प्रभात रंजन
कथाकार
हाल में लखनऊ से लौटते वक्त जिज्ञासावश लखनऊ स्टेशन पर किताबों की दुकान ‘एएच व्हीलर’ पर गया. वहां सुरेंद्र मोहन पाठक, रीमा भारती सहित दो-चार ऐसे लेखकों की किताबें थीं, जिनको लोकप्रिय धारा का लेखक कहा जा सकता था. वेद प्रकाश शर्मा की कोई भी किताब नहीं थी. 80-90 के दशक में जिस वेद प्रकाश शर्मा के बिना लोकप्रिय उपन्यासों की चर्चा अधूरी समझी जाती थी, वह लेखक के रूप में धीरे-धीरे परिदृश्य से गायब हो गये हैं. सुरेंद्र मोहन पाठक की भी इक्का-दुक्का किताबें ही थीं.
वहां देश के प्रतिष्ठित हिंदी साहित्यिक प्रकाशनों की किताबों की तादाद अधिक थी, बनिस्बत लोकप्रिय धारा के जासूसी उपन्यासों के. यह किताबों की दुनिया का नया ट्रेंड है. लोकप्रिय धारा में जासूसी उपन्यासों का जलवा उतर चुका है. अब आध्यात्मिक, धार्मिक कथाओं को नया ट्रेंड है, लेकिन उनको पूरी तरह से मनोरंजन प्रधान साहित्य नहीं कहा जा सकता है. इस समय देवदत्त पट्टनायक की मिथक-कथाओं की किताबें स्टेशन के बुक स्टालों पर खूब मिलती हैं, लेकिन इसमें कोई भी नहीं लिख सकता. इस तरह का लेखन बिना पूरी तैयारी के संभव नहीं.
बहरहाल, मुझे अपने जमाने में एएच व्हीलर की दुकान याद आ गयी. सीतामढ़ी में किताबों, पत्रिकाओं के लिए हमारा एक ही ठिकाना होता था स्टेशन पर एएच व्हीलर की दुकान. तब वहां मांगे से साहित्यिक उपन्यास नहीं मिलते थे. हां, कुछ साहित्यिक पत्रिकाएं जरूर मिल जाया करती थीं.
उन पत्रिकाओं में लेखकों के नाम पढ़ कर हम व्हीलर वाले झा जी से साहित्यिक लेखकों की किताबें मांगा करते थे. मुझे उनका वह जवाब आज भी याद है, जब उन्होंने उदय प्रकाश की किताब मांगने पर कहा था- ‘प्रेमचंद की किताबें पढ़िये. बाकी सब लेखक साहित्य के नाम पर लफाशुटिंग करता है. जो प्रेमचंद लिख गये, वही बचा रहेगा.
कौनो प्रकाश के किताब नहीं बिकता है!’ संयोग से लखनऊ की उस दुकान पर भी प्रेमचंद की कहानियों, उनके उपन्यासों के अलग-अलग संस्करण मौजूद थे.
यह सकारात्मक ट्रेंड है कि हिंदी की वे साहित्यिक किताबें, अरसे तक जिनकी नियति सरकारी पुस्तकालयों के सहारे बिकना मानी जाती थीं, व्यंग्य में जिनको 300-600 के संस्करण वाली किताबें कहा जाता था, अब वे एएच व्हीलर से बड़े-बड़े मॉल की छोटी-छोटी दुकानों में दिखाई देने लगी हैं.
इस बात की संभावना भी बढ़ जाती है कि साहित्यिक पुस्तकें अब आम पाठकों के लिए सुलभ हो जाया करेंगी. आम तौर पर विद्वानों के विमर्श में यह बात मानी जाती रही है कि हिंदी में साहित्यिक पुस्तकों के बाजार के न होने का कारण या आम पाठकों तक उनकी पहुंच न होने का कारण और चाहे जो भी हो, हिंदी प्रदेशों के कस्बों-बाजारों में उनका उपलब्ध न होना भी रहा है. अब कम से कम स्टेशन की दुकानों के माध्यम से ही उनकी उपलब्धता तो बढ़ रही है.
कह सकते हैं कि यह पुस्तकों की ऑनलाइन बिक्री का जमाना है. यह बात बड़े शहरों के संदर्भ में तो सही है, लेकिन आज भी सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर जैसे छोटे शहरों के लिए या बात उतनी सरल नहीं है.
जिन शहरों में किताब की दुकानों का मतलब बस कोर्स और प्रतियोगिता की किताबें बेचना हो, उन शहरों में स्टेशन के एएच व्हीलर की दुकानों का बड़ा महत्व रहा है. अब व्हीलर की दुकानों पर साहित्यिक किताबों का बिकना सकारात्मक तो है, लेकिन एक बात यह भी है कि जिस नवलेखन का हिंदी में इतना हल्ला है, उन लेखकों की किताबें अब भी स्टेशनों की किताब की दुकानों से दूर ही दिखाई देती हैं.