बंगाल में ‘पोएला बैसाख’ यानी वैसाख महीने का पहला दिन, नये साल की शुरुआत के रूप में मनाया जाता है. इस मौके पर कई व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में नये खाते का पूजन किया जाता है और जगह-जगह साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं.
इस मौके पर जहां देश के अलग-अलग हिस्सों में नये साल को मनाने के तरीके भी जुदा हैं, वहीं पंजाब के गांवों में कई जगहों पर नई फसल की खुशी में वैसाखी मेले भी लगते हैं. इस मेले में जहां पंजाब के गबरू रंगीन पोशाकों और पगड़ी में भांगड़ा करते नजर आते हैं वहीं मुटियारें पारंपरिक नृत्य ‘गिद्दा’ कई तरह की बोलियों के साथ करती हैं.
पूरा माहौल आनंद उत्सव से नहा उठता है. इन सबसे इतर वैसाखी न सिर्फ पंजाब बल्कि देश के अलग-अलग हिस्सों में तथा विदेशों में भी सिख इतिहास की उस विलक्षण घटना को स्मरण कर मनायी जाती है, जो 1699 ईस्वी की वैसाखी के दिन घटी. जब सिखों के दशम गुरु गोबिंद सिंह ने पंजाब के आनंदपुर में खालसा पंथ की सिरजना की. जिसकी शुरुआत देश के मुख्तलिफ़ हिस्सों से आये अलग-अलग जातियों के पांच लोगों को अमृतपाल करवा कर पांच प्यारों का दर्जा दिया और उनके नाम के साथ सिंह का प्रयोग किया.
लाहौल से आये खत्री दयाराम बन गये दया सिंह, दिल्ली का जाट धर्म दास बना धरम सिंह, द्वारका का धोबी मुहकमचंद बना मुहकम सिंह तथा जहां जगन्नाथपुरी का पनिहार हिम्मत राय, हिम्मत सिंह बना वहीं बिदर का नाई साहिबचंद हुआ साहिब सिंह. इस तरह सभी की जातियों को समाप्त कर उन्हें वीरता से भर ‘सिंह’ बना दिया. इतना ही नहीं उन्होंने फिर स्वयं भी उन पांचों प्यारों के समक्ष नतमस्तक होकर अमृतपान किया और गोविंद राय से गोविंद सिंह हुए. दुनिया के इतिहास में संभवत: ये एक अनोखी तथा विलक्षण घटना थी जब कोई गुरु स्वयं अपने शिष्यों से दीक्षा लेता हो. इसीलिये कहा जाता है- वाह, वाह गोविंद सिंह, आपे गुरु चेला!
दुनिया में राजशाही को खत्म कर बराबरी और समाजवादी व्यवस्था कायम करने की दिशा में चेष्टा की, अमरीकियों ने बरतानिया के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम किया, फ्रांसीसियों ने भी लोकतंत्र स्थापित करने की चेष्टा की, लेकिन उससे बहुत पहले गुरु गोविंद सिंह ने सत्रहवीं शताब्दी के अंत में ही सभी की बराबरी और मनुष्य के गौरव की पुनस्र्थापना की पुरजोर शुरुआत की.
गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना के साथ ही दो नारे भी दिये, जिनमें एक था- वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फ़तेह तथा दूसरा- बोले सो निहाल, सत् श्री अकाल! पहले नारे का विेषण करें तो यही है कि खालसा वही जो खालिस है, पवित्र है तथा वाहेगुरु का है यानी ईश्वर का है तथा किसी भी कार्य में या युद्ध में उसकी फतेह (जीत) भी ईश्वर की ही इच्छा से है. यहां मनुष्य के अपने अहंकार को तिलांजलि देने का फ़लसफ़ा है. इसके साथ ही सत्श्री अकाल यानी जो काल से परे है वही एकमात्र सत्य है बाकी सब मिथ्या है.
इस तथ्य को जो भलीभांति आत्मसात कर लेता है बोलता है यानी व्यवहार में लाता है वो निहाल हो जाता है, आनंद से भर उठता है. आज भी हम खासतौर से सिखों में अभिवादन के लिए सत्श्री अकाल का प्रयोग करते हुए देखते हैं, जो हमें संसार की नश्वरता का सच हमेशा याद दिलाता रहता है. गुरुवाणी में है कि जो उपजे सो बिनस है, परे आज या काल, यानी जो जन्मता है वही मरता है, लेकिन ईश्वर कभी नहीं मरता क्योंकि उसका तो जन्म ही नहीं हुआ.
गुरु गोविंद सिंह ने तत्कालीन समाज में धर्मो खासकर ऊंच-नीच जातियों में बंटे लोगों को एक कर सारी मनुष्य जाति को एक ही ईश्वरीय शक्ति के अधीन मानते हुए अपनी एक रचना ‘अकाल उस्तति’ में स्पष्ट लिखा-
हिंदू, तुरक कोउ राफ़जी इमाम साफ़ी
मानस की जाति, सबे एक पहिचानबो
करता करीम सोई राजक रहीम ओई
दूसरो न भेद कोई, भूल भरम मानबो.
इसी भावना को गुरुग्रंथ साहिब के प्रथम संकलनकर्ता तथा सिखों के पांचवें गुरु अरजुन देव ने भी रेखांकित किया है-
कोई बोले राम-राम, कोई खुदाए, कोई सेवै गुसईयॉं कोई अलाहे
कारण करम करीम, किरपा धारि रहीम..
वैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना कर उसे एक विलक्षण स्वरूप भी प्रदान किया तथा अन्याय और अत्याचारों के विरुद्ध खड़े होने का आत्मबल प्रदान करते हुए गुरु नानक देव जी के इस फलसफ़े को ही वास्तविक रूप दिया कि-
जो तो प्रेम खेलण का चाउ
सिर अर अली, गली मोरी आओ.
या फिर कबीर दास जिन्हें गुरु ग्रंथ साहिब में उच्च स्थान प्राप्त है-
कबीरा खड़ा बाजार में, लिये लुकाठी हाथ
जो जारै घर आपना, चलै हमारे साथ.
तथा मनुष्यों में विभेद को अस्वीकारते हुए कहा –
अव्वल अल्ला नूर उपाइया, कुदरत के सभ बंदे
एक नूर ते सभ जग उपजेया, कौन भले कौ मंदे.
गुरु गोविंद सिंह ने पांच वैसे सिख जो खालिस हों पवित्र हों या नी सचमुच खालसा हों तो उन्हें ईश्वर का प्रत्यक्ष रूप माना है और उनका निर्णय तथा आदेश सर्वोपरि कहा तो है ही, एक बार मुगलों के साथ युद्ध में एक कच्चे किले से न चाहते हुए भी सुरक्षित निकल जाने के खालसा के आदेश को उन्हें मानना पड़ा था.
उन्होंने शस्त्र उठाने तथा युद्ध करने को भी तभी तर्कसंगत माना था, जब अत्याचारी, अन्यायी बातचीत या शांति की भाषा समझना ही न चाहता हो, तब शमशीर को हाथ में उठाना ही धर्म है. उन्होंने औरंगजेब को इन्हीं भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हुए अपने फ़ारसी में लिो पत्र ‘जफ़रनामा’ में कुछ यूं बयां किया है-
चूं कार अज़ हमा हीलते दर गुरश्त
हलाल अस्त बुरदन व शमशीर दस्त.
आज दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत जो अपने पंचशील के सिद्धांत के अनुसार सभी पड़ोसी देशों से खासकर शांति और प्रेम चाहता है, लेकिन अगर कोई हमारी सीमा में घुसकर हमें ललकारता है तो फिर शस्त्र उठाना अनिवार्य हो उठता है जो वाजिब भी है. वैसे वैसाखी के इस पर्व को हम न सिर्फ अपने देश बल्कि सारी दुनिया में पूरे उत्साह और आनंद से मनाते हुए सारी मानवता को आतंकवाद से मुक्त करने का संकल्प लेते हुए ये आत्मसात करें-
मानस की जाति, सब एक ही पहिचानबो.
प्रस्तुति : रावेल पुष्प