देखना, सुनना, अनुभव करना, विचार करना, निर्णय करना आदि सभी कार्य चेतनाशक्ति के कारण होते हैं. चेतना के अभाव में यह जड़ शरीर कुछ भी नहीं कर सकता. यह चेतनशक्ति तीन अवस्थाओं में रहती है-जाग्रत, स्वप्नावस्था व सुषुप्ति. जाग्रत अवस्था में चेतनाशक्ति संसार का अनुभव करती है. श्रवण आदि ज्ञानेंद्रियां एवं शब्द आदि विषयों के द्वारा जो विशेष अनुभव होता है, उसे जाग्रत अवस्था कहते हैं.
इस जाग्रत अवस्था में मनुष्य को अपने शरीर का अभिमान रहता है कि मैं शरीर हूं, तो यह आत्मा ही विश्व कहलाती है अर्थात् यह इस स्थूल जगत से अन्य किसी तत्व का स्वीकार नहीं करती. स्वप्नावस्था में केवल मन सक्रिय रह कर विभिन्न विषयों का अनुभव मात्र करता है. उसमें क्रिया का अभाव रहता है.
जाग्रत अवस्था में जो देखा, सुना जाता है, उसकी सूक्ष्म वासना से निद्राकाल में जो जगत (व्यवहार) दिखाई देता है, वही स्वप्नावस्था है. इस अवस्था में सूक्ष्म शरीर का अभिमान होने से आत्मा ‘तेजस’ कहा जाता है. मैं कुछ नहीं जानता, सुख से निद्रा का अनुभव कर रहा हूं, यह सुषुप्ति अवस्था है.
इस समय कारण शरीर का अभिमान करने से आत्मा ‘प्राज्ञ’ कहा जाता है. जाग्रत अवस्था में ज्ञान इंद्रियों के माध्यम से होता है. स्वप्नावस्था में यह ज्ञान मन से होता है, जबकि सुषुप्तावस्था में मन भी सुप्त हो जाता है, जिससे इसमें सांसारिक ज्ञान का अभाव हो जाता है.
आदि शंकराचार्य