पौराणिक कथाएं कहती हैं कि एक बार बुद्ध के मौन पर सभी देवता चिंता में पड़ गये. उन्होंने उनसे बोलने की याचना की. मौन समाप्त होने पर वे बोले, जो जानते हैं, वे मेरे कहने के बिना भी जानते हैं और जो नहीं जानते, वे मेरे कहने पर भी नहीं जानेंगे. जिन्होंने जीवन का अमृत ही नहीं चखा, उनसे बात करना व्यर्थ है, इसलिए मैंने मौन धारण किया था.
जो बहुत ही आत्मीय और व्यक्तिगत हो, उसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? देवताओं ने उनसे कहा, आपकी बात सत्य है, परंतु उनके बारे में सोचें, जिनको पूरी तरह से बोध भी नहीं हुआ है और पूरी तरह से अज्ञानी भी नहीं हैं. उनके लिए आपके थोड़े से शब्द भी प्रेरणादायक होंगे. तब आपके द्वारा बोला गया हर शब्द मौन का सृजन करेगा. बुद्ध के शब्द निश्चित ही मौन का सृजन करते हैं, क्योंकि बुद्ध मौन की प्रतिमूर्ति हैं. मौन जीवन का स्रोत है. जब लोग क्रोधित होते हैं, तो पहले वे चिल्लाते हैं और फिर मौन हो जाते हैं. जब कोई दुखी होता है, तब वह भी मौन की शरण में जाता है. जब कोई ज्ञानी होता है, तब भी वहां पर मौन होता है.
शुरुआत से ही बुद्ध ने संतुष्ट जीवन का निर्वाह किया. हर सुख-सुविधा किसी भी समय उनकी इच्छानुसार उनके सामने हाजिर हो जाती थी. एक दिन उन्होंने कहा कि मुझे बाहर जाकर यह देखना है कि दुनिया क्या है. जब उन्होंने एक बीमार, एक वृद्ध और एक मृत व्यक्ति को देखा, तो उन्होंने जीवन के बारे में विचार करना शुरू किया. ये दृश्य यह ज्ञान देने में पर्याप्त थे कि जीवन में दुख है. बुद्ध ने अकेले सत्य की तलाश शुरू की. इसके लिए उन्होंने अपना महल, पत्नी और बेटे को छोड़ दिया. उन्होंने वह सब कुछ किया, जो लोगों ने उन्हें बताया. इसके बाद ही वे चार सत्य जान पाये. पहला सत्य है कि दुनिया में दुख है.
जीवन में सिर्फ दो संभावनाएं हैं- अपने आसपास के संसार में औरों के दुख के अनुभव को देख कर समझ जाना, और स्वयं उसका अनुभव करके समझना कि संसार दुख है. दूसरा सत्य है- आप बिना किसी कारण सुखी रह सकते हैं, परंतु दुख का कोई कारण अवश्य होता है. तीसरा सत्य- दुख का निवारण संभव है. चौथा सत्य- दुख से बाहर निकलने के लिए एक पथ है.
– श्री श्री रविशंकर