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परदेस में देस के परब की याद
प्रभात रंजन कथाकार कल अपने पुराने स्कूलिया दोस्त का फोन आया- ‘परब में घर जा रहे हो?’ मेरा मन जाने कहां से कहां पहुंच गया. मेरा दोस्त भी मेरी तरह सीतामढ़ी से दिल्ली पढ़ने आया था. अब आइएएस की तैयारी का कोचिंग चलाता है. मेरी ही तरह पर्व-त्योहार में उसका मन भी भटकने लगता है. […]
प्रभात रंजन
कथाकार
कल अपने पुराने स्कूलिया दोस्त का फोन आया- ‘परब में घर जा रहे हो?’ मेरा मन जाने कहां से कहां पहुंच गया. मेरा दोस्त भी मेरी तरह सीतामढ़ी से दिल्ली पढ़ने आया था. अब आइएएस की तैयारी का कोचिंग चलाता है. मेरी ही तरह पर्व-त्योहार में उसका मन भी भटकने लगता है.
कहता है पैसा कितना भी कमा लो, सुविधा कितना भी जुटा लो, लेकिन पर्व-त्योहार के मौसम में मन में जाने कहां से अपने देस जाने की इच्छा बलवती होने लगती है. असल में पर्व-त्योहार हमारे लिए धर्म से जुड़ने का मसला उतना नहीं होता है, बल्कि अपने देस, अपने गांव, अपने समाज के साथ जुड़ने, उनको याद करने का मसला होता है.
नवरात्र से लेकर दीवाली, छठ तक यह मौसम जाने कैसा होता है. इस बार नवरात्र आ गयी है और मन ‘पर्वीला’ होता जा रहा है. मन बरसों पहले छूटे अपने कस्बे, अपने गांव में पहुंच जाता है. जब हम सालभर नवरात्र के आने का इंतजार करते थे.
नवरात्र के पांचवें-छठवें दिन से ही रात में हमें मेलों में घूमने की इजाजत मिल जाती थी. उस दबे-छिपे समाज में शहर की लड़कियों को भी मेला घूमने की इजाजत मिल जाती थी और हम आधी रात के बाद तक मेलों में घूमते थे. मौका मिलते ही प्यार का इजहार करते थे. दिल मिलते थे, दिल टूट जाते थे. बरसों बाद बांग्ला की चर्चित लेखिका मंदाक्रांता सेन का उपन्यास ‘अंधी छलांग’ पढ़ा, तो अपने किशोरावस्था के वे दिन याद आ गये. उपन्यास में नवरात्र के नौ दिनों में गूंथी हुई एक प्रेम कहानी है, जिसमें इस पर्व का उल्लास भी है और देवी की मूर्ति के विसर्जन के बाद का विषाद भी है.
असल में दुर्गा पूजा को बंगाल से जोड़ कर देखा जाता है, लेकिन बिहार के ग्रामीण-कस्बाई समाज में आज भी दुर्गा पूजा से लेकर छठ तक के मौसम को ‘परब’ कहा जाता है और यह सबसे आनंद, उल्लास का मौसम होता है. हालांकि, बरसों के विस्थापन ने इस समाज के उस उल्लास को भी विस्थापित कर दिया है, जो उसकी संस्कृति का हिस्सा रही है.
धूल-मिट्टी में लिपटे समाज की संस्कृति का. आज दिल्ली में बैठ कर दशहरा जैसे पर्व का इंतजार इसलिए अधिक होता है, क्योंकि इंटरनेट पर साल की सबसे बड़ी सेल लगती है और त्योहार मनाने का मतलब दशहरे में ऑनलाइन खरीदारी हो गया है. ऐसे में अभावों के उस दौर का वह पर्व मन में आकर घर कर जाता है.
तब दशहरा का इंतजार इसलिए रहता था, क्योंकि साल में सबसे अधिक नये कपड़े दशहरे से लेकर दीवाली-छठ के इस परब के मौसम में ही मिलते थे. विजयादशमी के दिन दादी साल में एक ही बार आधिकारिक रूप से सिनेमा देखने के लिए पैसे देती थी और नवरात्र की हर रात मेला घूमने के लिए मां से पैसे मिलते थे. शहर के खाली मैदानों में, सड़कों पर धूल उड़ती रहती थी और हम नये-नये कपड़े पहने रात रात भर उन मेलों में न जाने क्या देखते हुए घूमते रहते थे.
हालांकि, अब सब बदल गया है. वहां भी वह नहीं रहा, जो पहले होता था. संस्कृति का एकसापन उसकी अपनी स्थानीयताओं पर हावी होता जा रहा है, लेकिन मन का मौसम कहां बदलता है. वह तो अपने ऋतु चक्र के मुताबिक चलता रहता है. इस महानगर की भागा-भागी में न पर्व के लिए समय मिलता है, न त्योहार मनाने का उल्लास ही बचता है. सब मन में बचा रह जाता है.
मैंने दोस्त से पूछा- तुम जा रहे हो परब में? उसने कहा- कोचिंग को छोड़ किसके भरोसे जाऊं. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की पंक्ति याद आ गयी- दिल्ली हमको चाकर कीन्ह/ दिल दिमाग भूसा भर दीन्ह!
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