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हर तरफ छाया है ‘आप’ का नशा

।। मलंग।। (लेखक टिप्पणीकार हैं) जब से ‘आप’ का उदय हुआ है, तमाम टीवी चैनलों पर उसी का कब्जा है. कुछ लोग क्रांति का प्रचार करते-करते खुद इस पार्टी में शामिल हो गये, तो वहीं अनेक अन्य लोग भी लाइन में लगे हैं. आशुतोष ने एक भावुक लेख लिखा था कि कैसे उन्होंने घर में […]

।। मलंग।।

(लेखक टिप्पणीकार हैं)

जब से ‘आप’ का उदय हुआ है, तमाम टीवी चैनलों पर उसी का कब्जा है. कुछ लोग क्रांति का प्रचार करते-करते खुद इस पार्टी में शामिल हो गये, तो वहीं अनेक अन्य लोग भी लाइन में लगे हैं. आशुतोष ने एक भावुक लेख लिखा था कि कैसे उन्होंने घर में चर्चा की. फिर निर्णय लिया गया कि घर पत्नी की छोटी-मोटी नौकरी से चल जायेगा और फिर उन्होंने बड़ी नौकरी को लात मार कर अरविंद जी की जलायी मशाल को पकड़ने का फैसला कर लिया. तमाम लोग जिनकी पत्नियां छोटी-मोटी नौकरियां नहीं कर रही हैं, मन मसोस कर रह गये. हां, तमाम ऐसे लोग जिनकी दाल-रोटी उनकी संस्थाएं चलाती हैं और इस काम के लिए प्रोजेक्ट रिपोर्ट में हेर-फेर भी नहीं करनी पड़ती, ‘आप’ की तरफ टूट पड़े हैं. इसके अलावा टीवी देखने- वाला एक बड़ा वर्ग भी अब ‘आप’ के समर्थन में है. हालांकि दिल्ली को छोड़ जाने से तमाम लोगों को शंका भी है कि जब एक राज्य कुछ दिन नहीं चला पाये, तो देश कैसे चलायेंगे. फिर भी उम्मीदों पर दुनिया कायम है इसलिए लोग उम्मीद लगाये हैं. आम जनता का भी बड़ा वर्ग ‘आप’ का शुभचिंतक है, इस बात से इनकार शायद ही कोई करे, लेकिन वोट कितना पड़ेगा पक्ष में यह देखने की बात होगी. ‘आप’ के पैदा होते ही कयास लगाये जाते थे कि इसको किसने पैदा किया है. कुछ कहते कि भाजपा की देन है, तो कुछ कहते कि कांग्रेस ने उकसाया है. लेकिन हकीकत है कि दोनों के नकारेपन और नापाक गंठजोड़ से इसे पैदा होना पड़ा.

‘आप’ को न्यू मीडिया का बेहतर इस्तेमाल करना और टीवी कैमरों को अपनी तरफ मोड़ना आता है. बीच- बीच में राहुल गांधी के जन संवाद या नरेन्द्र मोदी की रैलियों के समय टीवी का फोकस ‘आप’ से हट जाता है, क्योंकि मीडिया घरानों की मार्केटिंग टीम का दबाव होता है. लेकिन रैली के बाद फिर ‘आप’ ही ‘आप’. भले ही कांग्रेस ‘कट्टर सोच नहीं, युवा जोश’ का नारा दे रही है, लेकिन वो एक बुढ़ापे में पहुंच रही पार्टी है. सब वही घिसे-पिटे फार्मूले जो कहीं से भी जोश जगाते नहीं दिखते. भाजपा तो समय से पहले ही चुनाव को लेकर दौड़ने लगी थी और बिगुल बज जाने पर हांफती दिख रही है. देसज में कहें तो पार्टी की हंफनी छूट रही है. हालांकि पार्टी ने खंडन कर दिया है कि आडवाणी ने कभी ‘वन मैन पार्टी’ वाली बात नहीं कही, पर जो है वो तो दिख ही रहा है.

भ्रष्टाचारमुक्त भारत के लिए संकल्प लेने की बात करनेवाले राहुल जी के मंच पर अशोक चह्वाण और कोयला घोटाले के आरोपी सांसद दिख रहे हैं. दागियों को बचानेवाले जिस अध्यादेश को राहुल जी ने फाड़ा था, जिसके चलते लालू जी की सदस्यता गयी, अब उनके दल का कांग्रेस से मिलाप हो चुका है. भाजपा के मंचों पर येदियुरप्पा की वापसी हो गयी है और ए राजा व कनिमोझी के गुरु/बाप करुणानिधि एकाएक मोदी को अपना प्रिय मित्र बताने लगे हैं. शीला जी को केरल का राज्यपाल बना कर उनका पुनर्वास कर दिया गया. दक्खिन के लेफ्ट वाले भी इसके विरोध में कुछ बोले हों, ऐसी कोई खबर नहीं है. लगता है कि अरविंद जी को भी लग चुका है कि पब्लिक यह सब समझ चुकी है इसलिए बात-बात पर धरना देने के बजाय वो अब दिल्ली से बाहर रियलटी चेक करने पहुंच रहे हैं, ताकि टीवी कैमरों का फोकस बना रहे.

केजरीवाल ने दिल्ली छोड़ कर पहली रैली हरियाणा में की, वहां उनको संभावनाएं दिख रही हैं. यूपी भी आये और कभी ‘कौन है ये अरविंद केजरीवाल’ कहनेवाले युवा सीएम ने पूरा ध्यान रखा कि कहीं कोई दिक्कत न हो. सदी के महानायक हमेशा कहते हैं कि कुछ दिन तो बिताओ गुजरात में. पता नहीं, उनकी पत्नी जिस पार्टी में हैं उससे जुड़े लोग जाते हैं कि नहीं, लेकिन अरविंद ने फैसला कर लिया जाने का. गुवाहाटी से लेकर चेन्नई तक हर जगह मोदी ने भी गुजरात की गाथाएं सुनायीं, आम आदमी भी जानना चाहता था कि आखिर कैसा है गुजरात.

दिल्ली में जब मंत्री जी रात में कहीं छापा मरने जाते थे या दौरे पर निकलते थे तो टीवी वाले साथ रहते थे. ऐसे में खुद ‘सर जी’ दुनिया के सबसे चर्चित इलाके में जा रहे हों, जहां के कामों के दम पर मोदी जी दिल्ली पर धावा बोलने जा रहे हैं, तो टीवी कैमरे साथ न हों ऐसा कैसे हो सकता है. गुजरात में इनका दोष नहीं था, इन्हें क्या मालूम कि बीच रास्ते में रहेंगे तभी आचार संहिता लागू हो जायेगी. अचानक साथ चल रही गाड़ियों को कहां भेजते भाई? चैनलों पर छा जाने का मसाला मिल गया, जब पुलिस ने इनको थाने घुमवा दिया. अब तुरंत दिल्ली की मीडिया ने फ्लैश किया कि केजरीवाल हिरासत में. मजे की बात देखिए कि जो काम कांग्रेस को करना चाहिए था वही काम करने केजरीवाल पहुंचे थे, यानी कांग्रेस की जमीन जो भी बची थी उस पर अपनी फसल काटने पहुंच गये. लेकिन कांग्रेस सबसे पहले ‘आप’ के बचाव में आ गयी. पहले से ही हांफ रही भाजपा में अभी कुछ सुगबुगाहट हो, इसके पहले ही ‘आप’ की दिल्ली इकाई ने भाजपा के दफ्तर पर धावा बोल दिया. जाहिर है, टीवी का सही इस्तेमाल करना इस पार्टी को बखूबी आता है.

आखिर सूचना तकनीक का बेहतर इस्तेमाल ये ही करते हैं, एकाएक फ्लैश माब जुट गयी और क्रांति शुरू हो गयी. पुराने पत्रकार और एक प्रोफेसर साहब को भी नहीं पता था कि अब आचार संहिता लागू हो चुकी है और किसी भी प्रदर्शन के लिए अनुमति लेनी पड़ेगी. पहुंच गये साहब. साथ में गांधी जी के असली वंशज भी रहे. अब अरविंद जी ने प्रमाणपत्र दे ही दिया है कि उनके कार्यकर्ता शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे थे, तो इस बात को मानना ही पड़ेगा. लेकिन बुद्धि भाजपाइयों की भी घास चरने गयी थी. वे ‘आप’ के खेल में फंस गये. उस समय तो नियमित प्रेस ब्रीफिंग के बाद चाय-नाश्ता कर रहे कुछ पत्रकार भी अंदर रहे होंगे, सबने खेल देखा और फंसती चली गयी भाजपा खेल में.

इसी समय लखनऊ में भी कुछ आपियों के भीतर जोश आ गया और वो वहां पहुंच गए भाजपा ऑफिस जहां दोनों पार्टियों ने लट्ठमार होली खेली और पुलिस आनंद लेती रही. पूरा जोश निकाला ‘आप’ और भाजपा के जवानों ने, लेकिन अफसोस कि अब लोकसभा टिकट शायद बंट चुके हैं, वरना ये वीर भी दावेदारी करते. उधर दिल्ली में भिड़ंत को काबू में करने के लिए पुलिस को पानी की बौछार करनी पड़ी. अब आशुतोष जी ने कह दिया है कि दिल्ली पुलिस मोदी से मिली हुई है, जबकि यही जवान केजरीवाल जी की रात भर रखवाली करते रहे थे, जब वो उनमें से ही किन्हीं को हटाने के लिए फुटपाथ पर सो गये थे. जो भी हो, एक बार फिर से देश भर के लोग टीवी पर इसी ड्रामे को देखने के लिए मजबूर हैं.

न जाने कब और खबरें आयेंगी, क्योंकि देश में तमाम दल हैं और रोज कहीं न कहीं कुछ हो ही रहा है, पर खबर बनती ही उसकी है जिसे खबरों से खेलने आता है. खबर बनाने का कौशल जितना इस नयी पार्टी में है उससे बहुत दूर हैं ये परंपरागत राजनीति करनेवाले. इसीलिए कहीं ‘आप’ के दावं पर भाजपा खिलखिलाती है, तो कहीं लगता है कि ‘आप’ की किसी हरकत से कांग्रेस झूम जाती है. पता नहीं कब तक समङोंगे ये दोनों, क्योंकि सरकार तो इन्हीं को बनानी है. अरविंद फिर कह चुके हैं कि न समर्थन लेंगे और न देंगे. (गपागप.कॉम से साभार)

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