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चुनावों के लिए सरकारी फंडिंग जरूरी

हमारे यहां चुनाव खर्च को लेकर राज्य वित्त पोषण का मामला पहले से विचारणीय रहा है. इस पर नये सिरे से ध्यान देने की जरूरत है. वित्त वर्ष 2004-05 और 2021-22 के बीच राजनीतिक दलों द्वारा 17,249 करोड़ रुपये अज्ञात स्रोतों से जुटाये गये.

साल 2009 के भारतीय आम चुनाव में राजनीतिक दलों ने दो अरब डॉलर खर्च िकये. यह आंकड़ा 2014 में पांच अरब और 2019 तक 8.6 अरब डॉलर तक पहुंच गया. भारत का पिछला आम चुनाव दुनिया का सबसे महंगा चुनाव था. यह अमेरिकी आंकड़े से भी आगे निकल गया, जहां 2016 के चुनाव में 6.5 अरब डॉलर खर्च हुए थे. सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के अनुसार, भारत में इस खर्च का 10-12 फीसदी हिस्सा मतदाताओं को सीधे नकद भुगतान के रूप में है.

हमारे यहां चुनाव खर्च को लेकर राज्य वित्त पोषण का मामला पहले से विचारणीय रहा है. इस पर नये सिरे से ध्यान देने की जरूरत है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के अनुसार, 2021-22 में राष्ट्रीय दलों की आय का 60 फीसदी अज्ञात स्रोतों से आया. यह राशि 2,172 करोड़ रुपये से अधिक है. वित्त वर्ष 2004-05 और 2021-22 के बीच राजनीतिक दलों द्वारा 17,249 करोड़ रुपये अज्ञात स्रोतों से जुटाये गये. इसमें दो राय नहीं है कि चुनिंदा सुधारों के बावजूद दशकों से देश में चुनावी खर्च में पारदर्शिता की कमी रही है.

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (1951) की धारा 29(सी) के मुताबिक, राजनीतिक दलों को 20 हजार रुपये से अधिक के किसी भी योगदान का दस्तावेज चुनाव आयोग से साझा करना होता है. साल 1968 में इंदिरा गांधी की पहल पर राजनीतिक दलों को कॉरपोरेट चंदे पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, जिसे 1985 में फिर वैध कर दिया गया. वर्ष 1979 तक राजनीतिक दलों को आय और संपत्ति करों से भी छूट हासिल थी, हालांकि वे वार्षिक रिटर्न दाखिल करते थे और दस हजार रुपये से अधिक के दान और उसके दाताओं की पहचान का खुलासा करते थे.

इस मामले में बाद के संशोधनों ने निगमों और राजनीतिक दलों की गोपनीयता को सामान्य नागरिकों के सूचना के अधिकार पर प्राथमिकता दी है. जाहिर तौर पर इससे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की हमारी क्षमता प्रभावित हुई है. राजनीतिक दलों को अब आयकर विभाग और चुनाव आयोग को वार्षिक आय-व्यय ब्यौरा देना तो जरूरी है, लेकिन वे स्रोतों का विस्तृत विवरण देने के लिए बाध्य नहीं हैं. उम्मीदवारों के लिए तो खर्च की सीमा तय है, लेकिन दलों के लिए यह असीमित है.

यह स्थिति राजनीतिक खर्च को लेकर कई संशयों को जन्म देती है. अमेरिका में चुनाव अभियान के खर्च के लिए दलों और उम्मीदवारों को वित्तीय मदद की परिभाषित सीमाएं हैं, जबकि चुनाव अभियान का खर्च ऐसी किसी सीमा से मुक्त है. निगमों और श्रमिक संघों को उम्मीदवारों को सीधे वित्तीय मदद देने की मनाही है. इटली में राजनीतिक दलों को कॉरपोरेट योगदान के लिए वार्षिक रिपोर्ट में इसके खुलासे के साथ बोर्ड की मंजूरी लेनी होती है. नीदरलैंड में लोगों और कंपनियों को सीमित दान और पार्टी सदस्यता राशि चुकाने में कर कटौती का प्रोत्साहनकारी प्रावधान है.

हमें चुनाव के दौरान उम्मीदवारों और दलों के लिए खर्च की स्पष्ट सीमा तय करने की जरूरत है और यह सीमा यथार्थवादी और प्रासंगिक होनी चाहिए. इसमें नियमित संशोधन भी होना चाहिए. चुनाव आयोग राजनीतिक दलों की रिपोर्ट (नाम सहित) के लिए जोर दे रहा है, डिजिटल लेन-देन की अनिवार्यता के साथ 2,000 रुपये से ऊपर के दान का स्वागत किया जाना चाहिए. ऐसे प्रावधानों से छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों के लिए खेल का मैदान न्यायपूर्ण हो जायेगा.

इस मामले में चुनावी बॉन्ड रामबाण साबित नहीं हुआ है. साल 2018 में इस योजना को वित्त अधिनियम (2017) के जरिये पेश किया गया था और इससे लोगों, संस्थाओं या कंपनियों द्वारा ब्याज मुक्त चुनावी बॉन्ड की खरीद का रास्ता खोला गया था. इसमें न तो क्रेता और न ही राजनीतिक दल को यह बताना जरूरी है कि दान किसे दिया गया है. बॉन्ड को धारा 29 (सी) से भी बाहर रखा गया है, जबकि कंपनियों को कुल लाभ के संबंध के बिना दान करने की इजाजत दी गयी है.

यह वैधानिक आवश्यकता भी हटा दी गयी है कि कंपनियां अपनी सालाना रिपोर्ट में उन दलों का जिक्र करें, जिन्हें उन्होंने दान दिया है. यह यकीनन अतिरिक्त शेल कंपनियों के निर्माण को प्रोत्साहित करेगा. यह विडंबना ही है कि एनजीओ चलाने वाले भारतीयों को विदेशी चंदे के लिए चक्कर लगाने पड़ते हैं, जबकि हमारे राजनीतिक दलों को कानूनन विदेशी चंदा प्राप्त करने की इजाजत है. विदेशी फंडिंग वाली पार्टी को अपनी राष्ट्रीय वफादारी के बारे में सार्वजनिक जांच का सामना करना चाहिए.

चुनाव के लिए सरकारी फंडिंग एक ऐसा विचार है, जिस पर गंभीरता से सोचने का समय आ गया है. यह पश्चिम में पहले से प्रचलित है. फ्रांस में दलों और उम्मीदवारों के लिए सार्वजनिक सब्सिडी 1988 में शुरू की गयी थी. साथ ही, वहां कॉरपोरेट दान पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. नीदरलैंड में सत्तर के दशक से सार्वजनिक सब्सिडी दी जाती रही है. स्वीडन में सार्वजनिक सब्सिडी 1965 से मौजूद है. भारत के संबंध में भी यह कोई नया विचार नहीं है.

वर्ष 1990 में दिनेश गोस्वामी समिति ने सिफारिश की कि स्वतंत्र समर्थकों द्वारा चुनावी खर्च को दंडित करते हुए और दलों को कॉरपोरेट चंदे पर प्रतिबंध लगाते हुए चुनिंदा खर्चों के लिए राज्य वित्त पोषण करे. साल 1993 में सीआईआई ने विशेष उपकर या उद्योगों द्वारा चुनाव निधि पूल में योगदान के जरिये चुनाव के लिए राज्य वित्त पोषण की सिफारिश की थी. वर्ष 1998 से आंशिक राज्य सब्सिडी दी भी गयी है. राज्य के स्वामित्व वाले टेलीविजन और रेडियो नेटवर्क पर समय का आवंटन ऐसी ही पहल है.

वर्ष 1998 में इंद्रजीत गुप्ता समिति ने सिफारिश की कि मान्यता प्राप्त दलों को मुफ्त एयर टाइम देने की अनिवार्यता को निजी चैनलों तक विस्तृत किया जाना चाहिए. निजी चंदे पर निर्भरता घटाने के लिए हमें चुनावों के लिए सरकारी फंडिंग की दिशा में बढ़ना चाहिए. साथ ही, पार्टी सदस्यता को बढ़ावा देने और राष्ट्रीय चुनाव कोष में दान को भी प्रोत्साहित करना चाहिए.

ऐसी पहल से देश में एक स्वस्थ राजनीतिक वातावरण पैदा होगा. इससे वैसे उम्मीदवारों को भी चुनाव मैदान में उतरने के लिए बढ़ावा मिलेगा, जो स्वच्छ राजनीति और नीति-निर्माण पर बहस को आगे बढ़ाने को लेकर गंभीर हैं. चुनावी बॉन्ड को चुनौती देने वाले दावों को संविधान पीठ को भेजने पर सर्वोच्च न्यायालय में विचार चल रहा है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि भारत में हर विधायक अपने करियर की शुरुआत झूठे रिटर्न फाइलिंग से करता है. लोकतंत्र की शुचिता के लिए ठोस व ईमानदार पहल समय की मांग है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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