और कांग्रेस ने बार-बार किया. श्री गौतम मुंगेर के एसपी थे. वहां कई गंभीर मामले पकड़े, जिसमें पुलिस के आला अफसर फंसे थे. एक अति संपन्न व्यक्ति के यहां एक नौकर की हत्या की गयी थी, जिसे दबा दिया गया था. सारे अपराधी पकड़े गये, तो पटना पर उनका दबाव पड़ा और गौतम स्थानांतरित किये गये.
इसके पहले भी उनके साथ यही सलूक हुआ. डॉ जगन्नाथ मिश्र राज्य के मुख्यमंत्री थे. श्री गौतम सासाराम के एसपी थे. उन दिनों कैमूर घाटी, मोहन बिंद के आतंक से गूंजती थी. उसे पकड़ने या मार डालने के लिए श्री गौतम को वहीं भेजा गया. उन दिनों सासाराम में सबसे ताकतवर नेता थे, विधान परिषद के सदस्य गिरीश मिश्र. 20-25 वर्षों में सासाराम के सर्किट हाउस को ही अपना घर बना लिया था. वह समानांतर सत्ता के स्रोत थे. अपराधियों पर उनका वरदहस्त था. पूरे जिले में जो प्रमुख अपराधी थे, उनमें सवर्णों का बाहुल्य था. श्री गौतम ने तब अपने बड़े अफसरों को बताया कि डकैत मोहन बिंद से बड़े डकैत थे ये राजनेता हैं. पहले इन्हें जेल की सीखचों में डालना होगा, तब मोहन बिंद को. एमएलसी गिरीश मिश्र की गिरफ्तारी का वारंट जारी हुआ. वह पटना भागे व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के आवास में जा घुसे. वहां तक सासाराम पुलिस ने उनका पीछा किया. गौतम का तबादला कर दिया गया. तब के विपक्षी दल (आज के सत्तारूढ़) इस प्रकरण पर खूब उछले और कांग्रेसी सरकार को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया.
कांग्रेस ने अनगिनत बार श्री गौतम का तबादला किया. उस पर कांग्रेसी सरकार के मुखिया सवर्ण थे. आज कहीं-कहीं यह साबित करने की कोशिश हो रही है कि नये आरक्षी निरीक्षकों की दोबारा जांच के पीछे कोई जातीय आग्रह है. यह बड़ा खतरनाक खेल है. धर्म की तरह जाति का उन्माद भी समाज को बांट देगा. वह मुल्क-राज्य साबूत नहीं रहेगा. किसी ईमानदार अफसर को आप कुछ कह नहीं सकते, तो उस पर कुछ भी आरोप लगा दीजिए, यह भ्रष्ट राजनेताओं-अफसरों की तिकड़म का परिणाम है. पर लोग समझने लगे हैं कि धर्म के आधार पर समाज को बांटनेवालों की तरह जाति के आधार पर समाज बांटनेवाले भी खतरनाक हैं. अपराध बढ़ने और समाज के नियम-कानून के तहत काम न होने से हर वर्ग, जाति, धर्म के लोग समान रूप से पीड़ित हो रहे हैं, इसलिए लोक आक्रोश सुलग रहा है. यह अधिक सुलगा तो बिहार सोमालिया या रूवांडा बनने की राह पर होगा.
मैकू राम ने अपनी जांच रपट में भी कुछ उम्मीदवारों को अयोग्य पाया है. संख्या के विवाद में न पड़ें, तो यह स्पष्ट हो गया कि श्री गौतम ने जिन लोगों की अयोग्यता पर कानूनन प्रश्नचिह्न खड़ा किया था, वह सही है. अयोग्य लोगों की संख्या मैकू राम के अनुसार कम है. यह तो कम होना ही था. पर श्री राम ने भी कुछ लोगों को अयोग्य पाया, यही सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है.
मैकू राम ने ही साबित कर दिया कि श्री गौतम द्वारा कराये गये दोबारा माप नियमानुसार सही है और इस बहाली में अयोग्य लोग भी आ गये हैं. इसके बाद भी गौतम का तबादला क्यों?
नियम क्या है?
पुलिस मैनुअल के अनुसार सिपाही से लेकर आला अफसरों की नियुक्ति के पूर्व दो चीजें अपरिहार्य हैं. पहला, मेडिकल जांच, दूसरा पुलिस सत्यापन (पुलिस वेरिफिकेशन). पिछले कुछ वर्षों के दौरान जितनी भी नियुक्तियां पुलिस विभाग में हुई हैं, उनमें से शायद ही किसी मेडिकल जांच या पुलिस सत्यापन कराया गया होगा. इन 1640 आरक्षी निरीक्षकों के मामले में भी न मेडिकल जांच हुई है और न पुलिस सत्यापन. इन दोनों कसौटियों पर इन सभी 1640 लोगों की ज्वायनिंग गलत है. इस कसौटी पर पुलिस मैनुअल ही इन सबकी नियुक्ति गलत मानता है. पर इस सच को कौन कहेगा?
दूसरा, ये दोनों जांच न कराने के गंभीर खतरे हैं. बाराचट्टी के निर्दोष लोगों की हत्या करनेवाले थानेदार दूधनाथ राम को सब जानते हैं. जब निर्दोष लोगों की हत्या हुई, तो पुलिस ने दूधनाथ राम का पुलिस सत्यापन किया, जो नौकरी में आने के पहले होना चाहिए था. पता चला कि दूधनाथ राम पुलिस महकमे में आने के पहले से ही अपराधी रहे हैं. हाल ही में गिरिडीह में एक सिपाही ने एक हवलदार को मार डाला. नौकरी में आने से पहले उसका भी पुलिस सत्यापन नहीं किया गया था. इस हत्या के बाद पुलिस ने उसका अतीत पता करना शुरू किया, तो मालूम हुआ कि वह भी अपराधी है. ऐसे अपराधियों की तादाद पुलिस में काफी है. फर्ज करिये कि जब अपराधी, पुलिस महकमे में आकर अपराध करने का कानूनी अधिकार और हथियार पा पाएं, तो वे क्या करेंगे?
दूसरा, पुलिस बल, राजसत्ता का महत्वपूर्ण अंग है. उसमें बगैर पुलिस सत्यापन के भरती होती है, तो संभव है उसमें देश विरोधी ताकतें घुस जायें और राजसत्ता को अंदर से खोखला कर दें, पर इस पर सोचने के लिए फुरसत किसे है?