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अब राष्ट्रपति-चुनाव की रस्साकशी
प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के कारण नरेंद्र मोदी और भाजपा की बढ़ी हुई ताकत का पहला संकेत इस साल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में दिखायी पड़ेगा. अगले साल राज्यसभा के चुनाव से स्थितियों में और बड़ा गुणात्मक बदलाव आयेगा. इस साल 25 जुलाई को प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल समाप्त […]
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के कारण नरेंद्र मोदी और भाजपा की बढ़ी हुई ताकत का पहला संकेत इस साल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में दिखायी पड़ेगा. अगले साल राज्यसभा के चुनाव से स्थितियों में और बड़ा गुणात्मक बदलाव आयेगा. इस साल 25 जुलाई को प्रणब मुखर्जी का कार्यकाल समाप्त हो रहा है. राष्ट्रपति चुनाव की रस्साकशी कई मानों में रोचक और निर्णायक होगी. नरेंद्र मोदी की ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की परिकल्पना बहुत स्पष्ट नहीं है. संगठन के रूप में कांग्रेस को खत्म करने का सपना फूहड़ है. यदि उनका आशय प्रवृत्तियों से है, तो तमाम ‘कांग्रेसी प्रवृत्तियां’ अब बीजेपी में दिखेंगी, बल्कि दिख रही हैं. राजनीतिक प्रभुत्व में बीजेपी सफल है. राज्यसभा पर वर्चस्व स्थापित होने और राष्ट्रपति पद पर अपनी मर्जी के प्रत्याशी को जिताने का मतलब यही है.
लोकसभा में कांग्रेस 1977, 1989 और 1996 के बाद से कई बार अल्पमत रही है. पर, राज्यसभा में उसका वर्चस्व हमेशा रहा है. यानी राज्यों में उसकी उपस्थिति थी. अब पहली बार ऐसा मौका आया है, जब राज्य विधानसभाओं में कांग्रेस का संख्याबल भाजपा का करीब आधा रह गया है, जो राज्यसभा में नजर आने लगा है. राष्ट्रपति-चुनाव का एक गणित है, जिसमें वोटों का कुल मूल्य 11 लाख से कुछ कम है. अनुमान है कि बीजेपी के पांच लाख के आसपास वोटों का इंतजाम हो गया है. बीजेपी के शासन में इसके पहले साल 2002 में राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए थे. तब एनडीए के पास लोकसभा के बहुमत के बावजूद विधानसभाओं में कांग्रेसी उपस्थिति के कारण कुल जमा बहुमत नहीं था. तब वाजपेयी सरकार ने चतुराई से एपीजे अब्दुल कलाम के नाम को आगे बढ़ाया, जिस पर कांग्रेस ने सहमति दे दी. टकराव नहीं हुआ.
मोदी सरकार क्या कांग्रेसी सहमति से राष्ट्रपति पद का चुनाव करायेगी? नहीं. तब के मुकाबले आज भाजपा बेहतर स्थिति में है, हल्की सी कसर बाकी है, उसके लिए पार्टी सहयोगी तलाश लेगी. विधानसभाओं में पहली बार भाजपा का संख्याबल कांग्रेस पर भारी है. हाल में हुए पांच राज्यों के चुनावों के ठीक पहले देश में कुल 4120 विधायकों में से भाजपा के 1096 विधायक थे. अब उनकी संख्या 1400 से ऊपर हो गयी है. साथ ही उसके सहयोगी दलों के विधायकों की संख्या 20 से ऊपर बढ़ी है.
इन चुनावों के पहले कांग्रेसी विधायकों की संख्या 819 थी, जो अब 800 से कम है. पांच राज्यों में कुल 690 सीटों का चुनाव हुआ. इनमें से 167 सीटें कांग्रेस के पास और 100 सीटें बीजेपी के पास थीं. इस चुनाव में 405 सीटें भाजपा को मिलीं और करीब 30 सीटें उसके सहयोगियों को, जबकि कांग्रेस को 140 सीटें ही मिली हैं.
राष्ट्रपति का चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के आधार पर एकल हस्तांतरणीय मत द्वारा होता है. इसकी एक गणना पद्धति है, जो 1974 से चल रही है और 2026 तक लागू रहेगी. एक सांसद के वोट का मूल्य 708 है. विधायकों के वोट का मूल्य अलग-अलग राज्यों की जनसंख्या पर निर्भर है. सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य यूपी के एक विधायक के वोट का मूल्य 208 है, तो सबसे कम सिक्किम के वोट का मूल्य मात्र 7 है.
उत्तर प्रदेश में विधायकों की संख्या भी सबसे बड़ी है, इसलिए वहां के कुल वोट भी सबसे ज्यादा हैं. देशभर के 4120 विधायकों के कुल वोट का मूल्य है 5,49,474. साल 2012 के चुनाव में सांसदों की संख्या थी 776. इन सांसदों के वोटों का कुल मूल्य था- 5,49,408. इस प्रकार राष्ट्रपति चुनाव में कुल वोट थे- 10,98,882. हाल में एक विश्लेषक ने गणना की है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के पहले बीजेपी बहुमत से 1,70,146 वोट दूर थी. उसके सहयोगियों के वोटों को भी जोड़ लें, तो 75,106 वोट की जरूरत उसे फिर भी थी.
जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, वहां के कुल वोट थे 1,03,756. उत्तर प्रदेश से 83,824, पंजाब से 13,572, उत्तराखंड से 4,480, मणिपुर से 1,090 और गोवा से 800. चुनाव से पहले यूपी में भाजपा के पास 3,824 वोट थे और चुनाव में उसके वोटों में असाधारण रूप से 60 हजार से ज्यादा का इजाफा हुआ है. अब उसके पास 64,886 वोट हैं. इनके अलावा करीब साढ़े तीन हजार वोट उसके सहयोगी दलों के पास हैं.
पहला मौका है, जब विधानसभाओं में कांग्रेस बेहद कमजोर स्थिति में है. साल 2002 के राष्ट्रपति चुनाव के वक्त संसद में एनडीए के मुकाबले कांग्रेस कमजोर थी, पर विधानसभाओं में उससे बेहतर थी. अब क्या होगा? कांग्रेस और भाजपा के बीच कड़वाहट पराकाष्ठा पर है. साल 2019 के चुनाव में गैर-भाजपा विपक्ष के एक होने की बात कही जा रही है. क्या इसकी शुरुआत राष्ट्रपति चुनाव से संभव है? फिलहाल लगता नहीं कि विपक्ष अपने प्रत्याशी को जिताने की स्थिति में है. अलबत्ता कांग्रेसके साथ मिल कर कुछ दल एक प्रत्याशी को खड़ा करने में कामयाब हो सकें, तो एक बड़ी सफलता होगी. शायद ऐसी कोशिश होगी.
अचानक कई नाम चर्चा में हैं. अजीम प्रेमजी, एन नारायण मूर्ति और रतन टाटा का नाम भी लिया गया है. बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के अलावा दो केंद्रीय मंत्रियों अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के नाम भी लिए जा रहे हैं. राजनीतिक कारणों से मुलायम सिंह और शरद पवार जैसे नाम भी इस सूची में शामिल हैं. सरकार को ऐसे नाम की जरूरत है, जिसके कारण अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी भारत का सम्मान बढ़े और जिसकी राजनीतिक स्वीकार्यता भी हो. संभावना यह भी है कि संघ इस पद पर अपने किसी व्यक्ति को बैठाना चाहेगा. पर, लगता है कि फैसला नरेंद्र मोदी करेंगे. मोदी राजनीतिक कारणों को प्रमुखता देंगे या ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाएंगे, जिससे देश का नाम रोशन हो?
राष्ट्रपति के अलावा उप-राष्ट्रपति पद का चुनाव भी होना है. उसका मतदाता मंडल छोटा होता है, पर इस पद के लिए काबिलीयत बड़ी शर्त है. उप-राष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं. उन्हें सदन का संचालन करना होता है. उस सदन का, जिसके सदस्य अपेक्षाकृत विचारवान और विद्वान होते हैं. राजनीतिक लिहाज से भाजपा राज्यसभा में अभी कमजोर है. वह किसी ऐसे व्यक्ति ख्को इस पद पर लाना चाहेगी, जो उसकी फजीहत न होने दे. फिलहाल, अब चर्चा का विषय यही होगा.
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