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ब्रह्मांड का दूत है भोजन का हर निवाला
डॉ मयंक मुरारी चिंतक और आध्यात्मिक लेखक हिंदू जीवन में हरेक कर्म के साथ प्रार्थना को जोड़ा गया. सुबह उठते हैं तो प्रार्थना. पृथ्वी पर पैर रखने के पूर्व प्रार्थना. स्नान करने के पूर्व प्रार्थना, ताकि पानी को परमात्मा से पूर्ण बनाया जा सके. हमारी प्रार्थना ही हमारी वृत्ति, भाव और अंततः व्यक्ति को बदलती […]
डॉ मयंक मुरारी
चिंतक और आध्यात्मिक लेखक
हिंदू जीवन में हरेक कर्म के साथ प्रार्थना को जोड़ा गया. सुबह उठते हैं तो प्रार्थना. पृथ्वी पर पैर रखने के पूर्व प्रार्थना. स्नान करने के पूर्व प्रार्थना, ताकि पानी को परमात्मा से पूर्ण बनाया जा सके. हमारी प्रार्थना ही हमारी वृत्ति, भाव और अंततः व्यक्ति को बदलती है. सदियों से भोजन को भी प्रार्थना से जोड़ा गया है.
भोजन का प्रत्येक अंश देखने में सामान्य लगता है, लेकिन भोजन का हरेक निवाला ब्रह्मांड से आया वह निवाला है, जिसमें बहुत कुछ है और जो हमसे कुछ कहना चाहता है. हममें कुछ जोड़ना चाहता है. हमें खाना के साथ-साथ उसको सुनने एवं जोड़ने का अभ्यास करना चाहिए. आलू का एक टुकड़ा हो या रोटी का एक ग्रास. पेड़ पर लगा पत्ता हो या उसके साथ जुड़ा एक फूल या फल. इन पत्तों, फूलों, फल और रोटी या आलू के साथ ब्रह्मांड के अनगिनत तत्व कई रूपों एवं कई स्थानों की यात्रा करते हैं.
भूमि के जल और हमारे शरीर में बहने वाले रक्त के बीच गहरा संबंध है. दोनों को मिलाने वाला माध्यम अन्न है. मेघ, नदी तथा सरोवर का जल पौधों के शरीर में पहुंचकर दूध में बदल जाता है और वही दूध ही गाढ़ा होकर गेहूं, आलू, केला, गाजर, चावल, ईख में भर जाता है. यही दूध अन्न के रूप में मनुष्य तथा पशु और पक्षी में प्रविष्ट होकर शक्ति और तेज उत्पन्न करता है. जो जल पृथ्वी पर बहता है और उससे पहले आकाश में विचरण करता है, वही जल पृथ्वी पर आता है तो भूमि की धारण शक्ति के साथ मिलकर दूध बन जाता है. इसलिए अथर्ववेद में वृक्ष और वनस्पति को मनुष्य की भांति पृथ्वी का पुत्र कहा गया है.
बुद्ध ने एक पत्ते में देखा ब्रह्मांड : महात्मा बुद्ध ने अपनी देशना में एक सुंदर संदेश दिया है. पत्ते का उदाहरण देकर महात्मा बुद्ध ने आचार्य कश्यप को बताया कि जड़ और चेतन सभी प्राणी परस्पर निर्भरता के अनुरूप सहवर्द्धन के विधान के अनुसार ही विकास करते हैं.
आसमान में लहरा रहे पीपल के पत्ते की ओर देखो. उन्होंने स्पष्ट देखा कि उसमें सूर्य और तारागण सभी विद्यमान है, क्योंकि बिना सूर्य, बिना प्रकाश तथा बिना अग्नि तत्व के पत्ते का अस्तित्व ही संभव नहीं है. उन्होंने पत्ते में बादलों की उपस्थिति देखी. बिना बादलों के वर्षा संभव नही और वर्षा के बिना पत्ते का अस्तित्व नहीं है. उन्होंने देखा कि पृथ्वी, काल, आकाश और मनस् तत्व सभी उस पत्ते में विद्यमान हैं. वास्तव में उस पत्ते में ही समस्त ब्रह्मांड अवस्थित है.
हरेक के काम के अनुरूप हो भोजन : हमारे कर्म की गति ही हमारा जीवन है. यह पूरी तरह से हमने बनाया है. इसी प्रकार हमने भोजन को पूरे ध्यान से समझा और स्वीकार किया है. अलग-अलग तरह के लोगों को क्या खाना चाहिए, इसका निर्धारण किया गया है.
उनके लिए अलग-अलग तरीके के खाने को महत्वपूर्ण बताया गया है. मेहनतकश मजदूर को जो खाना चाहिए, वह आध्यात्मिक व्यक्ति के लिए अनुकूल नहीं हो सकता. उसी प्रकार पढ़नेवाले युवा और सीमा के प्रहरी का खाना भी भिन्न होगा. व्यवसायी का खाना और श्रमिक का खाना एक जैसे नहीं हो सकते. यह बात समझनी होगी. हम अपने मूल स्वभाव के अनुसार काम करेंगे, तो हम इसको समझ सकेंगे. इसके लिए पहले शरीर को सुनना होगा. लेकिन हम अपने मन की सुनते हैं, शरीर की नहीं सुनते. जबकि, हमारा शरीर के साथ संबंध पहले जरूरी है.
मन का स्थान शरीर के बाद होता है. शरीर नहीं होने पर मन भी नहीं रहेगा, यह बात हमारे पल्ले नहीं पड़ती. हमारे शरीर से एक आवाज आती है- तुम जो खा रहे हो वह सही है या वह सही नहीं है. गलत खाने से बाद में तकलीफ होगी. लेकिन हम नहीं सुनते या सुनना नहीं चाहते और कष्ट भोगते हैं.
भोजन के समय िसर्फ उसी पर ध्यान रहे : हम भोजन करते समय किसी दूसरी दुनिया में होते हैं. इसलिए स्वाद का जब तक पता चलता है, तब तक पेट भर जाता है.
फिर स्वाद के लिए ज्यादा भोजन करते हैं. इसलिए भोजन करना है तो स्वाद लेकर या मौन में करना. भोजन के प्रत्येक कौर के साथ दूसरा कुछ भी मुंह में न डालें. चाहे हमारी कोई इच्छा हो, चिंता हो या कोई सुखद अनुभूति. जब मुंह में कोई भोजन का टुकड़ा डाले तो बस उस तक ही अपने विचारों को केंद्रित रखें. इसके साथ कुछ भी न चबायें. यदि पूरी तरह से चबा कर और स्वाद के साथ खाना को ग्रहण करेंगे, तो कभी भी ज्यादा भोजन नहीं कर पायेंगे.
बौद्ध गुरु थिच नात हान ऑरेंज मेडिटेशन की बात सिखाते हैं. संतरे को हथेली पर रखकर उसे देखते हुए सांस भीतर और बाहर करते हैं, जिससे कि संतरा यथार्थ बन जाए. वह कहते है कि यदि हम यहां पूरी तरह से उपस्थित नहीं, तो संतरा भी वहां नहीं है. जो संतरे को खाते हैं लेकिन फिर भी उसे नहीं खाते. वे संतरे के साथ अपना दुख, भय, क्रोध, भूत और भविष्य चबाते रहते हैं. वे कहते है कि यदि आप यहां हैं, तो जीवन भी यहीं है. संतरा जीवन का संदेशवाहक है. जब आप संतरे को देखते हैं, तो जान पाते हैं कि यह फल कैसे बड़ा हुआ और इसमें मौजूद एसिड चीनी में परिवर्तित हुआ. संतरे के पेड़ को इस उत्कृष्ट कलाकृति को बनाने में कितना समय लगा.
जिस जीव में विचार-भावना हो उसे न खाएं
भोजन करें, इसके पूर्व यह जानना जरूरी है कि भोजन के माध्यम से हम अन्य जीवन को चुनते हैं और खाते हैं. उसको अपना बनाते है. दुनिया का हरेक जीवन इस धरती और आकाश के माध्यम से आता है. एक केंचुआ हो या एक आदमी. एक जानवर हो या एक पौधा. सब मिट्टी से बना लेकिन उसके रूप में बदलाव हो जाता है. हरेक जीवन एक निश्चित जानकारी एवं व्यवस्था के आधार पर चल रहा है. केंचुआ अपना भोजन पेड़-पौधों से तथा आदमी केंचुआ से भोजन नहीं ले सकता.
सृष्टि एक जीवन चक्र पर आधारित है. उसमें एक व्यवधान पूरे जीवन के लिए संकट उत्पन्न कर देगा. एक जानवर जिसमें विचार और भावना हो उसे नहीं खाना चाहिए, क्योंकि वह हमारे जीवन का हिस्सा नहीं बनेगा. अगर खा लिये तो उस व्यक्ति में जानवर की प्रकृति प्रकट होने लगेगी. अतएव वही खाइए जो हमारे लिए अच्छा है.
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