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सम्मान की हकदार हैं महिलाएं

ऐसे परिवारों की संख्या कम है, जिनमें बेटे और बेटी के बीच भेदभाव न किया जाता हो.

आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर

ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabar.in

दुबई में आइपीएल का छठा मैच रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु और किंग्स इलेवन पंजाब के बीच खेला जा रहा था. बेंगलुरु के कप्तान विराट कोहली ने न केवल केएल राहुल के दो कैच छोड़े, बल्कि बल्लेबाजी में भी कोई कमाल नहीं दिखा सके. वह पांच गेंदों पर सिर्फ एक रन बना कर पवेलियन लौट गये. सुनील गावस्कर कमेंटरी कर रहे थे. उन्होंने कहा, विराट कोहली ने लॉकडाउन में बस अनुष्का शर्मा की गेंदबाजी का सामना किया है. उससे तो कुछ नहीं बनना है. अनुष्का शर्मा ने सुनील गावस्कर के इस बयान पर कड़ी आपत्ति जतायी है.

अनुष्का ने इंस्टाग्राम पोस्ट में कहा- श्रीमान सुनील गावस्कर, मैं आपसे कहना चाहती हूं कि आपका यह बयान बेहद अप्रिय है. आप एक क्रिकेटर के खेल के लिए उसकी पत्नी को जिम्मेदार क्यों ठहराते हैं? मैं अच्छी तरह से जानती हूं कि आपने हर क्रिकेटर के निजी जीवन का सम्मान किया है, तो आपको ऐसा नहीं लगता है कि ऐसा मेरे साथ भी होना चाहिए? मुझे यकीन है कि मेरे पति के प्रदर्शन पर टिप्पणी करने के लिए आपके दिमाग में कई वाक्य और शब्द आये होंगे या आपके शब्द केवल तभी मायने रखते हैं, जब उनमें मेरा नाम आया हो?

कब ऐसा होगा, जब मुझे क्रिकेट में घसीटना बंद किया जायेगा और इस तरह की एकतरफा टिप्पणियां नहीं की जायेंगी? अनुष्का शर्मा के इस बयान के बाद सुनील गावस्कर ने एक न्यूज चैनल से बातचीत में सफाई दी कि उनका इरादा अनुष्का को दोषी ठहराने या उन पर किसी तरह का इलजाम लगाने का नहीं था. वह सिर्फ यह कहना चाह रहे थे कि लॉकडाउन के कारण विराट कोहली हों या धौनी या कोई अन्य खिलाड़ी, उनको अभ्यास करने का मौका नहीं मिला और इसका असर सभी के पहले एक-दो मैच में देखने को भी मिला है.

अनुष्का शर्मा पर पहले भी लोग टीका-टिप्पणी करते रहे हैं. उन्हें हमेशा से विराट कोहली के खराब प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है. जब आम जन ही नहीं, बल्कि वरिष्ठ खिलाड़ी भी ऐसा कहते नजर आते हैं, तो बात गंभीर हो जाती है. इसके पहले भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व विकेटकी पर फारुख इंजीनियर ने कहा था कि विश्व कप के दौरान टीम इंडिया के चयनकर्ता विराट कोहली की पत्नी अनुष्का शर्मा की चाय का कप उठाने में व्यस्त थे. इसका भी अनुष्का ने ट्वीट कर जवाब दिया था कि वह हमेशा झूठी और मनगढ़ंत खबरों पर चुप रहती थी, लेकिन अब उनके लिए ऐसा करना मुश्किल हो गया है. उनके बारे में कहा जाता था कि वह टीम की बैठक का हिस्सा हुआ करती थीं और चयन प्रक्रिया को भी प्रभावित करती थीं.

पति के साथ विदेश दौरे को लेकर भी उन्हें सुर्खियों में लाया जाता रहा है. किसी ने कभी सच जानने की कोशिश नहीं की, जबकि उन्होंने हमेशा नियमों का पालन किया है. इसके पहले भारतीय क्रिकेटर हार्दिक पंड्या और केएल राहुल ने भी एक शो के दौरान महिलाओं को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी की थीं और दंड स्वरूप उन्हें कुछ समय के लिए भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने निलंबित कर दिया था. ये घटनाएं केवल हार्दिक पांड्या अथवा केएल राहुल तक सीमित नहीं हैं, बल्कि समाज के एक वर्ग की मानसिकता को दर्शाती हैं, जिसमें महिलाएं भोग और विलास की वस्तुएं हैं.

राजनीति में तो ऐसे बयानों की सूची अंतहीन है. रफेल पर बहस के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तत्कालीन रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण पर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी. सन् 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कांग्रेसी सांसद रेणुका चौधरी पर टिप्पणी को भी अनुचित करार दिया गया था. समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह का 2014 का एक बयान भी खबरों में रहा था, जिसमें उन्होंने कहा था, क्या रेप में फांसी दी जायेगी? अरे लड़के हैं, गलती हो जाती है. मानुषी छिल्लर के मिस वर्ल्ड बनने पर कांग्रेस नेता शशि थरूर ने उन्हें चिल्लर कह कर उनका मजाक उड़ाया था.

राजस्थान विस चुनाव के दौरान शरद यादव ने तत्कालीन सीएम वसुंधरा राजे की सेहत को लेकर बयान दिया था. कड़ी प्रतिक्रिया हुई, तो खेद प्रकट किया था. 1996 में जब पहली बार महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा में पेश करने की कोशिश की गयी थी, तब शरद यादव ने आपत्ति जतायी थी और कहा था कि इस विधेयक से सिर्फ ‘परकटी महिलाओं’ को ही फायदा पहुंचेगा. आशय यह है कि सार्वजनिक रूप से दिये गये ऐसे अनेक बयान हैं, जिनमें महिलाओं को कमतर बताने की कोशिश हुई है. ये घटनाएं इस बात की ओर भी इशारा करती हैं कि देश में यह धारणा अब भी मजबूत है कि स्‍त्री का दर्जा दोयम है, जबकि देखा जाए, तो भारतीय महिलाएं जिंदगी के सभी क्षेत्रों में सक्रिय हैं.

भारतीय परंपरा में भी महिलाओं का उच्च स्थान है. जल्द ही दुर्गा पूजा के दौरान हम नौ दिनों तक नारी स्वरूपा देवी की उपासना करेंगे, लेकिन नारी में देवत्व का यह भाव समाज में केवल कुछ समय तक ही रहता है. महिला उत्पीड़न की घटनाएं बताती हैं कि हम जल्द ही इसे भुला देते हैं, लेकिन यह अवधारणा अचानक प्रकट नहीं हुई है. हमारी सामाजिक संरचना में बचपन से ही यह बात बच्चों के मन में स्थापित कर दी जाती है कि लड़का लड़की से बेहतर है.

परिवार और समाज का मुखिया पुरुष है और महिलाओं को उसकी व्यवस्थाओं को पालन करना है. यह सही है कि परिस्थितियों में भारी बदलाव आया है, लेकिन अब भी ऐसे परिवारों की संख्या कम है, जिनमें बेटे और बेटी के बीच भेदभाव न किया जाता हो. बाद में ये बातें सार्वजनिक जीवन में प्रकट होने लगती हैं. दरअसल, समाज में महिलाओं के काम का सही मूल्यांकन नहीं किया जाता है. उनकी दक्षता की अक्सर अनदेखी कर दी जाती है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का मानना है कि अगर भारत के आर्थिक विकास में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर हो जाए, तो भारत की जीडीपी में भारी वृद्धि हो सकती है.

भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, देश के कुल श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी 25.5 फीसदी है और कुल कामकाजी महिलाओं में से लगभग 63 फीसदी खेती बाड़ी के काम में लगी हैं. 2011 के जनसंख्या के आंकड़ों के अनुसार, जब कैरियर बनाने का समय आता है, तब अधिकांश लड़कियों की शादी हो जाती है. भारत में महिलाओं की नौकरियां छोड़ने की दर बहुत अधिक है. यह पाया गया है कि एक बार किसी महिला ने नौकरी छोड़ी, तो ज्यादातर दोबारा नौकरी में नहीं लौटती हैं. यदि महिलाओं की अर्थव्यवस्था में भागीदारी बढ़ा दी जाए, तो न केवल सामाजिक, बल्कि अर्थव्यवस्था में भी भारी बदलाव लाया जा सकता है.

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