शिव-शक्ति्
नमामीशमीशान निर्वाणरूपम।|विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्।||
शिव के विराट स्वरूप की वंदना
नमस्ते अस्तु भगवन् विश्वमूर्ते जगत्कारण लोकनाथ शम्भो |त्वमेव एको भुवनैकनाथो न जानामि त्वां विनाऽन्यदपि ||
भावार्थ:
हे विश्वमूर्ति, लोकनाथ, जगत् के कारण शम्भो! मैं किसी और को नहीं जानता – आप ही मेरे सर्वस्व हैं.
अर्धनारीश्वरायै च नमः सौन्दर्यरूपिण्यै ||
सुलभ जलार्पण के लिए कांवरिया रूट लाइन
कहां से कितने किलोमीटर
- सुल्तानगंज से असरगंज -11
- कुमरसार से जिलेबिया – 11
- कांवरिया से इनारावरण -08
- कलकतिया से दर्शनिया – 06
- असरगंज से मनिया मोड़ – 12
- जिलेबिया से सूईया – 12
- ईनारावरण से गोड़ियारी -08
- दर्शनिया से बाबाधाम- 01
- मनिया मोड़ से कुमारसार – 6
- सूईया से कांवरिया – 13
- गोड़ियारी से कलकतिया – 08
- कुल- 96 (नये कच्चे कांवरिया पथ के निर्माण से दूरी 09 किमी कम हो गयी है. )
त्रिकालदर्शी शिव भूत, भविष्य एवं वर्तमान ज्ञान के माने जाते हैं बोधक
भोलेनाथ के स्मरण मात्र
से होती है मनोकामना पूर्
दवाधिदेव महादेव को त्रिकालदर्शी शिव की संज्ञा दी है, जो तीनों काल के द्योतक हैं. भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल पर शिव का ही नियंत्रण हुआ करता है, जिसे कतई नकारा नहीं जा सकता है. आस्था को सैलाब शिवोपासना में दर्शित होता है, उसी से इसकी महत्ता को समझा जा सकता है. द्वादश ज्योतिर्लिंगों में पवित्र सावन में मास में भक्तों की लंबी कतारें लग जाती हैं एवं पूजा अर्चना के लिए कतिपय साधना को आत्मसात कर जलाभिषेक करते हैं एवं मनोवांछित फल को पाने में अपने को धनधान्य समझते हैं. आखिर इस आस्था का राज कोई भी साधारण मानव समझ नहीं सकता है.पौराणिक ग्रंथों की मानें तो शिव एक ऐसी शक्ति है, जो सभी प्राणियों में सन्निहित है. भूत, वर्तमान एवं भविष्य ज्ञान के द्योतक देवाधिदेव महादेव हैं, जो हरेक प्राणियों को विषम संकट की स्थिति से भी त्राण दिलाते हैं.सदियों से उपासना की सरिता प्रवाहमान है और इस आस्था रूपी सरिता में लोगो डुबकी लगाते आ रहे हैं.
लोकत्रयस्थितिलयोदयकेलिकार: कार्येण यो हरिहरद्रुहिणत्वमेति | देव: स विश्वजनवांमनसातिवृत्त शक्ति: शिवं दिशतु शाश्वदनश्वरं व: ||
कहने का तात्पर्य है कि शिव जीवों के उपकार के लिए तीनों लाेकों की स्थिति पर पूर्णनियंत्रण रखते हैं. सृष्टि के सभी गुणों को सबलता शिव ही प्रदान करते हैं. साधारण पूजा से भी शिव प्रसन्न हो जाते हैं और जिस मकसद से आस्थावान लोग स्मरण करते हैं, उनकी इच्छा अवश्य पूर्ण कर डालते हैं. वाकई में शिव पालन, संहार एवं उत्पत्ति के द्योतक हैं. वैसे तो शिव का अर्थ मनीषियों ने कल्याण की संज्ञा दी है, जो चराचर जगत में सर्वग्राह्य है. इन्हें शंकर भी कहा गया है और आनंद के संवहक भी माने गये हैं. इनकी सादगी से भक्तों का मनोबल समृद्ध होता है.
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तभी तो श्वेततश्वतरोपनिषद में कहा गया है- तमीश्वरणां परमं महेश्वरं, तं देवतानां परमं च दैवतम् ||
पतिं पतीनां परमं परस्तात्, विदाम देव भुवनेश्वमीडयम् ।। वसुधा पर जन्म यानि आगमन से लेकर मोक्ष मिलने तक की याचना प्रत्येक मानवों के जीवन का मुख्य लक्ष्य हुआ करता है और इसी लक्ष्य पाने के लिए हम देवी देवताओं की पूजा अर्चना करते हैं. यहां पर श्रीमद्भागवदगीता के श्लोक का उल्लेख अनिवार्य हो जाता है-
मम योनिर्महद ब्रह्म तस्मिन गर्भंदधाम्यहम् सम्भव: सर्व भूतानां ततो भवित भारत ||
खैर, जो भी हो आदिकाल से पूजन की परंपरा ऋषियों की देन है, जो अकाट्य है एवं सर्वग्राह्य है. शिव पूजन का लोक में तेजी से प्रचलन इनकी सादगी एवं सहृदयता है. कोई भी बाह्याडंबर नहीं है. कोई कांवर लेकर पावन गंगा जल लाते हैं, तो कोई डाक कांवर लेकर चलते हैं. कोई दंडी बम के रूप में चलते हैं. सभी भक्तों की एक ही तमन्ना होती है कि अपने ईष्ट देव को कैसे प्रसीद कर एवं मनोवांछित फल पायें. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार शिवलिंग के संदर्भ में उल्लेख आया है-लीयते यस्मिन्निति लिंगम् यानि सभी प्रकार के दृश्य लय हो जायें, विलीन हो जायें वह परम कारण ही शिवलिंग है. सृष्टि को शिव ही नियंत्रित रखते हैं और संहार भी करने में रतिभर संकोच नहीं करते हैं. मार्कण्डेय पुराण के अनुसार-
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि |गुणाश्रये गुणमयि नारायणि नमोस्तु ते ||
अर्थात ब्रह्मा, विष्णु, महेश जगत में सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं, पालन करते हैं एवं विनाश करने वाली शक्ति भी रखते हैं. हे गुणत्रये सनातनी शक्ति , हे गुणाश्रये गुणमयी नारायणि देवी तुम्हें हमारा नमस्कार है. शक्ति से परिपूर्ण महादेव की महिमा को ऋषि मुनियों ने अपनी तप से कुछ हद तक उकेरा है, जिसे हम आत्मसात कर उनकी विधि विधान और क्षमता पूर्वक याचना करते आ रहे हैं. महर्षि यास्क के अनुसार -ऋषिदर्शनात् यानि मंत्रों के अर्थों का दर्शन करने वाले को ऋषि की संज्ञा दी गयी है. साथ ही देवों के संदर्भ में – कहा गया है कि- देवो दानाद् द्योतनाद् दीपनाद् वा अर्थात पदार्थों को देने वाले, प्रकाशित होने वाले अथवा प्रकाशित करने वाले को देवता कहा गया है. सर्वप्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में इंद्र, अग्नि, वरुण, मरुत, विष्णु, सूर्य, सविता, मित्र, उषस, सोम, पूषण, वात, वास्तोष्पित, अश्विन, पर्जप्य, द्यावापृथिवी, विश्वदेव, अपस, पुरुष, हिरण्यगर्भ, रुद्र, अदिति, वृहस्तपति, सरित आदि देवताओं का उल्लेख आया है. अस्तु, जो भी हो सर्वजन सुलभ देव शिव हैं, जिसकी पूजा सबसे आसान है और शीघ्र ही प्रसीद हो जाते हैं तथा दुखों से लोगों को त्राण दिलाते हैं. आस्था का प्रवाह बाबा वैद्यनाथ मंदिर में देखने को मिलता है, तभी तो अनेकानेक कष्टों को झेलते हुए आते हैं एवं भक्त बाबा वैद्यनाथ को जलाभिषेक कर मनोवांछित फल पाते हैं.
साध्य-साधन आदि का विचार तथा श्रवण, कीर्तन और मनन- इन तीन साधनों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
व्यासजी कहते हैं – सूत जी का यह वचन सुनकर वे सब महर्षि बोले- ”अब आप हमें वेदान्तसार-सर्वस्वरूप अद्भुत शिवपुराण-की कथा सुनाइये.” सूतजी ने कहा- आप सब महर्षिगण रोग-शोक से रहित कल्याणमय भगवान् शिव का स्मरण करके पुराणप्रवर शिवपुराण की, जो वेद के सार-तत्त्व से प्रकट हुआ है, कथा सुनिये. शिवपुराण में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य- इन तीनों का प्रीतिपूर्वक गान किया गया है और वेदान्त वेद्य सद्वस्तुका विशेष रूप से वर्णन है. इस वर्तमान कल्प में जब सृष्टिकर्म आरम्भ हुआ था, उन दिनों छः कुलों के महर्षि परस्पर वाद-विवाद करते हुए कहने लगे- ”अमुक वस्तु सबसे उत्कृष्ट है और अमुक नहीं है.” उनके इस विवाद ने अत्यन्त महान् रूप धारण कर लिया. तब वे सब के सब अपनी शंका के समाधान के लिये सृष्टिकर्ता अविनाशी ब्रह्माजी के पास गये और हाथ जोड़कर विनय भरी वाणी में बोले- ”प्रभो! आप संपूर्ण जगत् को धारण-पोषण करनेवाले तथा समस्त कारणों के भी कारण हैं. हम यह जानना चाहते हैं कि सम्पूर्ण तत्त्वों से परे परात्पर पुराण पुरुष कौन हैं? ब्रह्माजी ने कहा- जहां से मनसहित वाणी उन्हें न पाकर लौट आती है तथा जिनसे ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इन्द्र आदि से युक्त यह सम्पूर्ण जगत् समस्त भूतों एवं इन्द्रियों के साथ पहले प्रकट हुआ है, वे ही ये देव, महादेव सर्वज्ञ एवं सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं. ये ही सबसे उत्कृष्ट हैं. भक्ति से ही इनका साक्षात्कार होता है. दूसरे किसी उपाय से कहीं इनका दर्शन नहीं होता. रुद्र, हरि, हर तथा अन्य देवेश्वर सदा उत्तम भक्ति भाव से उनका दर्शन करना चाहते हैं. भगवान् शिव में भक्ति होने से मनुष्य संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है. देवता के कृपा प्रसाद से उनमें भक्ति होती है और भक्ति से देवता का कृपा प्रसाद प्राप्त होता है – ठीक उसी तरह, जैसे यहां अंकुर से बीज और बीज से अंकुर पैदा होता है. इसलिये तुम सब ब्रह्मर्षि भगवान् शंकर का कृपा प्रसाद प्राप्त करने के लिये भूतल पर जाकर वहां सहस्त्रों वर्षों तक चालू रहनेवाले एक विशाल यज्ञ का आयोजन करो. इन यज्ञपति भगवान् शिव की ही कृपा से वेदोक्त विद्या के सारभूत साध्य-साधन का ज्ञान होता है. शिव पद की प्राप्ति ही साध्य है. उनकी सेवा ही साधन है तथा उनके प्रसाद से जो नित्य-नैमित्तिक आदि फलों की ओर से निःस्पृह होता है, वही साधक है. वेदोक्त कर्म का अनुष्ठान करके उसके महान् फल को भगवान् शिव के चरणों में समर्पित कर देना ही परमेश्वर पद की प्राप्ति है. वही सालोक्य आदि के क्रम से प्राप्त होनेवाली मुक्ति है. उन-उन पुरुषों की भक्ति के अनुसार उन सबको उत्कृष्ट फल की प्राप्ति होती है. उस भक्ति के साधन अनेक प्रकार के हैं, जिनका साक्षात् महेश्वर ने ही प्रतिपादन किया है. उनमें से सारभूत साधन को संक्षिप्त करके मैं बता रहा हूं. कान से भगवान् के नाम-गुण और लीलाओं का श्रवण, वाणी द्वारा उनका कीर्तन तथा मन के द्वारा उनका मनन- इन तीनों को महान् साधन कहा गया है. तात्पर्य यह कि महेश्वर का श्रवण, कीर्तन और मनन करना चाहिये-यह श्रुतिका वाक्य हम सबके लिये प्रमाणभूत है. इसी साधन से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि में लगे हुए आपलोग परम साध्य को प्राप्त हों. लोग प्रत्यक्ष वस्तु को आंख से देखकर उसमें प्रवृत्त होते हैं. परंतु जिस वस्तु का कहीं भी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता, उसे श्रवणेन्द्रिय द्वारा जान-सुनकर मनुष्य उसकी प्राप्ति के लिये चेष्टा करता है. अतः पहला साधन श्रवण ही है. उसके द्वारा गुरु के मुख से तत्त्व को सुनकर श्रेष्ठ बुद्धिवाला विद्वान् पुरुष अन्य साधन-कीर्तन एवं मनन की सिद्धि करे. क्रमशः मनन पर्यन्त इस साधन की अच्छी तरह साधना कर लेने पर उसके द्वारा सालोक्य आदि के क्रम से धीरे-धीरे भगवान् शिव का संयोग प्राप्त होता है. पहले सारे अंगों के रोग नष्ट हो जाते हैं. फिर सब प्रकार का लौकिक आनंद भी विलीन हो जाता है. भगवान् शंकर की पूजा, उनके नामों के जप तथा उनके गुण, रूप, विलास और नामों का युक्तिपरायण चित्त के द्वारा जो निरन्तर परिशोधन या चिन्तन होता है, उसी को मनन कहा गया है; वह महेश्वर की कृपा दृष्टि से उपलब्ध होता है. उसे समस्त श्रेष्ठ साधनों में प्रधान या प्रमुख कहा गया है. सूतजी कहते हैं-मुनीश्वरों ! इस साधन का माहात्म्य बताने के प्रसंग में मैं आप लोगों के लिए एक प्राचीन वृत्तान्त का वर्णन करूंगा, उसे ध्यान देकर आप सुनें. पहले की बात है, पराशर मुनि के पुत्र मेरे गुरु व्यासदेव जी सरस्वती नदी के सुंदर तट पर तपस्या कर रहे थे. एक दिन सूर्य तुल्य तेजस्वी विमान से यात्रा करते हुए भगवान् सनत्कुमार अकस्मात् वहां जा पहुंचे. उन्होंने मेरे गुरु को वहां देखा. वे ध्यान में मग्न थे. उससे जगने पर उन्होंने ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार जी को अपने सामने उपस्थित देखा. देखकर वे बड़े वेग से उठे और उनके चरणों में प्रणाम करके मुनि ने उन्हें अर्घ्य दिया और देवताओं के बैठने योग्य आसन भी अर्पित किया. तब प्रसन्न हुए भगवान् सनत्कुमार विनीत भाव से खड़े हुए व्यास जी से गम्भीर वाणी में बोले- ”मुने ! तुम सत्य वस्तु का चिंतन करो. वह सत्य पदार्थ भगवान् शिव ही हैं, जो तुम्हारे साक्षात्कार के विषय होंगे. भगवान् शंकर का श्रवण, कीर्तन, मनन- ये तीन महत्तर साधन कहे गये हैं. ये तीनों ही वेद सम्मत हैं. पूर्व काल में मैं दूसरे-दूसरे साधनों के सम्भ्रम में पड़ कर घूमता-घामता मन्दराचल पर जा पहुंचा और वहां तपस्या करने लगा. तदनन्तर महेश्वर शिव की आज्ञा से भगवान् नन्दिकेश्वर वहां आये. उनकी मुझ पर बड़ी दया थी. वे सबके साक्षी तथा शिवगणों के स्वामी भगवान् नन्दिकेश्वर मुझे स्नेहपूर्वक मुक्ति का उत्तम साधन बताते हुए बोले- भगवान् शंकर का श्रवण, कीर्तन और मनन- ये तीनों साधन वेद सम्मत हैं और मुक्ति के साक्षात् कारण हैं; यह बात स्वयं भगवान् शिव ने मुझसे कही है. अतः ब्रह्मन् ! तुम श्रवणादि तीनों साधनों का ही अनुष्ठान करो.” व्यासजी से बारंबार ऐसा कहकर अनुगामियों सहित ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार परम सुंदर ब्रह्मधाम को चले गये. इस प्रकार पूर्वकाल के इस उत्तम वृत्तान्त का मैंने संक्षेप से वर्णन किया है. ऋषि बोले- सूत जी ! श्रवणादि तीन साधनों को आपने मुक्ति का उपाय बताया है. किंतु जो श्रवण आदि तीनों साधनों में असमर्थ हो, वह मनुष्य किस उपाय का अवलम्बन करके मुक्त हो सकता है. किस साधनभूत कर्म के द्वारा बिना यत्न के ही मोक्ष मिल सकता है? भगवान् शिव के लिंग एवं साकार विग्रह की पूजा के रहस्य तथा महत्त्व का वर्णन सूत जी कहते हैं-शौनक ! जो श्रवण, कीर्तन और मनन-इन तीनों साधनों के अनुष्ठान में समर्थ न हो, वह भगवान शंकर के लिंग एवं मूर्ति की स्थापना करके नित्य उसकी पूजा करे तो संसार-सागर से पार हो सकता है. वंचना अथवा छल न करते हुए अपनी शक्ति के अनुसार धनराशि ले जाये और उसे शिवलिंग अथवा शिवमूर्ति की सेवा के लिये अर्पित कर दे. साथ ही निरंतर उस लिंग एवं मुर्ति की पूजा भी करे. उसके लिये भक्ति भाव से मण्डप, गोपुर, तीर्थ, मठ एवं क्षेत्र की स्थापना करे तथा उत्सव रचाये. वस्त्र, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप तथा पूआ और शाक आदि व्यंजनों से युक्त भांति-भांतिके भक्ष्य-भोजन अन्न नैवेद्य के रूप में समर्पित करे. छत्र, ध्वजा, व्यंजन, चामर तथा अन्य अंगों सहित राजोपचार की भांति सब सामान भगवान् शिव के लिंग एवं मूर्ति को चढ़ाये. प्रदक्षिणा, नमस्कार तथा यथाशक्ति जप करे. आवाहन से लेकर विसर्जन तक सारा कार्य प्रतिदिन भक्तिभाव से सम्पन्न करे. इस प्रकार शिवलिंग अथवा शिवमूर्ति में भगवान् शंकर की पूजा करनेवाला पुरुष श्रवणादि साधनों का अनुष्ठान न करे तो भी भगवान् शिव की प्रसन्नता से सिद्धि प्राप्त कर लेता है. पहले के बहुत-से महात्मा पुरुषलिंग तथा शिवमूर्ति की पूजा करने मात्र से भव बन्धनसे मुक्त हो चुके हैं. ऋषियोंने पूछा : मूर्ति में ही सर्वत्र देवताओं की पूजा होती है (लिंग में नहीं),परंतु भगवान् शिव की पूजा सब जगह मूर्ति में और लिंग में भी क्यों की जाती है? सूतजीने कहा- मुनीश्वरो ! तुम्हारा यह प्रश्न तो बड़ा ही पवित्र और अत्यंत अद्भुत है. इस विषय में महादेवजी ही वक्ता हो सकते हैं. दूसरा कोई पुरुष कभी और कहीं भी इसका प्रतिपादन नहीं कर सकता. इस प्रश्न के समाधान के लिये भगवान् शिव ने जो कुछ कहा है और उसे मैंने गुरु जीके मुख से जिस प्रकार सुना है, उसी तरह क्रमशः वर्णन करूंगा. एकमात्र भगवान् शिव ही ब्रह्म रूप होने के कारण ”निष्कल” (निराकार) कहे गये हैं. रूपवान् होने के कारण उन्हें ”सकल” भी कहा गया है. इसलिये वे सकल और निष्कल दोनों हैं. शिव के निष्कल – निराकार होने के कारण ही उनकी पूजा का आधारभूत लिंग भी निराकार ही प्राप्त हुआ है. अर्थात् शिवलिंग शिव के निराकार स्वरूप का प्रतीक है. इसी तरह शिव के सकल या साकार होने के कारण उनकी पूजा का आधारभूत विग्रह साकार प्राप्त होता है अर्थात् शिव का साकार विग्रह उनके साकार स्वरूप का प्रतीक होता है. सकल और अकल (समस्त अंग-आकार सहित साकार और अंग-आकार से सर्वथा रहित निराकार) रूप होने से ही वे ”ब्रह्म” शब्द से कहे जानेवाले परमात्मा हैं. यही कारण है कि सब लोग लिंग (निराकार) और मूर्ति (साकार) दोनों में ही सदा भगवान् शिव की पूजा करते हैं. शिव से भिन्न जो दूसरे दूसरे देवता हैं, वे साक्षात् ब्रह्म नहीं हैं. इसलिये कहीं भी उनके लिये निराकार लिंग नहीं उपलब्ध होता. पूर्वकाल में बुद्धिमान् ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार मुनि ने मन्दराचल पर नन्दिकेश्वर से इसी प्रकार का प्रश्न किया था. सनत्कुमार बोले – भगवन् ! शिव से भिन्न जो देवता हैं, उन सबकी पूजा के लिये सर्वत्र प्रायः वेर (मूर्ति)-मात्र ही अधिक संख्या में देखा और सुना जाता है. केवल भगवान् शिव की ही पूजा में लिंग और वेर दोनों का उपयोग देखने में आता है. अतः कल्याणमय नन्दिकेश्वर ! इस विषय में जो तत्त्व की बात हो, उसे मुझे इस प्रकार बताइये, जिससे अच्छी तरह समझमें आ जाये. नन्दिकेश्वर ने कहा-निष्पाप ब्रह्मकुमार ! आपके इस प्रश्न का हम-जैसे लोगों के द्वारा कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता; क्योंकि यह गोपनीय विषय है और लिंग साक्षात् ब्रह्म का प्रतीक है, तथापि आप शिवभक्त हैं. इसलिये इस विषय में भगवान् शिव ने जो कुछ बताया है, उसे ही आपके समक्ष कहता हूं. भगवान् शिव ब्रह्म स्वरूप और निष्कल (निराकार) हैं; इसलिये उन्हीं की पूजा में निष्कल लिंग का उपयोग होता है. सम्पूर्ण वेदों का यही मत है. सनत्कुमार बोले-महाभाग योगीन्द्र ! आपने भगवान् शिव तथा दूसरे देवताओं के पूजन में लिंग और वेर के प्रचार का जो रहस्य विभाग पूर्वक बताया है, वह यथार्थ है. इसलिये लिंग और वेर की आदि उत्पत्ति का जो उत्तम वृत्तान्त है, उसी को मैं इस समय सुनना चाहता हूं. लिंग के प्राकट्य का रहस्य सूचित करनेवाला प्रसंग मुझे सुनाइये. इसके उत्तर में नन्दिकेश्वर ने भगवान् महादेव के निष्कल स्वरूप लिंग के आविर्भाव का प्रसंग सुनाना आरम्भ किया. उन्होंने ब्रह्मा तथा विष्णु के विवाद, देवताओं की व्याकुलता एवं चिन्ता, देवताओं का दिव्य कैलास-शिखर पर गमन, उनके द्वारा चन्द्रशेखर महादेव का स्तवन, देवताओं से प्रेरित हुए महादेव जी का ब्रह्मा और विष्णु के विवाद-स्थल में आगमन तथा दोनों के बीच में निष्कल आदि-अन्तरहित भीषण अग्निस्तम्भ के रूप में उनका आविर्भाव आदि प्रसंगों की कथा कही. तदनन्तर श्रीब्रह्मा और विष्णु दोनों के द्वारा उस ज्योतिर्मय स्तम्भ की ऊंचाई और गहराई का थाह लेने की चेष्टा एवं केतकी पुष्प के शाप वरदान आदि के प्रसंग भी सुनाय
100 साल बाद बन रहा यह संयोग
वर्ष 2025 में 11 जुलाई शुक्रवार के दिन से श्रावण मास प्रारंभ हो रहा है. 14 जुलाई को सावन का सोमवार रहेगा. सावन मास 9 अगस्त 2025, दिन शनिवार तक जारी रहेगा. यह संयोग 100 साल बाद बन रहा है जब सावन का मास शुक्रवार से और पहला सोमवार दुर्लभ योगों के साथ आयेगा. 11 जुलाई को त्रिपुष्कर योग में सावन माह प्रारंभ हो रहा है. सावन का माह भगवान शिवजी को समर्पित है और शुक्रवार का दिन माता लक्ष्मी को समर्पित हैं. वहीं जया पार्वती व्रत भी प्रारंभ हो गया है जो 12 जुलाई तक चलेगा. इसके चलते जहां शिव और पार्वती की पूजा का महत्व है वहीं भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा का भी इसी दिन महत्व रहेगा. चारों की पूजा करने से बहुत लाभ होगा. यदि इस दिन व्रत रखने हैं तो दोगुना लाभ होगा. शिवपुराण के अनुसार, जिस कामना से कोई इस मास के सभी सोमवार का व्रत करता है उसकी वह कामना अवश्य एवं अतिशीघ्र पूरी हो जाती है. 1. शिवजी और विष्णुजी की पंचोपचार और माता पार्वती व माता लक्ष्मी की षोडषोपचार पूजा करें. 2. शिवजी को बेलपत्र और विष्णुजी को तुलसी का पत्र अर्पित करें. 3. माता पार्वती को गुड़हल का फूल और माता लक्ष्मी को कमल का फूल अर्पित करें. 4. शिवजी को भांग, दूध, दही, पंचांमृत या खीर का भोग लगाएं. 5. विष्णुजी को केसर भात, सूजी का हलवा, खीर, धनिया का भोग लगाएं. 6. माता लक्ष्मी को पीले रंग के मिष्ठान, कड़ी और पूरनपोळी का भोग लगाएं. 7. माता पार्वती को खीर, मालपुए, मीठा हलवा, पूरनपोळी, केले, नारियल का भोग लगाएं.
मल्लिकार्जुन और महाकाल नामक ज्योतिर्लिंगों के आविर्भाव की कथा और उनकी महिमा
भारत में प्रमुख शिवस्थान अर्थात ज्योतिर्लिंग बारह हैं. ये तेजस्वी रूप में प्रकट हुए. इनमें बाबा बैद्यनाथ नौवें हैं. ज्योतिर्लिंग का अर्थ व्यापक ब्रह्मात्मलिंग अथवा व्यापक प्रकाश लिंग है. तैत्तिरीय उपनिषद् में ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार एवं पंचमहाभूत, इन 12 तत्त्वों को बारह ज्योतिर्लिंग माना गया है. इस पुस्तिका में हर दिन एक ज्योतिर्लिंग की महत्ता की जानकारीदी जा रही है. आज पढ़ें ज्योतिर्लिंग मल्लिकार्जुन के बारे में.
भगवान् शिव अपने भक्तों की रक्षा के लिये उस परम सुन्दर गड्डे में स्थित हो गये. वे ब्राह्मण मोक्ष पा गये और वहां चारों ओर की एक-एक कोस भूमि लिंग रूपी भगवान् शिव का स्थल बन गयी. वे शिव भूतल पर महाकालेश्वर के नाम से विख्यात हुए. ब्राह्मणो ! उनका दर्शन करने से स्वप्नमें भी कोई दुःख नहीं होता
सूतजी कहते हैं- महर्षियों ! अब मैं मल्लिकार्जुन के प्रादुर्भाव का प्रसंग सुनाता है, जिसे सुनकर बुद्धिमान् पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाता है. जब महाबली तारकशत्रु शिवापुत्र कुमार कार्तिकेय सारी पृथ्वी की परिक्रमा कर के फिर कैलास पर्वत पर आये और गणेश के विवाह आदि की बात सुनकर क्रौंच पर्वत पर चले गये, पार्वती और शिवजी के वहां जाकर अनुरोध करने पर भी नहीं लौटे तथा वहां से भी बारह कोस दूर चले गये, तब शिव और पार्वती ज्योतिर्मय स्वरूप धारण करके वहां प्रतिष्ठित हो गये. वे दोनों पुत्र स्नेह से आतुर हो पर्व के दिन अपने पुत्र कुमार को देखने के लिये उनके पास जाया करते हैं. अमावस्या के दिन भगवान् शंकर स्वयं वहां जाते हैं और पौर्णमासी के दिन पार्वती जी निश्चय ही वहां पदार्पण करती हैं. उसी दिन से लेकर भगवान् शिव का मल्लिकार्जुन नामक एक लिंग तीनों लोकों में प्रसिद्ध हुआ. (उसमें पार्वती और शिव दोनों की ज्योतियां प्रतिष्ठित हैं. ”मल्लिका” का अर्थ पार्वती है और ”अर्जुन” शब्द शिवका वाचक है.) उस लिंग का जो दर्शन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और सम्पूर्ण अभीष्ट को प्राप्त कर लेता है. इसमें संशय नहीं है. इस प्रकार मल्लिकार्जुन नामक द्वितीय ज्योतिलिंग का वर्णन किया गया, जो दर्शन मात्र से लोगों के लिये सब प्रकार का सुख देनेवाला बताया गया है. ऋषियोंने कहा-प्रभो ! अब आप विशेष कृपा करके तीसरे ज्योतिर्लिंग का वर्णन कीजिये. सूतजीने कहा- ब्राह्मणों! मैं धन्य हूं, कृतकृत्य हूं, जो आप श्रीमानों का संग मुझे प्राप्त हुआ. साधु पुरुषों का संग निश्चय ही धन्य है. अतः मैं अपना सौभाग्य समझकर पापनाशिनी परम पावनी दिव्य कथा का वर्णन करता हूं. तुमलोग आदरपूर्वक सुनो. अवन्ति नाम से प्रसिद्ध एक रमणीय नगरी है, जो समस्त देहधारियों को मोक्ष प्रदान करनेवाली है. वह भगवान् शिव को बहुत ही प्रिय, परम पुण्यमयी और लोकपावनी है. उस पुरी में एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते थे, जो शुभ कर्म परायण, वेदों के स्वाध्याय में संलग्न तथा वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में सदा तत्पर रहनेवाले थे. वे घर में अग्नि की स्थापना करके प्रतिदिन अग्निहोत्र करते और शिव की पूजा में सदा तत्पर रहते थे. वे ब्राह्मण देवता प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा किया करते थे. वेदप्रिय नामक वे ब्राह्मण देवता सम्यक् ज्ञानार्जन में लगे रहते थे; इसलिये उन्होंने सम्पूर्ण कर्मों का फल पाकर वह सद्गति प्राप्त कर ली, जो संतों को ही सुलभ होती है. उनके शिव पूजा परायण चार तेजस्वी पुत्र थे, जो पिता-माता से सद्गुणों में कम नहीं थे. उनके नाम थे – देवप्रिय, प्रियमेधा, सुकृत और सुव्रत. उनके सुखदायक गुण वहां सदा बढ़ने लगे. उनके कारण अवन्ति-नगरी ब्रह्म तेज से परिपूर्ण हो गयी थी. उसी समय रत्नमाल पर्वत पर दूषण नामक एक धर्मद्वेषी असुर ने ब्रह्माजी से वर पाकर वेद, धर्म तथा धर्मात्माओं पर आक्रमण किया. अन्त में उसने सेना लेकर अवन्ति (उज्जैन) के ब्राह्मणों पर भी चढ़ाई कर दी. उसकी आज्ञा से चार भयानक दैत्य चारों दिशाओं में प्रलयाग्नि के समान प्रकट हो गये, परंतु वे शिव विश्वासी ब्राह्मण-बन्धु उनसे डरे नहीं. जब नगर के ब्राह्मण बहुत घबरा गये, तब उन्होंने उनको आश्वासन देते हुए कहा- ”आपलोग भक्त वत्सल भगवान् शंकर पर भरोसा रखें.” यों कह शिवलिंग का पूजन करके वे भगवान् शिव का ध्यान करने लगे. इतने में ही सेना सहित दूषण ने आकर उन ब्राह्मणों को देखा और कहा- ”इन्हें मार डालो, बांध लो.” वेद प्रिय के पुत्र उन ब्राह्मणों ने उस समय उस दैत्य की कही हुई वह बात नहीं सुनी; क्योंकि वे भगवान् शम्भु के ध्यानमार्ग में स्थित थे. उस दुष्टात्मा दैत्य ने ज्यों ही उन ब्राह्मणों को मारने की इच्छा की, त्यों ही उनके द्वारा पूजित पार्थिव शिवलिंग के स्थान में बड़ी भारी आवाज के साथ एक गड्डा प्रकट हो गया. उस गड्ढे से तत्काल विकटरूपधारी भगवान् शिव प्रकट हो गये, जो महाकाल नाम से विख्यात हुए. वे दुष्टों के विनाशक तथा सत्पुरुषों के आश्रयदाता हैं. उन्होंने उन दैत्यों से कहा- ”अरे खल! मैं तुझ जैसे दुष्टोंके लिये महाकाल प्रकट हुआ हूं. तुम इन ब्राह्मणों के निकट से दूर भाग जाओ.” ऐसा कहकर महाकाल शंकर ने सेना सहित दूषण को अपने हुंकार मात्र से तत्काल भस्म कर दिया. कुछ सेना उनके द्वारा मारी गयी और कुछ भाग खड़ी हुई. परमात्मा शिव ने दूषण का वध कर डाला. जैसे सूर्य को देखकर सम्पूर्ण अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार भगवान् शिव को देखकर उसकी सारी सेना अदृश्य हो गयी. देवताओं की दुन्दुभियां बज उठीं और आकाश से फूलोंकी वर्षा होने लगी. उन ब्राह्मणों को आश्वासन दे सुप्रसन्न हुए स्वयं महाकाल महेश्वर शिव ने उनसे कहा : ”तुमलोग वर मांगो.” उनकी वह बात सुनकर वे सब ब्राह्मण हाथ जोड़ भक्ति- भाव से भलीभांति प्रणाम करके नतमस्तक हो बोले. द्विजों ने कहा-महाकाल ! महादेव ! दुष्टों को दंड देनेवाले प्रभो ! शम्भो ! आप हमें संसार सागर से मोक्ष प्रदान करें. शिव ! आप जनसाधारण की रक्षा के लिये सदा यहीं रहें. प्रभो! शम्भो ! अपना दर्शन करनेवाले मनुष्यों का आप सदा ही उद्धार करें. सूतजी कहते हैं- महर्षियो ! उनके ऐसा कहने पर उन्हें सद्गति दे भगवान् शिव अपने भक्तों की रक्षा के लिये उस परम सुन्दर गड्डे में स्थित हो गये. वे ब्राह्मण मोक्ष पा गये और वहां चारों ओर की एक-एक कोस भूमि लिंग रूपी भगवान् शिव का स्थल बन गयी. वे शिव भूतल पर महाकालेश्वर के नाम से विख्यात हुए. ब्राह्मणो ! उनका दर्शन करने से स्वप्नमें भी कोई दुःख नहीं होता. जिस-जिस कामना को लेकर कोई उस लिंग की उपासना करता है, उसे वह अपना मनोरथ प्राप्त हो जाता है तथा परलोक में मोक्ष भी मिल जाता है.
