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नेपाल की राजनीतिक स्थिरता अनिश्चित

देउबा की नीतियां नरम और उदारवादी हैं तथा आम तौर पर वे भारत के पक्ष में हैं. हमारे लिहाज से यह अच्छी बात है कि परस्पर संवाद बना रहे.

नेपाल में कई वर्षों से राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति है, विशेष रूप से 2015 के संविधान के लागू होने के बाद से. उसके बाद हुए चुनाव में कुछ अन्य पार्टियों के समर्थन के साथ सबसे बड़ी पार्टी के मुखिया होने के नाते केपी ओली प्रधानमंत्री बने. बाद में प्रचंड की पार्टी के विलय के समय तय हुआ कि आधे कार्यकाल तक ओली और शेष अवधि में प्रचंड प्रधानमंत्री रहेंगे. लेकिन ओली का मन बदल गया और पार्टी में विवाद शुरू हो गया.

उस प्रकरण में चीन की सरकार और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी हस्तक्षेप कर कुछ समाधान निकालने की कोशिश की थी. उस समय यह भी सुनने में आ रहा था कि नेपाल में चीन की राजदूत होउ यानकी बड़ी सक्रिय रहती थीं. लेकिन ओली सत्ता छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे और वे संसद भंग कर नये चुनाव की कोशिश में लग गये.

बीते दिसंबर में उन्होंने यह कर भी दिया, पर नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी द्वारा संसद भंग करने के फैसले को पलट दिया. फिर बाद में उन्होंने दुबारा यही कवायद की, तो उसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में कई याचिकाएं दायर की गयीं, जिन पर निर्णय देते हुए अदालत ने नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा को प्रधानमंत्री बनाने का आदेश दिया.

अब देखना यह है कि नयी सरकार स्थिर रह पाती है या नहीं. नवंबर के पूर्व घोषित चुनाव तो अब नहीं होंगे, पर वे जब भी होंगे, उनके समीकरण के बारे में भी अनुमान लगाना आसान नहीं है. इस प्रकरण में मुख्य बात यह है कि कम्युनिस्ट खेमे में बिखराव हो चुका है. यह भी देखना होगा कि प्रचंड, माधव कुमार नेपाल और उपेंद्र यादव की पार्टियों और धड़ों का हिसाब-किताब देउबा सरकार से कैसा रहेगा.

तीस दिनों के भीतर नयी सरकार को बहुमत सिद्ध करना है. प्रचंड की पार्टी माओइस्ट सेंटर सरकार में शामिल हुई है और माना ज़ा रहा है कि उपेंद्र यादव की पार्टी जनता समाजवादी पार्टी भी बाद में सरकार का हिस्सा बनेगी. माधव कुमार नेपाल के खेमे का रुख भी कुछ दिनों में स्पष्ट हो जायेगा. ऐसे में इस सरकार के कुछ समय तक चलने की संभावना है.

मेरा मानना है कि नेपाल के राजनीतिक समीकरण में बदलाव का वहां के निवेश पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा. भारत की ओर से देखें, तो भारत ने ओली सरकार से भी अच्छे संबंध बनाये रखने की लगातार कोशिश की थी. हाल ही में फ्रेट कोरिडोर शुरू हुआ है, जिसके जरिये कंटेनर सीधे नेपाल पहुंचाएं जा सकते है. इसके अलावा भी ओली सरकार के समय में भारत ने अनेक परियोजनाओं का सूत्रपात किया है.

आगे भी भारतीय निवेश का सिलसिला जारी रहेगा, भले ही राजनीतिक तौर पर कुछ-कुछ बयानबाजी होती रहेगी. जिन कम्युनिस्ट धड़ों का समर्थन देउबा सरकार का होगा, वे यह नहीं चाहेंगे कि चीनी निवेश पर किसी तरह की कोई आंच आये. लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि चीन की हस्तक्षेप करनेवाली भूमिका कुछ कम जरूर हो जायेगी. हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि चीन ने कई बरसों में नेपाल में जमीनी स्तर पर अपनी व्यापक उपस्थिति बना ली है. यह आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, सैन्य सहयोग आदि सभी स्तरों पर है.

शेर बहादुर देउबा की नीतियां नरम और उदारवादी हैं तथा आम तौर पर वे भारत के पक्ष में हैं. पिछले दिनों भारत, नेपाल और चीन की साझी सीमा पर जो विवाद हुए थे, उस संबंध में देउबा की राय थी कि भारत के साथ बातचीत के जरिये विवादों का समाधान किया जाना चाहिए. हमारे लिहाज से यह अच्छी बात है कि दोनों देशों के बीच संवाद बना रहे. दूसरी ओर आप देखें कि ओली कहने को तो कम्युनिस्ट हैं, लेकिन क्या क्या बयान देते रहते थे- योग का प्रारंभ नेपाल में हुआ, भगवान राम नेपाल के थे आदि आदि.

उन अनावश्यक विवादों का कोई अर्थ नहीं था. नेपाल के लिए भारत बहुत महत्वपूर्ण है और भारत के लिए नेपाल भी रणनीतिक महत्व रखता है. ये बातें किसी तीसरे पक्ष की वजह से नकार दी जाती हैं, पर सच यही है कि सामरिक व सुरक्षा की दृष्टि से नेपाल का बड़ा महत्व है. भारत सरकार ने कूटनीतिक स्तर पर नेपाल से संबंधों को बेहतर बनाने की हमेशा कोशिश की है. ऐसा केवल नेपाल के साथ ही नहीं, बल्कि अन्य पड़ोसी देशों के साथ भी हमारा रवैया रहा है. भारत की ‘पड़ोसी पहले’ की जो नीति है, वह किसी अपेक्षा से संबद्ध नहीं है.

चाहे हम आर्थिक सहयोग देते हों, अनुदान देते हों, क्षमता बढ़ाने में मददगार होते हों, ईंधन आपूर्ति हो, ट्रांजिट की सुविधा हो, जो भी सहयोग हो, भारत उनके एवज में किसी चीज की अपेक्षा नहीं करता, जैसा कि परस्पर सहयोग के मामलों में आम तौर पर होता है. यह सही तरीका भी है क्योंकि हमारे पास विकल्प भी नहीं हैं. लेकिन ऐसे सहयोगों के बदले हमारी यह अपेक्षा अवश्य रहती है कि हमारे पड़ोसी देशों की धरती से ऐसी कोई कार्रवाई न हो, जो हमारी संप्रभुता तथा एकता एवं अखंडता के लिए नुकसानदेह हो.

हमारी केवल यही अपेक्षा है. लेकिन हमारे पड़ोसी भी चतुर हैं. वे चीन और भारत के भू-राजनीतिक हिसाब-किताब के अनुसार यह देखते हैं कि इसमें उनका क्या लाभ हो सकता है. उनके हितों के लिहाज से ऐसा करना सही हो सकता है, लेकिन यह एक जटिल खेल है और उनकी घरेलू राजनीति भी इससे प्रभावित होती है.

जहां तक भारत और नेपाल के आर्थिक संबंधों की बात है, तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जिन परियोजनाओं का हम वादा करें, उन्हें समय पर पूरा किया जाना चाहिए. यह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि परियोजनाओं की घोषणा करना. समय पर वादों को नहीं पूरा करने का विपरीत असर होने लगता है. दूसरा देश यानी चीन को जो कुछ करना होता है, उसे वह जल्दी-जल्दी पूरा कर देता है.

इन मामलों की तुलना कर राजनेता जनता के बीच अपने हिसाब से बातें प्रचारित कर देते हैं. इससे जमीनी स्तर पर हमें खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. लेकिन भारत के सकारात्मक प्रयास निरंतर चलते रहते हैं. इनके असर को लेकर हमें आशावादी रहना चाहिए. हालिया फ्रेट कोरिडोर और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के साथ अयोध्या-सीतामढ़ी-जनकपुर मार्ग विकसित करने की योजना भी है. नेपाल समेत हमारे पड़ोसी देशों के किसी भी संकट में भारत सबसे पहले मदद के लिए पहुंचनेवाला देश है. संबंध कुछ दिन में नहीं बनते, उनकी बेहतरी के लिए लगातार उन्हें सींचना होता है.

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