बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा? लोकसभा और विधानसभाओं की हंगामेदार कार्यवाहियों से झांकती राजनीतिक संस्कृति इसी भावना से संचालित दिख रही है.जिस दिन दिल्ली विधानसभा में कुछ विधायक जनलोकपाल बिल को तर्क की तुला पर तौलने की जगह माइक तोड़ कर बाहुबल का प्रदर्शन कर रहे थे, उसी दिन लोकसभा में कुछ सांसद चाकू से शीशा तोड़ते और टोकनेवालों की आंखों में मिर्च झोंकते पाये गये. दिल्ली में शुरू हुई कोई बीमारी देर तक दिल्ली में नहीं टिकती, संचार माध्यमों के जरिये पूरे देश में फैल जाती है. हिंसक संसदीय कार्यवाहियों का भी यही हाल है.
बुधवार को जम्मू-कश्मीर विस में पीडीपी विधायक सैयद बशीर विस्थापितों को दिये जानेवाले राशन की कमी का मुद्दा उठा कर अध्यक्ष के आसन के पास आये और जब अध्यक्ष ने मार्शलों से व्यवस्था कायम करने को कहा तो बशीर साहब ने एक मार्शल का कॉलर पकड़ कर तमाचे जड़ दिये. जो कुछ जम्मू-कश्मीर विस में हुआ, इसी दिन थोड़ा बदले स्वरूप में लखनऊ विस में भी दिखा.
कमान दो आरएलडी विधायकों ने संभाली और यह कहते हुए कि यूपी सरकार की नीतियों की वजह से गरीब मजदूर नंगे हो रहे हैं, विरोध में कपड़े उतार कर अधनंगे हो गये. संसदीय मर्यादाओं को तार-तार करनेवाली ये घटनाएं न तो पहली बार हुई हैं, न आखिरी बार. इनकी जड़ में है वह मीडियामुखी समाज, जिसमें संचार-माध्यमों से भरे परिवेश में नागरिक एक दर्शक में बदल जाता है और राजनीतिक घटनाएं छवियों व सूचनाओं में.
ऐसे में राजनीति नागरिकों के लिए एक ऐसा यथार्थ बन जाती है, जिसमें भागीदारी करने के लिए उसे बस टीवी देखते रहना होता है. राजनेता सोचते हैं कि उनकी जो छवि जितनी सनसनीखेज होगी, उसके उपयोग-उपभोग की संभावना उतनी ही प्रबल होगी. छवियों पर सवार होकर मन-मानस में पहुंचनेवाली इस राजनीति को लगता है कि वह अपनी आक्रामकता को व्यवस्था-परिवर्तनकारी आक्रोश के रूप में स्वीकार करा लेगी.
पर, राजनीति के इस यथार्थ का दर्शक इतना मूढ़ भी नहीं है. उसके एक हाथ में रिमोट है तो दूसरे हाथ में वोट. माननीयों को समझना चाहिए कि हंगामेदार राजनीति का उनका शो ‘बटन’ दबाने के साथ सदा के लिए बंद भी हो सकता है.