यदि तुम कल्पना के साथ बिना किसी कामना के खेलते हो, न कहीं पहुंचने के लिए, न कुछ पाने के लिए, बस एक खेल की तरह, तब तुम्हारी वह कल्पना कामना नहीं होती, बंधन नहीं होती. यदि तुम गंभीर हो गये, तो सारी बात ही चूक गये. तुम सोच ही नहीं सकते कि बिना कामना के कुछ किया जा सकता है. तुम तो अगर खेलते भी हो, तो कहीं पहुंचने के लिए, कुछ पाने के लिए, जीतने के लिए खेलते हो. यदि भविष्य में कुछ भी मिलनेवाला न हो तो तुम्हारा सारा रस खो जायेगा. तुम कहोगे, ‘फिर खेलें ही क्यों?’ हम इतने परिणाम-उन्मुख हैं कि हर चीज को साधन बना लेते हैं. भविष्य के लिए वर्तमान में काम करने को ही कामना कहते हैं.
यदि तुम खेल रहे हो, तो वह कोई कामना नहीं है, क्योंकि उसमें साधन भी यहीं है और साध्य भी यहीं है. तुम बेपरवाह खेलते हुए बच्चों को देखो. उनके चेहरों को, उनकी आंखों को देखो. वे सुखी हैं, क्योंकि वे खेल रहे हैं. वे किसी परिणाम के लिए नहीं खेल रहे, बल्कि बस खेले जा रहे हैं. हमारी कल्पना की सक्रियता भी बच्चों के खेल की तरह होनी चाहिए. इससे सुख कोई बाद में नहीं आयेगा, सुख अभी और यहीं है. बस हमें उसे पाने के बजाय उसे खेलना चाहिए.
– आचार्य रजनीश ओशो