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कर्म और कर्मफल

हम किसी मनुष्य की भूख अल्प समय के लिए भले ही शांत कर दें, परंतु बाद में वह फिर भूखा हो जायेगा. किसी व्यक्ति को हम जो कुछ भी सुख दे सकते हैं, वह क्षणिक होता है. सुख और दुख के सतत ज्वार का कोई भी सदा के लिए उपचार नहीं कर सकता. प्रत्येक देश […]

हम किसी मनुष्य की भूख अल्प समय के लिए भले ही शांत कर दें, परंतु बाद में वह फिर भूखा हो जायेगा. किसी व्यक्ति को हम जो कुछ भी सुख दे सकते हैं, वह क्षणिक होता है. सुख और दुख के सतत ज्वार का कोई भी सदा के लिए उपचार नहीं कर सकता. प्रत्येक देश में कुछ ऐसे नर-रत्न होते हैं, जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं. वे नाम-यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते. वे केवल इसलिए कर्म करते हैं कि उसमें कुछ कल्याण होगा.
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो और भी उच्चतर उद्देश्य लेकर गरीबों के प्रति भलाई तथा मनुष्य जाति की सहायता करने के लिए अग्रसर होते हैं, क्योंकि वे शुभ में विश्वास करते हैं और उससे प्रेम करते हैं. नाम तथा यश के लिए किया गया कार्य बहुधा शीघ्र फलित नहीं होता. ये जीचें हमें उस समय प्राप्त होती हैं, जब हम वृद्ध हो जाते हैं और जिंदगी की आखिरी घड़ियां गिनते रहते हैं. यह स्मरण रखना चाहिए कि समस्त कर्मों का उद्देश्य है- मन के भीतर पहले से ही स्थित शक्ति को प्रकट कर देना, आत्मा को जाग्रत कर देना.
प्रत्येक मनुष्य के भीतर शक्ति और पूर्ण ज्ञान विद्यमान है. भिन्न-भिन्न कर्म इस महान शक्तियों को जाग्रत करने तथा बाहर प्रकट कर देने के लिए आघात सदृश हैं. कर्म करके कर्मफल की आकांक्षा न करना, किसी मनुष्य की सहायता करके उससे किसी प्रकार की कृतज्ञता की आशा न रखना, कोई सत्कर्म करके भी इस बात की ओर ध्यान तक न देना कि वह हमें यश और कीर्ति देगा अथवा नहीं- इस संसार में सबसे कठिन बात है.
संसार जब प्रशंसा करने लगता है, तब एक कायर व्यक्ति भी बहादुर बन जाता है. समाज के समर्थन तथा प्रशंसा से एक मूर्ख भी वीरोचित कार्य कर सकता है, परंतु अपने आसपास के लोगों की निंदा-स्तुति की बिल्कुल परवाह न करते हुए सर्वदा सत्कार्य में लगे रहना वास्तव में सबसे बड़ा त्याग है.
कर्मफल में अासक्ति रखनेवाला व्यक्ति अपने भाग्य में आये हुए कर्तव्य पर भिनभिनाता है. अनासक्त पुरुष को सब कर्तव्य समरूप से शुभ हैं. हम सब भले अपने को बड़ा मानें, लेकिन प्रकृति ही सदैव कड़े नियम से हमारे कर्मों के अनुसार उचित कर्मफल का विधान करती है.
– स्वामी विवेकानंद

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