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सपा में बढ़तीं अखिलेश की मुश्किलें

सपा पर अखिलेश यादव का नियंत्रण कायम है, लेकिन शिवपाल यादव के विद्रोही तेवरों ने उनके लिए मुश्किलें तो पैदा कर ही दी हैं.

उत्तर प्रदेश की राजनीति में पूरी तरह छायी भाजपा के लिए एकमात्र बड़ी चुनौती बनी समाजवादी पार्टी शक्तिशाली विपक्ष की भूमिका में आने से पहले ही अपने आंतरिक कलह में घिर गयी है. शुरू में जिसे ‘चाचा शिवपाल’ की पुरानी नाराजगी का उभरना माना जा रहा था, वह अब पार्टी का बड़ा संकट बन रहा है.

यहां तक कि बूढ़े और बीमार ‘नेताजी’ यानी मुलायम सिंह यादव को सार्वजनिक मंच पर आकर पार्टी नेताओं एवं कार्यकर्ताओं से अपील करनी पड़ी है कि अखिलेश ही पार्टी का भविष्य हैं और आप सब उनके हाथ मजबूत करें. सहयोगी दल सुहेलदेव राजभर समाज पार्टी के नेता ओमप्रकाश राजभर भी मध्यस्थता में लगे हैं.

सपा को बीते चुनावों में भाजपा से सत्ता छीन लेने की उम्मीद हो गयी थी. इसका आधार भी था. योगी सरकार के खिलाफ कई बड़े मुद्दे थे और अखिलेश यादव की रैलियों-सभाओं में प्रधानमंत्री मोदी की सभाओं से अधिक भीड़ जुट रही थी, किंतु नतीजे उलटे साबित हुए. यह अवश्य हुआ कि सपा के विधायकों की संख्या और वोट प्रतिशत में भारी वृद्धि हुई.

जनता ने जहां भाजपा को दोबारा सत्ता सौंपी, वहीं सपा को मजबूत विरोधी दल के रूप में विधानसभा भेजा. साल 2017 में 47 सीटें और 21.82 प्रतिशत वोट पानेवाली सपा को इस बार 111 सीटें और 32.06 प्रतिशत वोट मिले. यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी. निराशा के बावजूद अखिलेश यादव ने इस अवसर को पहचाना, इसीलिए उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा देकर राज्य में विरोधी दल का नेतृत्व संभालना तय किया. वे स्वयं विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता बने, ताकि 2024 के आम चुनाव के लिए अपनी जमीन तैयार कर सकें.

सपा के आंतरिक कलह और अखिलेश के नये संकट की शुरुआत भी यहीं से हुई. शिवपाल चुनाव से पहले भतीजे से झगड़ा भुला कर साथ आ गये थे. उन्होंने अपनी ‘प्रगतिशील समाजवादी पार्टी’ का सपा में विलय तो नहीं किया, लेकिन अखिलेश को अपना नेता मान कर गठबंधन किया था. एकता का संदेश जनता तक पहुंचाने के लिए स्वयं शिवपाल यादव सपा के चुनाव चिह्न साइकिल पर चुनाव लड़े.

चुनाव नतीजों के बाद शिवपाल को आशा थी कि अखिलेश उन्हें विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद पर बैठा कर उनका सम्मान करेंगे और स्वयं लोकसभा की सीट बरकरार रखेंगे. अखिलेश ने जो किया, उससे शिवपाल को झटका लगा और उन्होंने फिर विद्रोही तेवर अपना लिया. पहले तो उन्होंने यह प्रचारित किया कि सपा ने उन्हें विधायक दल की बैठक में नहीं बुलाया. फिर वे सपा के सहयोगी दलों के विधायकों की बैठक में भी नहीं गये.

इसके बाद भी अखिलेश शांत रहे, तो शिवपाल ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भेंट कर सनसनी फैला दी. इन दिनों वे तरह-तरह से भाजपा के करीब होने और दिखाने का प्रयास कर रहे हैं. यहां तक चर्चाएं हैं कि शिवपाल भाजपा में जा सकते हैं और भाजपा उन्हें विधानसभा में उपाध्यक्ष या ऐसा कोई पद दे सकती है.

हालांकि सपा पर अब पूरी तरह अखिलेश यादव का नियंत्रण कायम है और शिवपाल पहले ही किनारे हो चुके थे, लेकिन उनके विद्रोही तेवरों ने अखिलेश के लिए मुश्किलें तो पैदा कर ही दी हैं. सपा में आज भी एक बड़ा वर्ग है, जो मानता है कि सपा को खड़ा करने और मजबूत पार्टी बनाने में शिवपाल यादव की बड़ी भूमिका है. वे मुलायम के साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़े, जबकि अखिलेश यादव को बनी-बनायी पार्टी मिली. अखिलेश की आम कार्यकर्ताओं से वैसी मेल-मुलाकात भी नहीं होती, जैसी मुलायम या शिवपाल से होती थी.

शिवपाल वाला मुद्दा चल ही रहा था कि समाजवादी पार्टी के मुस्लिम नेताओं की नाराजगी, बल्कि गुस्सा कहना चाहिए, सामने आने लगी. सबसे पहले सपा के बड़े मुस्लिम नेता आजम खान के खेमे से नाराजगी के स्वर फूटे. फिर शफीक-उर-रहमान जैसे पुराने बड़े नेता और सपा सांसद का पार्टी विरोधी बयान आया.

फिर तो पार्टी में कई स्वर उठने लगे. कहा गया कि सपा नेतृत्व मुसलमानों की उपेक्षा पर उतर आया है, जबकि हालिया चुनावों में मुसलमानों ने एकजुट होकर सपा को वोट दिया. आजम खान की नाराजगी के कारण शिवपाल की नाराजगी से मिलते-जुलते हैं और उससे बड़े भी हैं. वे सपा के सबसे बड़े मुस्लिम नेता हैं और मुलायम के बाद उनका नाम लिया जाता था.

करीब दो साल से वे विभिन्न मामलों में जेल में हैं. आजम खान ने विधानसभा चुनाव में जीत के बाद अपनी लोकसभा सीट छोड़ दी. उन्हें भी उम्मीद थी कि अखिलेश उन्हें नेता विरोधी दल बनवा देंगे. इससे उनकी कानूनी मुश्किलें भी कम हो सकती थीं. यह तो नहीं हुआ, उलटे अखिलेश जेल में उनसे मिलने भी दो साल में सिर्फ एक बार गये, आजम के पक्ष में अखिलेश का कोई बयान भी चुनाव के बाद नहीं आया.

सपा के कई मुस्लिम नेता योगी सरकार के निशाने पर हैं. बरेली से सपा विधायक शहजुल इस्लाम के पेट्रोल पंप पर योगी सरकार का बुलडोजर चल गया. कैराना के विधायक नाहिद हसन की चावल मिल पर ताला लटका दिया गया. मुस्लिम समाज योगी सरकार के इन कदमों को व्यापक मुस्लिम विरोधी कार्रवाई के रूप में देख रहा है.

अखिलेश इन मामलों में बिल्कुल मौन हैं. कहा जा रहा है कि वे ‘मुस्लिम पार्टी’ वाली सपा की छवि बदलने में लगे हैं, ताकि व्यापक हिंदू समाज की नाराजगी कम हो. इससे मुस्लिम नेताओं में नाराजगी बढ़ रही है. इसका असर हाल के विधान परिषद चुनाव के नतीजों में साफ देखा गया. स्थानीय निकाय क्षेत्र की 36 में से 33 सीटें भाजपा ने और बाकी निर्दलीयों ने जीतीं. सभी सपा प्रत्याशियों को बहुत कम वोट मिले और वे बुरी तरह हारे. उदाहरण के लिए, मुस्लिम बहुल रामपुर-बरेली सीट पर सपा प्रत्याशी को मात्र 400 वोट मिले.

विधानसभा चुनाव में बढ़िया प्रदर्शन के एक मास बाद ही सपा का यह हाल चौंकाता है. यह अवश्य है कि ये चुनाव सत्ता के दम-खम पर और खरीद-फरोख्त से जीते जाते हैं. सपा ने भी सत्ता में रहते बड़ी संख्या में ये सीटें जीती थीं. तो भी, इस बार एक भी सीट न जीतना सपा में विभिन्न गुटों की बढ़ती नाराजगी का भी उदाहरण है.

विधानसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य भाजपा बनाम सपा ही रह गया है. बसपा बिल्कुल किनारे हो गयी है और कांग्रेस तो दशकों से हाशिये पर है. भाजपा को अब एकमात्र चुनौती सपा से ही है, इसीलिए अखिलेश यादव प्रदेश में डटे हैं, लेकिन उन्हें भाजपा के खिलाफ मोर्चाबंदी करने से पहले भीतरी मोर्चे फतह करने होंगे.

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