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‘एक देश-एक चुनाव’ देश की जरूरत

एक साथ चुनाव कराने का विचार कोई नया मोदी मंत्र नहीं है. संविधान निर्माताओं द्वारा स्थापित लोकतंत्र के आधार पर 1952 से 1967 तक चली आदर्श व्यवस्था को पुनः अपनाना मात्र है.

आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार

alokmehta7@hotmail.com

भारत का लोकतंत्र हमारे अपने घर से शुरू होता रहा है. युद्ध के निर्णय पर राम और लक्ष्मण की राय भिन्न होती थी. श्रीकृष्ण और बलराम के बीच भी विचारों की भिन्नता और कौरवों एवं पांडवों के प्रति कई बार अलग रुख देखने को मिलता है. आधुनिक युग में देखें, तो महात्मा गांधी के अनुयायियों में विभिन्न विचारों के लोग शामिल होते थे. मेरे अपने परिवार में एक सदस्य आर्य समाजी हैं, तो उनकी जीवन साथी पक्की मूर्तिपूजक हैं. एक कक्ष में यज्ञ के साथ मंत्रोच्चार, तो दूसरे कक्ष में सुंदर मूर्तियों के सामने पूरे मनोयोग से पूजा, भजन व कीर्तन. इन दिनों सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में यह देखकर तकलीफ होती है, जब सहमति या असहमति को घोर समर्थक अथवा विरोधी करार दिया जाता है.

कम से कम कुछ राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर परस्पर सौहार्दपूर्ण विचार-विमर्श के साथ दूरगामी हितों की दृष्टि से और भविष्य निर्माण के लिए संयुक्त रूप से निर्णय क्यों नहीं लिये जा रहे हैं! एक देश-एक चुनाव’ का मुद्दा भी इसी तरह का समझा जाना चाहिए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यदि इस विषय को उठाया है और इसे चर्चा के केंद्र में लाया है, तो इसे केवल उनकी पार्टी के एकछत्र राज और उसके अनंत काल तक सत्ता में बने रहनेवाला मुद्दा क्यों समझा जाना चाहिए? केवल तानाशाही अथवा कम्युनिस्ट व्यवस्था में ऐसा होना संभव है, लोकतांत्रिक प्रणाली में नहीं.

सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि एक साथ चुनाव कराने का विचार कोई नया मोदी मंत्र नहीं है. यह समझा जाना चाहिए. हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा स्थापित लोकतंत्र के आधार पर 1952 से 1967 तक चली आदर्श व्यवस्था को पुनः अपनाना मात्र है. ऐसा भी नहीं है कि देशभर में एक साथ चुनाव होने पर करोड़ों का खर्च बढ़ जायेगा अथवा क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर की पार्टी अथवा निर्दलीय उम्मीदवार नहीं जीत सकेंगे.

सत्तर वर्षों का हमारा इतिहास इस बात का गवाह है कि अरबपति उद्योगपति, राजा-महाराजा, प्रधानमंत्री तक चुनाव में पराजित हुए हैं और पंचायत स्तर तक जनता के बीच से चुनकर आये लोग मंत्री और प्रधानमंत्री भी रहे हैं. हां, यह जरूर है कि मंडी के बिचौलियों की तरह चुनावी धंधों से हर साल करोड़ों रुपया कमानेवाले एक बड़े वर्ग को ऐसी चुनाव प्रणाली से आर्थिक नुकसान होगा.

यही नहीं, निरंतर चुनाव होते रहने पर अपनी आवाज और समर्थन के बल पर पार्टियों में महत्व पानेवाले नेताओं को भी घाटा उठाना पड़ेगा और उन्हें किसी सदन में बतौर सदस्य रहकर ही अपनी धाक जमानी पड़ेगी. जहां तक चुनाव पर होनेवाले खर्च की बात है, तो एक साथ चुनाव कराने से केवल राजनीतिक दलों को ही नहीं, देश के लाखों मतदाताओं-करदाताओं का करोड़ों रुपया भी बच जायेगा. भारत के प्रतिष्ठित शोध संस्थान सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में करीब साठ हजार करोड़ रूपये खर्च हुए थे. जरा सोचिये, लोकसभा के पहले तीन चुनावों, यानी 1952, 1957 और 1962 में केवल दस करोड़ रूपये खर्च होते थे.

यह बहुत बड़ा अंतर है. नब्बे के दशक में उदार अर्थव्यवस्था के आने के बाद पार्टियों और उम्मीदवारों के पंख आकाश को छूनेवाले सोने, चांदी, हीरे व मोती से जड़े दिखने लगे. अदालतों और चुनाव आयोग ने उनके वैधानिक चुनावी खर्च की सीमा बढ़ाकर लोकसभा क्षेत्र के लिए सत्तर लाख और विधानसभा क्षेत्र के लिए अट्ठाइस लाख रूपये कर दी, लेकिन व्यावहारिक जानकारी रखनेवाले हर पक्ष को इस सच का पूरा पता है कि राजनीतिक दल और निजी हैसियत वाले नेता लोकसभा चुनाव में पांच से दस करोड़ रूपये खर्च करने में नहीं हिचकते. नियमों के मुताबिक कागजी खानापूर्ति के लिए उनके चार्टर्ड अकाउंटेंट सीमा के भीतर हिसाब बनाकर निर्वाचन आयोग में जमा कर देते हैं.

महाराष्ट्र के एक बहुत बड़े नेता ने तो सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार कर लिया था कि लोकसभा चुनाव में आठ करोड़ रुपये खर्च हो जाते हैं. पिछले चुनाव में तमिलनाडु के कुछ उम्मीदवारों ने लगभग तीस से पचास करोड़ रूपये तक बहा दिये थे. आंध्र प्रदेश में कुछ उम्मीदवारों ने हर मतदाता को दो-दो हजार रूपये बांटे थे. ऐसे खर्चों के अलावा, चुनाव की व्यवस्था करनेवाले आयोग को सरकारी खजाने से करीब बारह हजार करोड़ रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं. इस तरह विशेषज्ञों का आकलन है कि लोकसभा के एक निर्वाचन क्षेत्र पर औसतन एक सौ करोड़ रूपये खर्च हो जाते हैं. विधानसभा चुनावों में खर्च केवल अधिक सीटों की संख्या के अनुसार बंट जाता है. उसमें भी तुलनात्मक रूप से खर्च का स्तर वही होता है.

यह ठीक है कि लोकसभा के चुनाव सामान्यतः पांच साल में कराये जाते हैं, लेकिन राज्यों की विधानसभाओं में राजनीतिक अस्थिरता की वजह से पिछले दशकों में उनके चुनावी वर्ष अलग-अलग होने लगे. नतीजा यह हुआ है कि हर तीसरे-चौथे महीने किसी न किसी विधानसभा, स्थानीय नगर निगमों, नगरपालिकाओं या ग्राम पंचायतों के चुनाव होते रहते हैं. इस तरह देश और मीडिया में ऐसा लगता है कि मानो पूरे साल चुनावी माहौल बना हुआ है. इसके साथ ही चुनावों के दौरान सरकारों पर आचार संहिता लगने से विकास खर्चों पर अंकुश और विश्राम के दरवाजे लग जाते हैं. ऐसे में राजनीतिक लाभ भले ही किसी को हो, सबसे अधिक नुकसान तो सामान्य नागरिकों का ही होता है.

(ये लेखक के निजी विचार है)

Posted by: Pritish Sahay

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