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निदो तानिया के बहाने

।। उदय प्रकाश ।। (चर्चित साहित्यकार) निदो तानिया सिर्फ उन्नीस साल का, दुबला-पतला लड़का था. एक निजी प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी में फस्र्ट इयर का छात्र. उसके सामने अभी उसका एक लंबा कैरियर और वर्षो का भविष्य बाकी था, जिसे 29 जनवरी को अचानक, दिल्ली के व्यावसायिक बाजार लाजपतनगर में, आठ दुकानदारों द्वारा पीट-पीट कर खत्म कर […]

।। उदय प्रकाश ।।

(चर्चित साहित्यकार)

निदो तानिया सिर्फ उन्नीस साल का, दुबला-पतला लड़का था. एक निजी प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी में फस्र्ट इयर का छात्र. उसके सामने अभी उसका एक लंबा कैरियर और वर्षो का भविष्य बाकी था, जिसे 29 जनवरी को अचानक, दिल्ली के व्यावसायिक बाजार लाजपतनगर में, आठ दुकानदारों द्वारा पीट-पीट कर खत्म कर दिया गया. उसकी हत्या करने वालों में दो हत्यारे नाबालिग थे, ठीक उसी तरह, जैसे ‘निर्भया’ बस बलात्कार कांड का सबसे जघन्य बलात्कारी भी नाबालिग था. स्पष्ट है कि जब तक मौजूदा कानूनों में संशोधन नहीं किये जाते, तब तक उसे हत्या की सजा नहीं दी जा सकेगी. निर्भया कांड के ‘नाबालिग’ दोषी को भी सिर्फ बाल-सुधारगृह में तीन साल के लिए भेजा गया है. अभी हमारी न्याय-प्रणाली इस नये, बदले हुए सामाजिक यथार्थ को समझ नहीं पा रही है, जिसमें बच्चे अब नाबालिग नहीं, ‘वयस्क’ हो चुके हैं. वे बलात्कार, चोरी, डकैती, लूट और हत्याएं करने लगे हैं. पिछले दिनों दिल्ली की सबसे बड़ी, सात करोड़ रु पयों से अधिक की लूट का मास्टरमाइंड एक नाबालिग ही था.

निदो तानिया की पांच गलतियां थीं. पहली यह कि उसने अपने बाल आजकल के युवाओं की तरह ‘कलर’ (रंगीन) कर रखे थे. दूसरी गलती यह कि वह दिल्ली की एक पनीर की दुकान में, पनीर या क्रीम-मक्खन खरीदने नहीं, बल्कि अपने किसी दोस्त का पता पूछने गया था. यानी, वह ‘कस्टमर’ नहीं था. मिर्जा गालिब के शब्दों में- वह ‘बाजार से गुजरा तो था, लेकिन खरीदार नहीं था’. अब हमारे महानगर इसी तरह हो गये हैं. यहां हर कोई या तो कुछ बेचता है, या खरीदता है. यानी, शहर अब एक बड़ा-सा शापिंग मॉल है. निदो तानिया की तीसरी गलती यह थी कि वह उस अरुणाचल प्रदेश का था, जो उत्तर-पूर्व में है, जहां रहनेवालों के चेहरे-मोहरे दिल्ली और उत्तर-भारतीयों से अलग होते हैं. वही अरु णाचल प्रदेश, जिसे चीन कई सालों से अपने नक्शे के भीतर दिखाता है, लेकिन इसके बावजूद वह अभी तक भारत का हिस्सा इसलिए बना हुआ है क्योंकि वहां की जनता अब भी स्वयं को भारतीय गणतंत्र का हिस्सा मानती है.

निदो तानिया की चौथी गलती यह थी कि उसने अपने ऊपर की गयी टिप्पणी पर नाराज हो कर उस दुकान का शीशा तोड़ दिया. भले ही इसके लिए उसने दस हजार रुपयों का जुर्माना भर दिया हो और अपने हत्यारों के साथ ‘समझौता’ कर लिया हो. पांचवीं गलती उसकी यह थी कि उसने यह मान लिया था कि दिल्ली देश की राजधानी है, एक विकसित, आधुनिक, महानगर है और यहां कोई भी भारतीय बिना किसी भय के, स्वतंत्रता और वैधानिक नागरिक अधिकार के साथ रह सकता है.

हो सकता है कि उसने यह भी सोचा हो कि उसके पिता निदो पवित्र उसी राजनीतिक पार्टी के विधायक और परिवार तथा स्वास्थ्य कल्याण विभाग के संसदीय सचिव हैं, जिस पार्टी की सरकार अभी भी केंद्र में सत्ताधारी है. हो सकता है, उसे यह भी मुगालता रहा हो कि इस देश का प्रधानमंत्री भी उसी उत्तर-पूर्व की जनता द्वारा चुन कर संसद में भेजा गया है, जहां से वह खुद है. यानी असम से, जो उत्तर-पूर्व की सात बहनों में से एक है, ठीक उस नदी ब्रह्मपुत्र’ की तरह, जो सात अलग-अलग नदियों के मिल जाने से एक नदी में बदल जाती है.

निदो तानिया ने सोचा होगा कि अगर सात अलग-अलग नदियों के मेल से एक ‘ब्रह्मपुत्र’ का जन्म होता है, तो अनगिनत नस्लों, धर्मो, संस्कृतियों, भाषाओं, समुदायों के मिलने से एक भारतीय गणतंत्र का भी जन्म जरूर हो चुका होगा. आखिर चार दिन पहले ही तो इसी दिल्ली के राजपथ पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और राजधानी के तमाम वीआईपी गणमान्यों की उपिस्थति में गणतंत्र दिवस मनाया गया था, जिसमें भारत की विविधता की सम्मोहक झांकी प्रस्तुत की गयी थी. निदो तानिया की हत्या के चार दिन पहले की तारीख, 26 जनवरी का यह गणतंत्र दिवस सन 1950 में लागू होने वाले उस संविधान की स्मृति में मनाया जाता है, जो इस गणराज्य मे रहनेवाले हर नागरिक को समान अधिकार और स्वतंत्रता की गारंटी देता है. लेकिन तानिया गलत था. वह वास्तविकता से दूर था. वह किसी ऐसे सपने में जी रहा था, जिसमें हम सब, बार-बार निराश होकर भी, किसी जिद में जीते हैं.

नीदो तानिया की हत्या कई गंभीर सवाल खड़े करती है. यह कोई एक आमफहम आपराधिक वारदात नहीं है. यह एक गणराज्य के असफल हो जाने का एक गंभीर संकेत है. एक ‘इमरजेंसी अलार्म’. अभी कुछ ही समय पहले अमेरिका के मशहूर अखबार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने एक सर्वेक्षण में दुनिया के उन दस सबसे मुख्य देशों में भारत को शिखर पर रखा है, जहां नस्ल, जेंडर (लिंग), सामुदायिक और जातीय असहिष्णुता सबसे अधिक है. एशिया का आर्थिक ‘सुपर पावर’ बनने और चंद्रमा तथा मंगल तक अपने उपग्रह भेजनेवाला, परमाणु क्लब का एक अहम सदस्य, मिसाइल टेक्नोलॉजी में संसार को चौंकानेवाला यह देश अपने मूल चरित्र में निहायत पिछड़ा हुआ, पूर्व-आधुनिक, मध्यकालीन सामंती समाज का एक कट्टर हिंसक देश कैसे बनता जा रहा है? इस पर सोचने की जरूरत है.

क्या किसी शहर का ‘इन्फ्रास्ट्रक्चर’ बदल कर उसे यूरोप के बड़े शहरों जैसा बना देने से, आधुनिकतम उपभोक्ता टेक्नोलॉजी को बाजार में पाट देने से, हर किसी के हाथ में स्मार्ट फोन और लैपटाप बांट देने से, सारे पापुलर साफ्ट ड्रिंक और जंक-फूड की दुकानें हर जगह खोल देने से, यूरोप को भी मात करनेवाले बड़े-बड़े मॉल बना देने से, मेट्रो रेल और मोनो रेल चला देने, छह-आठ लेन की चौड़ी सड़कें बना देने या फिर कॉमनवेल्थ खेलों तथा एशियाई खेलों के भव्य आयोजनों के बाद अब ओलिंपिक के दावे करने से कोई महानगर और उसमें बसनेवाला समाज ‘आधुनिक’ हो जाता है? क्या संविधान, संसद और विधानसभाओं की स्थापना तथा चुनाव करा देने से किसी आधुनिक और सभ्य लोकतंत्र का सचमुच निर्माण हो जाता है? क्या आधुनिक लोकतंत्र के निर्माता बिल्डर और कारपोरेट घरानों के ठेकेदार ही हुआ करते हैं? जिन्होंने मॉल-मेट्रो और गगनचुंबी इमारतें बनायीं, वे लोकतंत्र भी बना सकते हैं? लोकतांत्रिक समाज होने की प्राथमिक और बुनियादी शर्ते क्या होती हैं? ऐसे कई प्रश्न हैं, जो अचानक पैदा होने लगे हैं.

निदो तानिया की हत्या के कुछ ही दिन पहले, दक्षिण दिल्ली के उसी इलाके में, बाहर घूमने निकलीं मणिपुर की दो लड़कियों के जूते में, दो युवकों ने अपने पालतू कुत्ते का पट्टा बांध दिया था और जब डर कर वे लड़कियां चिल्लाने लगीं तो वे हंसने लगे और जब उनमें से एक लड़की ने कुत्ते को दूर रखने के लिए उसे पैर से ठोकर मारी तो उन्होंने उस लड़की को बाल पकड़ कर घसीटा और उसे ‘चिंकी’, ‘ङिांगा ला ला’, ‘चाऊमिंग’ कहते हुए गालियां दीं. उन लड़कियों की मदद में आये उत्तर-पूर्व के दो युवकों को उन्होंने मारा-पीटा. शिकायत करने पर भी पुलिस ने एफआइआर दर्ज नहीं की.

अभी कुछ ही समय हुआ जब दिल्ली के जामिया मिल्लिया इसलामिया विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय महिला आयोग के एक संयुक्त सर्वेक्षण में यह तथ्य सामने आया है कि देश के महानगरों में उत्तर-पूर्व से आनेवाली 60 प्रतिशत महिलाएं नस्लवादी भेदभाव, अपमान और उत्पीड़न का शिकार बनती हैं. इन महानगरों में सबसे ऊपर है देश की राजधानी दिल्ली, जहां 81 प्रतिशत महिलाएं इस भेदभाव और अपमान का दंश ङोल रही हैं. उन्हें चिंकी, नेपाली, चीनी, चाऊमिंग तो कहा ही जाता है, उनसे यह अक्सर पूछा जाता है कि क्या तुम लोग कुत्ता और सांप खाते हो? इन सबका गंभीर पक्ष यह भी है कि पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी भी ऐसे पूर्वग्रहों से ग्रस्त हैं. याद होगा, इस बार गणतंत्र दिवस के मुख्य मानद अतिथि जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे थे. यह किस्सा कम रोचक नहीं है कि मणिपुर और मिजोरम के कुछ दर्शकों से सुरक्षा तथा अन्य सरकारी अधिकारी आकर बार-बार पूछ रहे थे कि क्या आप जापानी डेलिगेशन के सदस्य हैं? आगरा का ताजमहल देखने के लिए टिकट खरीदने वाले उत्तर-पूर्व के लोगों से पासपोर्ट मांगना तो एक आम घटना है.

जाहिर है, हमारी शिक्षण-संस्थाओं ने अपने देश के बारे में जो शिक्षा छात्रों को दी है, उसमें उत्तर-पूर्व के बारे में जरूरी जानकारी का अभाव है. खासतौर पर 1990 के बाद की नयी शिक्षा ने जिस तरह की तीन पीढ़ियों को शिक्षित किया है, वे उस देश और समाज को ही नहीं जानते, जिसमें वे रह रहे हैं. वे व्यावसायिक कंपनियों के प्रबंधन और उसकी मार्केटिंग के लिए तो उपयोगी हो सकते हैं, वे कॉल-सेंटर्स में काम कर सकते हैं, हाइटेक मजदूर के रूप में विदेश जा सकते हैं और कमाई कर सकते हैं, लेकिन वे अपनी जमीन से कटे हुए हैं, अपने परिवार के लिए पराये और समाज के लिए अनुपयोगी हो चुके हैं.

यही वजह थी कि निदो तानिया की हत्या के विरोध में आये उत्तर-पूर्व के हजारों छात्रों और युवाओं की एक मांग यह भी थी कि एनसीइआरटी स्कूलों के लिए ऐसे पाठ्यक्र म तैयार करे, जिसमें इस देश की विविधता की पूरी जानकारी छात्रों को मिल सके. याद आता है, कभी रामास्वामी पेरियार ने कहा था कि हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान वाले राष्ट्रवाद की सबसे बड़ी सीमा यह है कि यह समूचे दक्षिण भारत को भूल जाता है. आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आर्यसमाज के प्रणोता स्वामी दयानंद सरस्वती भी ‘आर्यावर्त’ को विंध्याचल पर्वत के ऊपरवाले हिस्से को ही भारत मानते थे. दक्षिण भारत उनकी राष्ट्रीय संकल्पना में नहीं था, और उत्तर-पूर्व तो खैर हो ही नहीं सकता था.

शिक्षा के बिना किसी भी समाज या राष्ट्र-राज्य में नागरिक नहीं पैदा किये जा सकते. लेकिन मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि बच्चों का असली और सबसे पहला प्राइमरी स्कूल उनका परिवार होता है. सामाजिकता और नागरिकता की बुनियाद वहीं रखी जाती है. अगर हमारे परिवार नागरिक नहीं, कंपनियों के कर्मचारी पैदा करनेवाले किंडरगार्टन बन गये हैं तो फिर नागरिक कहां से आयेंगे. ऐसे में तो भीड़ ही पैदा होगी जो अपने से भिन्न किसी दूसरे को देख कर वैसा ही हिंसक व्यवहार करेगी, जैसा तानिया के साथ किया गया.

दिल्ली अगर देश का सबसे आधुनिक और विकसित महानगर बनने की जगह बलात्कार, जातिवादी कट्टरता और नस्लवादी हिंसा की राजधानी बन रहा है, तो इसके कारणों को गंभीरता से देखना होगा. यह नहीं भूलना चाहिए कि 30 जनवरी 1948 को इसी दिल्ली में महात्मा गांधी की हत्या एक सांप्रदायिक उन्मादी के हाथों हुई थी और अब 2014 की 30 जनवरी को निदो तानिया की हत्या उसी समाज में पनपती नस्लवादी हिंसा के द्वारा हुई. कुछ लोग अब भी इसे बहुत हल्के ढंग से, किसी मामूली वारदात की तरह देख रहे हैं. ये उनका ‘शुतुरमुर्गवाद’ है, जो भविष्य में आनेवाले तूफान से मुंह मोड़ कर, अपना सर रेत में छुपा लेता है.

(फेसबुक वॉल से साभार)

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