एकमात्र ईश्वर ही सत्य है, एकमात्र आत्मा ही सत्य है और एकमात्र धर्म ही सत्य है. इन्हें ही सत्य समझो. यह निश्चय जानो, यदि तुम प्रलोभनों को ठुकरा कर सत्य के सेवक बनोगे, तो तुममें ऐसी दैवी शक्ति आ जायेगी, जिसके सामने लोग तुमसे उन बातों को कहते डरेंगे, जिन्हें तुम सत्य नहीं समझते.
यदि तुम बिना किसी विक्षेप के लगातार चौदह वर्ष तक सत्य की अनन्य सेवा कर सको, तो तुम जो कहोगे, लोग उस पर विश्वास कर लेंगे. तब तुम जनता का सबसे बड़ा उपकार करोगे और उनके बंधनों को छिन्न कर संपूर्ण राष्ट्र को उन्नत कर दोगे. सत्य का स्वरूप ही ऐसा है कि जो कोई उसे देख लेता है, उसे एकदम पूरा विश्वास हो जाता है.
सूर्य का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए मशाल की जरूरत नहीं होती- यह तो स्वयं ही प्रकाशवान है. अगर सत्य को भी प्रमाण की आवश्यकता को तो उसे प्रमाण को फिर कौन सिद्ध करेगा? अगर सत्य को साक्षी के रूप में किसी वस्तु की आवश्यकता हो, तो उसके साक्ष्य के लिए फिर क्या साक्षी होगा? जिन्होंने सत्य को प्रत्यक्ष कर लिया है, उन्हें फिर सत्य को समझने के लिए न्याय-युक्ति, तर्क-वितर्क आदि बौद्धिक व्यायामों की आवश्यकता नहीं रह जाती. उनके लिए तो सत्य का जीवन प्रत्यक्ष से भी प्रत्यक्ष हो जाता है. मनुष्य का अंतिम लक्ष्य सुख नहीं, वरन् ज्ञान है.
सुख और आनंद विनाशशील हैं. अत: सुख को चरम लक्ष्य मान लेना भूल है. पर कुछ समय के बाद मनुष्य को यह बोध होता है कि जिसकी ओर वह जा रहा है, वह सुख नहीं वरन् ज्ञान है तथा सुख और दुख दोनों ही महान शिक्षक हैं और जितनी शिक्षा उसे शुभ से मिलती है, उतनी ही शुभ से भी. सच्चा सुख तो केवल आत्मा में मिलता है. अतएव आत्मा में इस सुख की प्राप्ति ही मनुष्य का सबसे बड़ा प्रयोजन है. तुम चाहो समस्त पुस्तकों को कंठस्थ कर डालो, परंतु फिर भी विशेष लाभ न होगा. लेकिन हृदय सही है, तो अंतिम ध्येय तक पहुंचा सकता है.
इसलिए हृदय का ही अनुगमन करो. शुद्ध हृदय बुद्धि के परे देख सकता है, पर अंत:स्फूर्त हो जाता है. हृदय वे बातें जान लेता है, जिसे तर्क कभी नहीं जान सकता. इसलिए तुम्हारा हृदय जो करने के लिए कहे, उसे ही करो.
-स्वामी विवेकानंद