भगवान की स्मृति में स्थित होकर कर्म करनेवाला ही स्थितिप्रज्ञ अर्थात् अटल निश्चयवाला कहलाता है. उसमें ही दिव्य बुद्धि, जो कि कर्तव्य की पारखी होती है, का उदय होता है. योग में स्थित हुआ मनुष्य ही सभी सांसारिक रसों के आकर्षणों से ऊपर उठ कर प्रभु ही के प्रेम-रस, आत्म-रस तथा कर्मातीत स्थिति के परम-रस में लवलीन रहता है.
इसलिए वह कर्मों को उपराम, अनासक्त अथवा अलिप्त होकर करता है. ईश्वरीय स्मृति रूपी योग के कारण वह कर्मयोगी कहलाता है. उसका हाथ भले ही कार्य में होता है, तो भी उसका चित्त भगवान में होता है. अत: उसे न परिस्थितियां प्रभावित कर सकती हैं, न ही पदार्थ लुभायमान करके उसके नैतिक पथ से उसे फिसला सकते हैं. ऐसी स्थिति होने से वह एक मधुर, अलौकिक रस-युक्त स्थिति में समाया रहता है, जिससे वह नीचे नहीं उतरना चाहता.
इस स्थिति में टिके होने के कारण न उसकी किसी से खटपट होती है, न अनबन. न वह किसी परिस्थिति से खीजता है, न ही उस पर उत्तेजना का वार होता है. वह तो योग अवस्था रूपी वातानुकूलित डिब्बे में विश्रांति एवं शीलता में होता है. आगे के लिए भी भविष्य में उसके जीवन के संस्कार सात्विक एवं दैवी बनते हैं.
– आचार्य महाश्रमण