प्रदीपकांत चौधरी
दिल्ली विवि में पूर्व शिक्षक व ‘आप’ के सदस्य
आम आदमी पार्टी ने पूरे भारत में जनता को किस तरह आकर्षित किया है, यह कहानी अब पुरानी पड़ चुकी है. इसकी सदस्यता एक करोड़ के आंकड़े को पार कर चुका है. रूस में बोल्शेविक क्रांति के बाद रूसी कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़ कर शायद ही इतिहास में किसी पार्टी की सदस्यता इतनी तेजी से बढ़ी हो. पर इतनी तेजी से बढ़ती सदस्य संख्या भी कई समस्याएं खड़ी कर सकती है. यह अचानक विस्तार सदस्यों की गुणवत्ता को लेकर भी लोगों के मन में सवाल पैदा कर रहा है. कई लोग निराश हो कर कहते हैं कि वही पुराने लोग फिर इस नयी पार्टी में भी हावी हो रहे हैं.
वैसे इस पार्टी के सदस्यों की एक बडी संख्या ऐसे लोगों की है जो पहले कभी किसी राजनीतिक दल के सदस्य नहीं रहे हैं. ऐसे सरकारी अधिकारी, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, बिजनेस मैनेजर, पत्रकार जो पहले किसी राजनीतिक दल में सक्रि य नहीं थे, इस पार्टी में आ कर अपना योगदान दे रहे हैं और यही इस पार्टी की मुख्य ताकत है, जो पुराने राजनीतिक पेशेवरों को चुनौती दे रही है. लोगों का विश्वास उन पुराने राजनीतिक पेशेवरों से टूट रहा है. आम लोग भी यह चाहते हैं कि एक नया तबका नये तरीके से राजनीति में सक्रि य हो, जो ‘पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा’ जैसी पुरानी राजनीतिक बीमारियों का शिकार न हो.
लेकिन खुले सदस्यता अभियान वाली इस पार्टी में पुराने राजनीतिक कार्यकर्ताओं को क्या पूरी तरह अलग रखा जा सकता है? शायद नहीं. इसके दो कारण हैं. एक तो यह कैडर आधारित नहीं, बल्कि मास-पार्टी या व्यापक जन-भागीदारी की पार्टी बनना चाहती है. इसमें किसी को सदस्य बनने से रोकना जनवाद के सिद्धांत के खिलाफ होगा. दूसरा, अब दिल्ली में सफलता हासिल कर चुकी यह पार्टी जैसे-जैसे दिल्ली से निकल कर राज्यों में और शहर से गांवों की तरफ जायेगी, तो इसे बड़ी संख्या में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की जरूरत होगी. इससे निश्चित ही राजनीतिक कार्यकर्ताओं का वह तबका भी पार्टी में आयेगा जो पहले मुख्यधारा की अन्य पार्टियों में सक्रि य रह चुका है.
यह सच है कि कई ऐसे लोग जो अन्य पार्टियों में किस्मत आजमाने के बाद निराश हो कर बैठ गये थे, अचानक उन्हें लगने लगा कि इस नयी पार्टी से यदि टिकट मिल जाये तो वह सांसद या विधायक बन सकते हैं. ऐसे लोगों के पास पहले से अपना एक निजी संगठन भी होता है, इसलिए वे सांगठनिक काम भी नये लोगों के मुकाबले ज्यादा तेजी से कर पाते हैं. वैसे संभव है, इसमें से एक बड़ा तबका टिकट न मिलने पर बाहर भी निकलेगा और पार्टी के खिलाफ प्रचार भी कर सकता है. पर असल मुश्किल यह है कि ये लोग यदि इस पार्टी के अंदर रह गये तो अपने पुराने राजनीतिक संस्कार भी अपने साथ लायेंगे. पर्व-त्योहार के मौके पर बधाई देते पार्टी नेताओं के साथ अपनी तस्वीरवाले पोस्टर लगवाना भी उसी संस्कृति का एक अंग है.
आजकल कई शहरों, कस्बों और गांवों में अरविंद केजरीवाल और योगेंद्र यादव की तसवीरों के साथ स्थानीय नेताओं की तस्वीरवाले पोस्टर और बिलबोर्ड देखे जा सकते हैं. लोकसभा चुनावों के ये ‘टिकटार्थी’ जिस तरह से अपने को प्रस्तुत कर रहे हैं, वह आम आदमी पार्टी को एक चेतावनी दे रहा है. वैसे पोस्टर लगाना कोई अनैतिक बात नहीं है, पर यदि कोई अपना पैसा व्यक्तिगत प्रचार पर खर्च करेगा, तो आगे चल कर उसे वसूलना भी चाहेगा. लोगों को डर है कि कहीं यहीं से गलत दिशा में कदम न पड़ने लगे. यही लोग फिर यहां भी गणोश परिक्र मा के सिद्धांत का प्रयोग करने की कोशिश न करने लगें. आम आदमी पार्टी के आफिस के बाहर नेताओं से मिलने के लिए बेकरार लोग इस तरफ संकेत कर रहे हैं.
राजनीति में नये आये लोगों की भी अपनी समस्याएं होती हैं. कई लोग पार्टी के अंदर टीम-वर्क, धैर्य, और दीर्घकालीन सोच की सांगठनिक जरूरत को ठीक से नहीं समझते हैं. कुछ सेलिब्रिटी सदस्यों के मीडिया प्रहार में यह साफ दिखायी देता है. उन्हें लग रहा है कि जैसे वे अपने पिछले पेशे या नौकरी में सफल रह चुके हैं, वैसे ही यहां भी तुरंत चमकने लगेंगे. सच्चाई यह है कि राजनीति बहुत ही कठोर और श्रमसाध्य काम है. सभी जमीनी राजनीतिक कार्यकर्ता जानते हैं कि उन्हें दिन या रात कभी भी और कोई भी फोन कर सकता है या मदद मांग सकता है. इस कठोर जीवन शैली में गुटबाजी और आरोप सह कर ये नये लोग कितना टिक पाते हैं, यह अभी देखा जाना बाकी है.
आम आदमी पार्टी को राजनीति में आयी इस नयी जमात और पहले अन्य पार्टियों में रह चुके कार्यकर्ताओं को अपनी विचारधारा की विशिष्टता को समझाने की चुनौती का सामना करना होगा. इसे यह बताना होगा की यह पार्टी सबसे ताकतवर जनता को और आम कार्यकर्ता को मानती है. जनता ही किसी को प्रत्याशी बना या रोक सकती है. यदि कार्यकर्ता नहीं चाहेंगे, तो किसी का उम्मीदवार बनना मुश्किल होगा. लोगों से अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा पर लगाम लगा कर एक नये भारत के निर्माण का सपना इनमें जगाना होगा. इन्हें आम लोगों को यह भी समझाना होगा कि सिर्फ पुराने राजनीतिक चेहरों को देख कर पार्टी के प्रति वे अपनी धारणा न बनायें.
इस समाज को बदलने के लिए लोग मंगल ग्रह से नहीं लाये जा सकते. अन्य दलों के पुराने राजनीतिक कार्यकर्ता भी एक नये नेतृत्व में नये ढंग से काम कर सकते हैं. असली काम सिर्फ नये लोगों को सदस्य बनाने का नहीं, बल्कि एक नयी राजनीतिक संस्कृति के प्रसार का है, जो ऐसा प्रशासनिक और कानूनी ढांचा बनाये कि भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही न बचे. इन्हें अपने कार्यकर्ताओं को समझाना होगा कि आदर्श राजनीति में चुनावी विजय और पराजय से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण एजेंडा और मूल्य होते हैं. कोई पार्टी हमेशा चुनाव जीत नहीं सकती, हार के समय के लिए कार्यकर्ताओं को दीर्घकालीन अभियान के लिए तैयार होना पड़ता है. नये और पुराने, दोनों को फिर से राजनीति का पाठ पढ़ने की जरूरत समझनी होगी.
..और एक कविता
वसंत के मौसम में पढ़िए एकांत श्रीवास्तव की यह कविता :
वसंत आ रहा है
जैसे मां की सूखी छातियों में
आ रहा हो दूध
माघ की एक उदास दोपहरी में
गेंदे के फूल की हंसी-सा
वसंत आ रहा है
वसंत का आना/ तुम्हारी आंखों में
धान की सुनहली उजास का
फैल जाना है
कांस के फूलों से भरे
हमारे सपनों के जंगल में
रंगीन चिड़ियों का लौट जाना है
वसंत का आना
वसंत हंसेगा
गांव की हर खपरैल पर
लौकियों से लदी बेल की तरह
और गोबर से लीपे
हमारे घरों की महक बन कर उठेगा
वसंत यानी बरसों बाद मिले
एक प्यारे दोस्त की धौल
हमारी पीठ पर