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जानें शीर्ष पर साइना की कामयाबी की कहानी

शीर्ष पर पहुंचनेवाला इंसान सुर्खियों में आ ही जाता है. हर ओर उसकी कामयाबी के चरचे होते हैं. लेकिन, इन सुर्खियों से परे, उसके यहां तक पहुंचने की एक कहानी भी होती है, जिसमें कई लोग अहम भूमिका में होते हैं. दुनिया की नंबर वन रैंकिंग हासिल करनेवाली पहली भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल […]

शीर्ष पर पहुंचनेवाला इंसान सुर्खियों में आ ही जाता है. हर ओर उसकी कामयाबी के चरचे होते हैं. लेकिन, इन सुर्खियों से परे, उसके यहां तक पहुंचने की एक कहानी भी होती है, जिसमें कई लोग अहम भूमिका में होते हैं. दुनिया की नंबर वन रैंकिंग हासिल करनेवाली पहली भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल आज सुर्खियों में छायी हुई हैं.

वे लाखों युवाओं एवं खेल प्रेमियों की ‘रोल मॉडल’ हैं. उनके इस मुकाम तक पहुंचने की कहानी में भी कई अहम किरदार शामिल हैं. ये वे लोग हैं, जो साइना के शीर्ष पर पहुंचने के सफर में हमसफर बने हैं. साइना नेहवाल की शिखर तक की यात्र और उसमें अहम भूमिका निभानेवाले लोगों की कहानी बता रहे हैं वरिष्ठ खेल पत्रकार अभिषेक दुबे.

दिल्ली के सीरीफोर्ट स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में इंडियन ओपन सुपर सीरीज बैडमिंटन टूर्नामेंट चल रहा था. टूर्नामेंट के निर्णायक दौर में साइना नेहवाल को दुनिया की नंबर एक महिला बैडमिंटन खिलाड़ी बनने की सूचना दी जाती है. आधुनिक भारत के खेल इतिहास में निर्विवाद सबसे कामयाब खिलाड़ियों में से एक साइना प्रेस के सामने मुखातिब होती हैं- ‘मेरी कामयाबी का बड़ा श्रेय कोच विमल कुमार को जाता है. उन्होंने मुङो ट्रेनिंग देने के लिए काफी मेहनत की है. इस पूरी प्रक्रिया में उन्होंने अपना काफी वजन भी खोया है. प्रकाश सर (प्रकाश पादुकोण) के इनपुट्स भी अहम रहे हैं. जहां तक मेरे माता-पिता का सवाल है, वो बहुत ही साधारण लोग हैं. मैं आज नंबर एक खिलाड़ी हूं, लेकिन उन्होंने आज भी मुझसे बहुत ही सरल सवाल किये, जैसे बेटी आपने आज ठीक से खाया. शायद उन्हें भरोसा है कि मैं और आगे जाऊंगी..’

खेल से लेकर जिंदगी के मैदान तक, हुनर बहुत लोगों में होता है, आंशिक कामयाबी कइयों को मिलती है, लेकिन लिविंग लीजेंड वे ही बनते हैं, जो कामयाबी के सफर में हमेशा अपने पांव को जमीन पर रखते हैं.

खेल समेत जिंदगी की विधा असल में एक टीम गेम है और माता-पिता से लेकर कोच, मेंटर तक इस कामयाब सफर का हिस्सा होते हैं. साइना नेहवाल का कैरियर और उनकी जिंदगी इसके गवाह हैं. साइना भले ही आज कामयाबी के शिखर पर बैठी हों, लेकिन बीते साल गरमी के मौसम में उनका कैरियर निर्णायक मोड़ पर था. बैडमिंटन क्वीन ने सुपर सीरीज से लेकर ओलिंपिक में कामयाबी पायी थी.

17 मार्च, 1990

हरियाणा के हिसार में जन्म हुआ. माता-पिता के साथ बाद में हैदराबाद चली गयीं.

2006

अंडर-19 नेशनल चैंपियन बनीं. लगातार 2 बार एशियन सेटेलाइट बैंडमिंटन टूर्नामेंट जीता.

2008

वर्ल्‍ड जूनियर बैडमिंटन चैंपियनशिप जीती.

बीजिंग ओलिंपिक्स में क्वॉर्टर फाइनल में पहुंचीं. ओलिंपिक क्वॉर्टर फाइनल में पहुंचनेवाली पहली भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी बनीं.

2009

इंडोनेशियन ओपन जीता. बैडमिंटन सुपर सीरीज जीतनेवाली पहली भारतीय बनीं.

‘मेरे माता-पिता ने मेरे लिए

बड़ी कुर्बानी दी’

लेकिन अगली लीग में जाने के लिए उन्हें अहम फैसले लेने थे. हैदराबाद में साइना ने अपना घर बदला था और अपने चहेते कोच पुलेला गोपीचंद को छोड़ विमल कुमार का दामन थामने का फैसला किया था. हम जब उनके घर पहुंचे, तो नया घर पूरी तरह से उथल-पुथल के दौर में था और वह हमें इंटरव्यू देने के लिए सोसाइटी के स्वीमिंग पूल के सामने ले जाती हैं. जैसे ही हमारी टीम को लगा कि शिफ्टिंग को लेकर भागमभाग के बीच हमने इस चैंपियन खिलाड़ी को बेवजह परेशान किया, वह विनम्रता से हमसे माफी मांगती हैं और सवाल-जवाब की प्रक्रिया शुरू कर देती हंै, ‘मेरे पिता, जिनसे आप मिले, वे एक वैज्ञानिक हैं. उनका सपना था कि मैं बड़ी होकर डॉक्टर बनूं.

ये उनकी जिद नहीं थी, बल्कि एक सोच थी. बाद में उनकी खेल में रुचि जागी, वे बैडमिंटन खेलते थे और उन्होंने मुङो कभी खेलने से नहीं रोका. उल्टा मुङो खूब प्रोत्साहित किया. आज वे मजाक में मुझसे कहते हैं कि मैं तो आपको हमेशा ओलिंपिक खिलाड़ी बनते देखना चाहता था, डॉक्टर तो कतई नहीं.’

माता-पिता असल में उस नींव का काम करते हैं, जिस पर आगे चल कर सपूत कामयाबी की इमारत खड़ी करते हैं. इसका अंदाजा साइना के नये घर में बिखरी तसवीरों से लगा और एहसास हुआ उनके जवाबों से. ‘मैं जब आठवीं क्लास में थी तभी मैं पढ़ती थी कि पीटी उषा और मिल्खा सिंह ने सेकेंड के भी एक छोटे हिस्से से ओलिंपिक मेडल खो दिया. मैं सोचती और अपनी मां से पूछती कि आखिर कैसे कोई सेकेंड के एक हिस्से से ओलिंपिक मेडल से चूक सकता है! मेरी मां का सीधा जवाब होता कि बेटी आपको ओलिंपिक मेडल जीतना है. मुङो हंसी आ जाती और मैं विषय को बदल देती.’

साइना 2008 बीजिंग ओलिंपिक्स में तो मेडल नहीं जीत सकीं, लेकिन 2012 लंदन ओलिंपिक्स में उनका सपना पूरा हो गया. लंदन एक्सेल अरीना के बाहर मेडल जीतने के बाद शायद इसलिए साइना ने हमारी टीम से कहा था, ‘ये मेरी जिंदगी का सबसे खुशीवाला दिन है. कामयाबी मुङो इससे पहले भी मिली, लेकिन इस कामयाबी का कोई जोड़ नहीं.’

अपने माता-पिता के योगदान पर चर्चा करते हुए साइना नेहवाल ने आगे कहा,‘मेरे माता-पिता ने मेरे लिए बड़ी कुर्बानी दी. पापा हर दिन की प्रैक्टिस के लिए मां को 400-500 रुपये देते, जो उनके लिए आसान नहीं था. प्रैक्टिस के लिए सुबह पापा और शाम में मां हर दिन 90 मिनट मेरे साथ सफर करतीं. वो अपने खर्च में कटौती कर मुङो हवाई जहाज से मैच के लिए भेजते, जिससे मुङो मैच के पहले आराम मिल सके. उन्होंने दोस्तों से कर्ज लिया, बैंक से पैसे लिये. पापा सिर्फ कहते, ‘आपने पढ़ाई की कुर्बानी देकर खेल का दामन थामा है, आपको कामयाब होना है.’ मुङो लगता कि क्या मैं माता-पिता की कुर्बानी को चुका सकूंगी. लगता है कि इस वजह से मैंने जो दबाव लिया, वह कामयाब रहा.’

कहते हैं कि लिविंग लीजेंड की जिंदगी की स्क्रिप्ट इस तरह लिखी जाती है कि हर मोड़ पर उन्हें वो लोग मिलते हैं, जो मंजिल तक पहुंचाने में अहम किरदार साबित होते हैं. साइना की जिंदगी अपवाद नहीं. साइना के पिता हरियाणा से थे, एक ऐसे राज्य से जहां के खिलाड़ियों ने सबसे अधिक कामयाबी का डंका बजाया है, लेकिन जो महिलाओं के खिलाफ माहौल के लिए सुर्खियों में रहा है. साइना कहती हैं,‘मेरे पिता का प्रमोशन हआ और वो हरियाणा के हिसार से हैदराबाद आ गये. शुरू में मैं कराटे करती, लेकिन पापा को लगा कि 8 साल की बच्ची के लिए ये एक कठिन खेल था. हैदराबाद गोपीचंद और एस एम आरिफ सर जैसे महारथी बैडमिंटन दिग्गजों का गढ़ था. इसलिए उन्होंने मुङो बैडमिंटन के लिए कैंप में डाला.’

नियति साइना को न सिर्फ माकूल, बल्कि सही वक्त पर सही जगह पर भी ले आयी. साइना ने कहा, ‘आरिफ सर और नानी प्रसाद सर ने हमारे खेल के बेसिक्स को मजबूत किया. उसके बाद मुङो गोपीचंद सर की मदद मिली, जो खुद अव्वल दर्जे के खिलाड़ी रहे और जिन्हें अंदाजा था कि खाने से लेकर ट्रेनिंग तक अंतराष्ट्रीय खिलाड़ी बनने के लिए क्या करना पड़ता है. मुङो बहुत ही कम उम्र में ओलिंपिक्स में भाग लेने का मौका मिला, जिससे मेरे खेल और नजरिये में निखार आया.’

जिंदगी में खेल मैदान के अंदर और खेल मैदान के बाहर साइना कितनी मंझी हुई हैं, इसका अंदाजा अगले जवाब से साफ हो गया, ‘लेकिन वो अगली लीग में जाने के लिए खुद को तैयार कर रही हैं.’ इसका इशारा तो उन्होंने जवाब में कर दिया था, लेकिन इसकी समझ हमें अब आयी. साइना ने कहा,‘जीतने पर खूब वाहवाही मिलती है और हारने पर लोग गुस्सा होते हैं. लोगों को समझना चाहिए कि हम भी हमेशा जीतने के लिए खेलना चाहते हैं, लेकिन ये फिजिकल स्पोर्ट्स है और मशीन की तरह शरीर कभी-कभी थक और टूट जाता है, उसे वापस पटरी में आने में वक्त लगता है. लेकिन कैरियर के अब तक के सफर ने मुङो सिखाया है कि मेहनत मेरे हाथ में है, तैयारी मेरे हाथ में है और अगर प्रक्रिया सही रही, तो नतीजे खुद-ब-खुद मिलेंगे. मेरी पूरी नजर बेहतर खेल और जीत पर है. रैंकिंग अपना ध्यान खुद रखेगी.’

साइना तभी फिटनेस से संघर्ष कर वापस लौटी थीं, पी वी सिधू समेत बाकी खिलाड़ियों से उन्हें चुनौती मिल रही थी और दिग्गजों की मानें, तो वह कैरियर के ऐसे दोराहे पर खड़ी थीं जहां से दो रास्ते जाते थे, एक गुमनामी की ओर और दूसरा अगली लीग में जाने का.. भारत के सबसे कामयाब मौजूदा खिलाड़ी ने लगभग 8 महीने पहले अपना घर बदला और कोच. आखिरकार नियति उन्हें विश्व बैडमिंटन के शिखर पर ले आयी, जिसकी वह असली हकदार हैं.

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