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बेल का पेड़ और उसके फल

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार रसोई की खिड़की के सामने बेल का पेड़ है. हर सुबह उस पर नजर पड़ती है. वसंत ने उस पर बहार ला दी है. हल्की सी भी हवा चले, तो पेड़ अपनी शाखों और पत्तों के साथ ऐसा झूमता है, जैसे नृत्य कर रहा हो. इन दिनों यह पेड़ चमकीले पत्तों […]

क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
रसोई की खिड़की के सामने बेल का पेड़ है. हर सुबह उस पर नजर पड़ती है. वसंत ने उस पर बहार ला दी है. हल्की सी भी हवा चले, तो पेड़ अपनी शाखों और पत्तों के साथ ऐसा झूमता है, जैसे नृत्य कर रहा हो. इन दिनों यह पेड़ चमकीले पत्तों और ढेर सारे फलों से भरा हुआ है.
लेकिन, इतना ऊंचा है कि पत्तों और फलों तक हाथ नहीं पहुंचता. लोग सीढ़ी लगा कर शाखों के कांटों से हाथ बचा कर पत्ते, फल तोड़ते हैं.
पूजा के अलावा यह कहा जाता है कि इस पेड़ के पत्ते उच्च रक्तचाप की बेहतरीन दवा हैं. और बेल के फल का शर्बत, लू और गरमी से बचने की अचूक औषधि माना जाता है. अकसर आते-जाते इस पेड़ पर निगाह पड़ती है. ऐसा महसूस होता है, जैसे वह हर आहट को पहचानता है. वैसे तो सोसाइटी में बेल के तीन-चार पेड़ और भी हैं, मगर यह पेड़ कुछ विशेष है. इस पर हमेशा बड़ी-बड़ी गेंद के आकार के हरे फल लटके रहते हैं. अभी पहले लगे फल खत्म नहीं होते कि नये फल दिखाई देने लगते हैं. इसीलिए इसे सदाबहार पेड़ समझा जाता है.
इन पके फलों को तोड़ कर कई बार ढेर सारा शर्बत बनाया जाता है और सोसाइटी में लोगों को बांटा जाता है.फल जब पक जाते हैं, तो उसकी भीनी खुशबू आसपास फैल जाती है. लेकिन, लोगों का ऐसा भी मानना है कि बेल के पेड़ के आसपास सांप भी आते हैं. जो भी हो, बेल की महिमा अपने समाज में खूब है.
सावन के महीने में अकसर बेल के इन पेड़ों की पूछ बढ़ जाती है. इस दौरान पड़नेवाले सोमवारों को महिलाएं बेलपत्र इकट्ठे करती नजर आती हैं. शिव की पूजा में इन बेलपत्रों का खास महत्व जो होता है. इसी तरह महाशिवरात्रि पर भी इसके पत्तों और फलों की जरूरत होती है.
मंदिरों के बाहर फूलों के साथ इन्हें भी बिकते देखा जा सकता है.
हमारी दिनचर्या में जीने से लेकर मरने तक और पूजा-पाठ तक, पेड़ों की खास अहमियत है, जो सदियों से हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं. पेड़ों को जिलाये रखने का शायद यही तरीका है कि उन्हें अपने लिए हमेशा जरूरी बनाये रखा जाये. इसीलिए समाज ने उन्हें पूजा-पाठ से जोड़ा होगा.
इस बेल के पेड़ और अन्य पेड़ों को देख कर अकसर वह दोहा याद आ जाता है- वृक्ष कबहुं न फल भखें नदी न संचे नीर, परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर.
इतने फल देनेवाला यह पेड़ क्या वाकई हमें देख कर खुश होता होगा? अपने फलों-पत्तों के बदले वह हमसे कुछ नहीं मांगता. हम उसे दे भी क्या सकते हैं, सिवाय इसके जब फल आसानी से न टूटें, तो पत्थर मार कर तोड़ें.
उसकी शाखें हमारी बालकनी की तरफ झांकने भी लगें, तो उन्हें निर्ममता से काटने में हम दो मिनट भी न लगायें. यह जानने के बावजूद कि पेड़ों में भी जीवन होता है, पेड़ों के कटने का सिलसिला कम नहीं हो रहा है. उनकी कराह भी तो हम तक नहीं पहुंचती. वे सिसकते भी हों, तो हम उनके ऐन पास से खिलखिलाते हुए निकल जाते हैं.
तीस साल से लगातार मैं इस बेल के पेड़ को देख रही हूं. आगे भी यह वर्षों तक ऐसे ही खड़ा रहेगा. कल्पना करिये कि किसी को पेड़ की तरह ताउम्र एक ही जगह खड़ा रहना पड़े. न कहीं आना, न जाना, सिर्फ एक जगह खड़े-खड़े जीवन काट देना. कितना मुश्किल है न!
पीढ़ियां गुजर जाती हैं. पेड़ जिन्हें बचपन में अपने पास के पार्क में खेलते देखा होगा, उनके नाती-पोते को भी वह देखेगा. गुजरती हुई पीढ़ियों के बारे में यह क्या सोचता होगा, यह कैसे पता चलेगा!

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