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परिवारवाद की राजनीति

उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और सरकार में मचे घमसान पर इसके नेता चाहे जो बयान दें, सच यही है कि यह पूरा प्रकरण पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव के पारिवारिक सदस्यों की आपसी महत्वाकांक्षाओं के टकराव और अपने वर्चस्व को बनाये रखने की कोशिश का परिणाम है. इसे भारतीय राजनीति और लोकतंत्र में […]

उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और सरकार में मचे घमसान पर इसके नेता चाहे जो बयान दें, सच यही है कि यह पूरा प्रकरण पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव के पारिवारिक सदस्यों की आपसी महत्वाकांक्षाओं के टकराव और अपने वर्चस्व को बनाये रखने की कोशिश का परिणाम है. इसे भारतीय राजनीति और लोकतंत्र में एक और त्रासद प्रहसन के रूप में ही याद किया जायेगा.

भारतीय राजनीति के इतिहास में परिवारवाद कोई नया अध्याय नहीं है और इस बीमारी से कमोबेश हर पार्टी ग्रस्त है. राजनीतिशास्त्री पैट्रिक फ्रेंच ने एक अध्ययन में बताया है कि 2009 से 2014 के बीच विभिन्न दलों के 28 फीसदी सांसद वंशानुगत थे. लेकिन, राजनीति में वंशवाद के प्रखर आलोचक डॉ राममनोहर लोहिया के सान्निध्य में राजनीति का ककहरा सीखने और उनके गांधीवादी समाजवाद के आदर्शों पर चलने का दावा करनेवाले मुलायम सिंह ने इसे अपनी मुख्य विशेषता बना लिया है. पंचायतों की सत्ता से लेकर मुख्यमंत्री पद तक मुलायम परिवार के 13 सदस्य विभिन्न पदों पर काबिज हैं और आगामी विधानसभा चुनाव के दौरान कुछ अन्य भी इस आंकड़े में जुड़ सकते हैं.

फिलीपींस के मनीला में स्थित एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट पॉलिसी सेंटर द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में रेखांकित किया था कि एशिया के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के कारण राजनीति में परिवादवाद के वर्चस्व को बढ़ावा मिलता है.

भारतीय परिदृश्य पर गौर करें, तो साफ दिखेगा कि पार्टियों और सरकारों में वंशानुगत प्रभुत्व के चलते लोकतांत्रिक व्यवस्था के अपेक्षित सशक्तीकरण की राह बड़े पैमाने पर बाधित हुई है. लोकतांत्रिक व्यवस्थावाले दुनिया के विकसित देशों में भी कुछ गिने-चुने परिवारों के सदस्य सार्वजनिक जीवन में हैं, लेकिन उन्हें राजनीति की स्थापित मर्यादाओं और सचेत मतदाताओं की कसौटी पर खरा उतरना होता है. उन देशों में विरासत एक पहचान जरूर देती है, लेकिन सत्ता में आने की गारंटी कतई नहीं. दुर्भाग्य से हमारे देश में स्थिति बिल्कुल भिन्न है.

लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की केंद्रीय भूमिका होती है. विचारधाराओं की बहसों, नीतियों के निर्धारण तथा निर्वाचन की प्रक्रिया में इनके माध्यम से ही जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है, लेकिन दलों में एक या कुछेक परिवारों के वर्चस्व के चलते जनता के सामने विकल्प सीमित हो जाते हैं.

इससे दलों का मूल्यांकन नीतियों और कार्यक्रमों के आधार पर न होकर, व्यक्तियों की पहचान से निर्देशित होने लगता है. देश में कई ऐसे राज्य हैं, जहां एक ही परिवार से दो या अधिक लोग मुख्यमंत्री बन चुके हैं.

प्रधानमंत्री पद और विभिन्न मंत्रिमंडलों में भी इसके उदाहरण भरे पड़े हैं. ऐसे में हमें इस चिंताजनक सच्चाई को स्वीकार करना होगा कि भारत भले ही दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हो, इसके ज्यादातर राजनीतिक दल अलोकतांत्रिक हैं. कश्मीर से कन्याकुमारी तथा कच्छ से कोलकाता तक वंशों-परिवारों के कब्जेवाली पार्टियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. हमने लोकतांत्रिक संस्थाएं तो बना ली हैं, लेकिन राजनीतिक सत्ता के शीर्ष पर प्रतिभाओं की बजाय पारिवारिक पहचान को अहमियत मिलने के चलते भ्रष्टाचार, गरीबी, आर्थिक विषमता, सामाजिक भेदभाव, हिंसा और असंतोष से मुक्ति की आस पूरी नहीं हो सकी है.

उत्तर प्रदेश की सरकार और सत्तासीन पार्टी के भीतर जो हलचल मची हुई है, वह न सिर्फ प्रदेश, बल्कि पूरे देश के लिए एक बुरी खबर है. बीते दो-तीन दिनों में पार्टी के राज्य अध्यक्ष से लेकर सरकार के मुख्य सचिव तक बदल दिये गये हैं.

मंत्रियों को बर्खास्त किया गया है, मंत्रालयों की जिम्मेवारियां बदली गयी हैं. सपा का नेतृत्व कर रहे परिवार में लखनऊ से दिल्ली तक छिड़े गृह युद्ध के बीच शासन ठहर सा गया है और बहस सत्ता के गलियारों से बाहर आती गॉसिपों और धुआंधार बयानों के इर्द-गिर्द सिमट गयी है. यह राजनीति और शासन के लिए भले नायाब न हो, एक त्रासद प्रहसन जरूर है.

जरूरी सवाल यह नहीं है कि इस घमसान का क्या और कितना असर अखिलेश सरकार और समाजवादी पार्टी के भविष्य पर पड़ेगा, बल्कि असली मुद्दा यह है कि क्या हमारी राजनीति पारिवारिक झंझटों, पदों की होड़ और अपने मनमाफिक लोगों को खास ओहदों पर बिठाने की जुगतों से ही संचालित होती रहेगी. नाटक के इस अध्याय का अगले कुछ दिनों में पटाक्षेप हो जायेगा और बहस के केंद्र में कुछ नये मुद्दे आ जायेंगे. इसकी उम्मीद नहीं के बराबर है कि मुलायम सिंह और उन्हीं की तरह परिवारवाद को बढ़ावा देनेवाले देश के अन्य अनुभवी व बुजुर्ग नेता इस तमाशे से सबक लेते हुए आत्मचिंतन कर विचारधारात्मक और जनोन्मुखी राजनीति का दामन थामेंगे.

देखना यह है कि उत्तर प्रदेश और देश के लोग इसके विभिन्न पहलुओं को बिसार कर पुराने ढर्रे पर लौट आयेंगे या पारिवारिक कलह से ऊपजे राजनीतिक और व्यवस्थागत संकट के मुख्य आयामों का समुचित विश्लेषण कर किसी ठोस निष्कर्ष की ओर गतिशील होंगे. परिवारवाद सिर्फ सत्ता प्रतिष्ठानों पर कुछ परिवारों के दखल का नाम नहीं है, यह देश की लोकतांत्रिक यात्रा के कदमों में पड़ी बेड़ी है. इससे मुक्त होकर ही समतामूलक, समावेशी और समृद्ध भविष्य भारत की कल्पना संभव है.

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