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पंचायती राज संस्थाओं की मजबूती

यदि लोकतंत्र को मजबूत करना है और शासन में सबकी भागीदारी सुनिश्चित करनी है, तो पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावी बनाना होगा.

पद्मश्री अशोक भगत, सचिव, विकास भारती, बिशुनपुर

vikasbharti1983@gmail.com

पंचायती राज व्यवस्था ग्रामीण भारत की स्थानीय स्वशासन प्रणाली है. स्वरूप चाहे जो हो, लेकिन मुगल काल को छोड़, हर युग में शासन की यह प्रणाली यहां जीवित रही है. वर्तमान भारतीय शासन प्रणाली में स्थानीय निकाय व शासन को महत्वपूर्ण आधार माना गया है. अथर्ववेद में राष्ट्र की व्याख्या है. जैन ग्रंथों में लोकतंत्र शब्द का उल्लेख मिलता है. वैदिक काल में स्थानीय स्वशासन वर्तमान की भांति नगरीय एवं ग्रामीण क्षेत्रों में विभाजित था. रामायण व महाभारत कालीन साहित्य में भी सभा, समिति तथा गांवों का उल्लेख है. मनुस्मृति के अनुसार गांव का अधिकारी ग्रामिक कहलाता था, जिसका कार्य कर-संचयन था.

मौर्य कालीन प्रामाणिक साहित्य में भी ग्राम स्वराज की चर्चा है. गुप्त काल में नगर के अधिकारी को नगरपति एवं ग्राम के अधिकारी को ग्रामिक कहा जाता था. राजपूत युग में भी प्रशासन की मूल इकाई ग्राम ही था. सल्तनत काल में शासन का स्वरूप भारतीय नहीं रहा. तब राजा के द्वारा नियुक्त सैन्य अधिकारी प्रशासन की जिम्मेदारी संभालने लगे. मुगलकालीन भारत में नगर प्रशासन की जिम्मेदारी के लिए नगर कोतवाल की नियुक्ति होती थी. कोतवाल मुस्लिम धार्मिक नेताओं से राय जरूर लेता था, लेकिन वह राजा के प्रति उत्तरदायी होता था, न कि प्रजा के प्रति.

भारत में आधुनिक स्थानीय स्वशासन का जनक ब्रिटिश अधिकारी लॉर्ड रिपन को माना जाता है. वर्ष 1882 में उन्होंने स्थानीय स्वशासन संबंधी प्रस्ताव दिया. साल 1919 के भारत शासन अधिनियम के तहत प्रांतों में दोहरे शासन की व्यवस्था की गयी तथा स्थानीय स्वशासन को हस्तांतरित विषयों की सूची में रखा गया. स्वतंत्रता के पश्चात 1957 में योजना आयोग (अब नीति आयोग) द्वारा सामुदायिक विकास कार्यक्रम (1952) और राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रम (1953) के अध्ययन के लिए ‘बलवंत राय मेहता समिति’ का गठन किया गया. इस समिति ने त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था-ग्राम स्तर, मध्यवर्ती स्तर एवं जिला स्तर पर लागू करने का सुझाव दिया.

इसकी सिफारिशों के अनुसार दो अक्तूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा देश की पहली त्रिस्तरीय पंचायत का उद्घाटन किया गया. वर्ष 1993 में 73वें व 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से भारत में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक अधिकार प्रदान किया गया. यह भारत में पंचायती राज व्यवस्था लागू करने के दिशा में एक बड़ा कदम था. इस संशोधन अधिनियम के द्वारा संविधान में एक नवीन भाग (भाग नौ) जोड़ा गया है, जो पंचायतों के विषय में है. यह अधिनियम प्रभावी ढंग से सभी मुद्दों को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है. इसमें विभाग की नियमावली एक महत्वपूर्ण कड़ी है.

हालांकि, पंचायती राज व्यवस्था को संविधान सम्मत अधिकार आज भी प्राप्त नहीं हो पाया है. इसके लिए दोषी कौन है, इस पर विद्वानों के अलग-अलग मत हैं, लेकिन इस मामले में कहीं न कहीं केंद्रीय शासन के आत्मबल की कमी परिलक्षित होती है. पंचायती संस्थाओं के अधिकारों का हस्तांतरण नहीं हो पाया है. केंद्र या राज्य सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी या कर्मचारी ही चयनित प्रतिनिधियों की शक्ति का प्रयोग करते हैं. विकास कार्यों में भी इन अधिकारियों का व्यापक हस्तक्षेप होता है. पंचायती राज संस्थाओं के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास अधिकारियों या कर्मचारियों पर नियंत्रण रखने की शक्ति का विधान होना चाहिए था, जो वर्तमान व्यवस्था में नहीं है.

दूसरी बात, चयनित प्रतिनिधियों के सतत प्रशिक्षण की भी व्यवस्था मुकम्मल तौर पर नहीं है. पंचायती राज लोकतंत्र की प्रत्यक्ष शासन प्रणाली का ही एक रूप है. इसके अंतर्गत ग्राम सभा में सभी बालिग ग्रामीण सदस्य होते हैं. सारे प्रस्तावों को ग्राम सभा से पारित कराना होता है लेकिन प्रशिक्षण एवं प्रचार के अभाव में ग्राम सभा की ताकत का प्रचार नहीं हो पाया है, जिसका फायदा शासन के द्वारा नियुक्त अधिकारी व कर्मचारी उठाते हैं. ग्राम सभा की आठ उप समितियां होती हैं- ग्राम विकास समिति, सार्वजनिक संपदा समिति, कृषि समिति, स्वास्थ्य समिति, ग्राम सुरक्षा समिति, आधारभूत संरचना समिति, शिक्षा व सामाजिक न्याय समिति तथा निगरानी समिति. लेकिन पंचायतों में इन समितियों का कोई महत्व नहीं होता है.

झारखंड जैसे आदिवासी बाहुल्य राज्यों में पंचायती राज के साथ एक और समस्या है. वर्ष 1996 में पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) विधेयक यानी पेसा कानून पास हो गया, लेकिन इसे लागू नहीं किया गया है. देश की कुल जनसंख्या का 10 प्रतिशत आदिवासी समुदाय है. पेसा कानून का मूल उद्देश्य यह था कि केंद्रीय कानून में जनजातियों की स्वायत्तता के बिंदु स्पष्ट कर दिये जाएं, जिनके उल्लंघन की शक्ति राज्यों के पास न हो. वर्तमान में 10 राज्यों (आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, झारखंड, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और राजस्थान) में यह अधिनियम लागू होता है, लेकिन इसे पूर्ण रूप से लागू ही नहीं किया गया है.

राज्य सरकारें अपने अधिकार में कोई हस्तक्षेप नहीं चाहती हैं. यही कारण है कि ऐसे कानून बनने के बाद भी पंचायत को शक्ति उपलब्ध नहीं हो पायी है. लोकतंत्र का अर्थ होता है शासन व सत्ता का विकेंद्रीकरण. पंचायती शासन प्रणाली उसका सबसे बढ़िया स्वरूप है. यदि लोकतंत्र को मजबूत करना है और शासन में सबकी भागीदारी सुनिश्चित करनी है, तो पंचायती राज व्यवस्था को प्रभावी बनाना होगा. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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