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फुटबॉल: मुश्किलों से सीखा लड़ना, समाज की रूढ़ियों को तोड़ आगे बढ़ी बिहार की बेटियां

बिहार की राजधानीपटना में हाशिये पर रहने वाले दलित समाज की लड़कियों को फुटबॉल से जोड़ने की शुरुआत 2013 में हुई थी. इस मुहीम की शुरुआत करने का श्रेय प्रतिमा कुमारी को जाता है. जिनकी कोशिशों से अब तक दो हजार से ज्यादा लड़कियां फुटबॉल सीख चुकी हैं. प्रतिमा बताती हैं कि 2013 में हम […]

बिहार की राजधानीपटना में हाशिये पर रहने वाले दलित समाज की लड़कियों को फुटबॉल से जोड़ने की शुरुआत 2013 में हुई थी. इस मुहीम की शुरुआत करने का श्रेय प्रतिमा कुमारी को जाता है. जिनकी कोशिशों से अब तक दो हजार से ज्यादा लड़कियां फुटबॉल सीख चुकी हैं. प्रतिमा बताती हैं कि 2013 में हम लोगों ने मेरा शरीर मेरा अधिकार नाम से अभियान शुरू किया था. इसमें करीब 125 दलित और मुस्लिम समाज की लड़कियां जुड़ी. हम उनसे स्वास्थ्य और जेंडर जैसे मुद्दों पर बात करते थे.

कुछ दिनों बाद हमें फुटबॉल टीम बनाने का आइडिया आया. टीम बनने के बाद सबसे मुश्किल था लड़कियों को मैदान तक लेकर आना क्योंकि अभिभावक इस बात के लिए तैयार नहीं थे कि उनकी बेटी घर से दूर जाकर फुटबॉल खेले. लड़कियां जब घर निकलती तो लोग मजाक उड़ाते कि हाफ पैंट पहन कर खेलने जा रही है. गौरव ग्रामीण महिला विकास मंच के बैनर तले हमारी टीम की लड़कियां खेलती हैं.

प्रतिमा कहती हैं कि सबसे पहले घरों में कई तरह के सवाल उठते. जैसे कि क्यों लड़कियां खेले? दलित लड़कियां जिनके घर में खाने के लाले हैं वे खेल कर क्या कर लेंगी? बेटी को हाफ पैंट पहन कर क्यों खेलने दे? हमारे सामने कई चुनौतियां आयीं लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी. मैं खुद दलित समाज से आती हूं इसलिए मैं इन बच्चियों की परेशानी को करीब से महसूस करती थी. अभिभावकों को हमने इस शर्त पर मनाया कि लड़कियां घर का काम, खेत का काम, पशुओं को चराने के बाद ही आयेंगी. आज भी कई लड़कियां बकरी चराने के बाद फुटबॉल खेलने आती हैं. अगर वे ऐसा नहीं करे तो घरवाले उन्हें खेलने नहीं देंगे. अभी 55 लड़कियां प्रोफेशनल फुटबॉलर के रूप में खेल रही हैं.

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