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बड़े परिवर्तन के लिए रहें तैयार

कोरोना वायरस के संक्रमण के प्रसार की रोकथाम करने के उद्देश्य से भारत में मार्च के चौथे सप्ताह से चल रहा लॉकडाउन अभी तक की घोषणा के मुताबिक तीन मई को खत्म होगा. चार मई और उसके बाद आनेवाले दिनों में चीजें पहले जैसी नहीं रह जायेंगी

आकार पटेल

लेखक एवं स्तंभकार

aakar.patel@gmail.com

कोरोना वायरस के संक्रमण के प्रसार की रोकथाम करने के उद्देश्य से भारत में मार्च के चौथे सप्ताह से चल रहा लॉकडाउन अभी तक की घोषणा के मुताबिक तीन मई को खत्म होगा. चार मई और उसके बाद आनेवाले दिनों में चीजें पहले जैसी नहीं रह जायेंगी. आगामी जून महीने में स्कूलों को खोले जाने का प्रस्ताव है, लेकिन अभिभावक अपने बच्चों को नहीं भेजेंगे, क्योंकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि स्कूलों में आगे अब क्या होगा. हम ऐसे देश नहीं हैं, जहां आभासी कक्षाओं (वर्चुअल क्लासरूम) का चलन हो. यहां स्कूलों में साथ-साथ खेलने और मिलने-जुलने का चलन विशेष तौर पर स्कूली अनुभव में शामिल होता है.

डेनमार्क ने कुछ दिन पहले अपने स्कूल खोल दिये. वहां डेस्क पर बच्चों को छह फीट की दूरी पर बैठाया जा रहा है. ऐसा कर पाना भारत के अधिकतर स्कूलों में संभव ही नहीं है. यहां कक्षाओं में बैठने की समुचित व्यवस्था तक नहीं होती है. डैनिस बच्चों को खेलने से मना किया गया है, लेकिन बिना निगरानी के बच्चों को रोक पाना क्या संभव हो पायेगा? बच्चे तो बच्चे होते हैं, एक-दूसरे को देखकर उत्साहित होंगे और खेलने के लिए तत्पर होंगे. कितने अभिभावक अपने बच्चों के जीवन के साथ जोखिम मोल लेंगे? क्या इस बात की कोई गारंटी है कि स्कूल में बच्चे संक्रमित नहीं होंगे? मैं नहीं सोचता कि संख्या असंवेदनशील होगी. अगर कोई बच्चा संक्रमित हो जाता है, जिसकी पूरी आशंका है, तो क्या स्कूल स्थायी रूप से बंद हो जायेगा या अच्छा होने की उम्मीद में पूर्ववत चलता रहेगा? इन समस्याओं का कोई ठोस जवाब किसी के पास नहीं है. केवल हम यह कोशिश कर सकते हैं कि हमें क्या करना चाहिए और कैसे परिस्थितियां सामान्य हो सकें. डैनिस सरकार ने इस मामले में साहसपूर्ण फैसला किया है और आगे बढ़कर काम कर रही है.

लॉकडाउन हटाने के बाद जब लोग वापस लौटेंगे, तो कार्यस्थलों पर कामकाज का तरीका भी बदल जायेगा. आमतौर पर कंपनियों के मानव संसाधन विभागों को तीन मई के बाद उत्पन्न होनेवाले हालातों से निपटने का कोई अनुभव नहीं है. उदाहरण के तौर, क्या कर्मचारियों के काम पर जाने की व्यवस्था की जायेगी. कंपनी के ड्राइवर को इजाजत मिलेगी. अगर कर्मचारियों को लाते समय ड्राइवर संक्रमित हो जाता है, तो इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? ऐसे में कार्यस्थलों पर भी संरचनागत सुधार करते हुए बड़ा बदलाव करने की आवश्यकता होगी. हालांकि ज्यादातर कंपनियों के पास ऐसा कर पाने की क्षमता नहीं है. दशकों से प्रतिष्ठानों के कार्यालयों और सम्मेलन कक्षों को अधिकतम लोगों के शामिल होने के लिए तैयार किया गया है, न कि परस्पर होनेवाले संक्रमण से बचाव के लिए. कामगारों की सुरक्षा के मद्देनजर वे अपने काम को कैसे शुरू कर पायेंगे?

एक बार फिर ये कठिन सवाल हैं, जिसका कोई जवाब नहीं है, क्योंकि पहले किसी को इसका जवाब देने की जरूरत ही नहीं पड़ी थी. कार्यस्थलों और कार्यालयों में कोई एकरूपता जैसी स्थिति नहीं है, इसलिए प्रत्येक कंपनी और हर एक संस्थान अपने मुताबिक नियम और कायदे बनाते रहे हैं. इसमें से कई ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं है. वास्तविक विशेषज्ञता की जरूरत कानूनी दायित्व, सुरक्षा और बीमारियों की रोकथाम के क्षेत्र में है. मानव संसाधन विभाग के पास ऐसे मामलों में कोई अनुभव नहीं है और न ही किसी अन्य विभाग के पास है.

मशहूर लेखक सलमान रुश्दी ने एक बार कहा था कि भारत लोगों की भीड़ है. यहां तक कि अगर यह मजाक में कहा गया है, तो भी यह कहना एक हद तक सही है. बड़े स्तर पर भीड़-भाड़ हमारे जीवन का हिस्सा है, धार्मिक स्थानों से लेकर राजनीतिक रैलियों तक और यहां तक कि रोजाना के बाजार तक हर जगह भीड़ ही भीड़ है. इन सब के साथ चार मई के बाद क्या होगा, जब हम जैसा जीवन हम जी रहे हैं, उससे एक समाज के तौर पर अचानक हमें छूट दे दी जायेगी? ऐसे तमाम सवाल दिमाग में कौंधते हैं. और, तमाम तरह की आशंकाएं भी हैं. दुनिया के सबसे असंतुलित समाज में क्या यह बीमारी अधिक समानता या नुकसान की शुरुआत करेगी?

स्वाभाविक रूप से माना जाता है कि अमीरों की स्वास्थ्य सेवाओं तक बेहतर पहुंच होगी, लेकिन यह केवल माना ही जाता है. अब जो बदलाव हो सकता है कि गरीब मांग करेंगे कि उनकी बलि न दी जाये और उनके जीवन की भी रक्षा अमीरों की तरह ही की जाये. हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि गरीबों की परवाह किये बगैर देश ने लॉकडाउन को स्वीकार किया, जिससे लाखों की संख्या में लोग पैसे, काम के अभाव और यहां तक भूख से तड़पने के लिए असहाय छोड़ दिये गये.

लगातार इन लोगों की अपेक्षा करते रहना सरकार के लिए आसान नहीं होगा. इसका विरोध तो होगा ही और मेरा कहने का औचित्य है कि इससे शायद कुछ समानता आने की गुंजाइश भी बनेगी. बिना किसी कारगर इलाज के महामारी जितना बढ़ेगी, उतना ही लोगों पर, सिस्टम पर और राष्ट्र पर बदलाव को स्वीकार करने का दबाव बढ़ेगा. परिवर्तन के बारे में आखिरी बात यह है कि ये किस गति से हो रहा है.

इस पीढ़ी ने जो सबसे बड़ा विकासवादी परिवर्तन देखा है, वह शायद इंटरनेट और मोबाइल टेलीफोनी है, लेकिन परिवर्तन दो दशकों की अवधि में आया है. लेकिन यह नया परिवर्तन सभी मामलों में एक दिन में लागू किया जा रहा है, इसलिए यह बदलाव बहुत सख्त होगा और अधिक दृश्यमान होगा. हमारी सहिष्णुता की संस्कृति का स्तर शायद बदल जायेगा. जब कोई व्यक्ति विशेष दूसरों के जीवन को संकट में डालेगा, तो लोग व्यवहार में परिवर्तन के लिए मजबूर होंगे. यह वैसा नहीं है कि जैसे लोग सार्वजनिक स्थानों पर थूकते हैं या ट्रैफिक में दुर्व्यवहार करते हैं.

हममें से प्रत्येक की अब दूसरों के प्रति जिम्मेदारी है. यह सबसे बड़ा परिवर्तन है, जो हम पर लागू हो रहा है. यह उम्मीद की जा सकती है कि यह आपदा चार मई की सुबह से हमारी वास्तविकता को बदल दे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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