विज्ञान का अर्थ है- विवेक. यह हमारे यात्र-पथ को आलोकित करता है. हमने जाना. जानने के बाद विवेक पैदा हुआ, विवेक की चेतना जागृत हुई. हमने यह अनुभव किया कि यह हेय है, यह उपादेय है.
इसे छोड़ना है, इसे स्वीकार करना है. यह विवेक हो गया. किंतु जब तक यह विवेक जागृत नहीं होता, तब तक कठिनाई समाप्त नहीं होती. जहां अंधेरा होता है, वहां सब समान दिखता है. तब हम हेय भी करते चले जाते हैं और उपादेय भी. जब तक हम इनका भेद नहीं समझते, तब तक प्रकाश हमें प्राप्त नहीं हो सकता. जब विवेक स्पष्ट हो जाता है, तब प्रत्याख्यान की बात आती है, हेय अपने-आप छूट जाता है.
हेय तब तक ही रहता है, जब तक हमारा विवेक जागृत नहीं होता. जैसे ही हेय छूटता है, प्रत्याख्यान प्राप्त हो जाता है, संयम सध जाता है. संयम के सधते ही संवर प्राप्त हो जाता है. संयम हमारी साधना है और संवर उसकी निष्पत्ति है. किसी विजातीय तत्व का बाहर से न आना संवर है. जब संवर सधता है, तब तप की चेतना शुरू हो जाती है. तप की प्रक्रिया एक साधना है.
निर्जरा उसकी निष्पत्ति है. निर्जरा कोई साधना नहीं है, संवर कोई साधना नहीं है. जब बाहर से आना बंद होता है, तो भीतर वाला बाहर भागने लगता है. हमारी प्रवृत्तियां समाप्त हो जाती हैं. सहज ही स्थिरता प्राप्त होती है, अकर्म की अवस्था आती है. अकर्म की स्थिति के बाद सिद्धि प्राप्त होती है.
आचार्य महाप्रज्ञ