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शिक्षा में पिछड़ता देश

शिक्षा की स्थिति को लेकर एक ही दिन में दो वैश्विक रिपोर्ट यदि भारत के बारे में निराशाजनक तस्वीर पेश कर रही हों, तो देश के नीति नियंताओं को इसे जागने का एलार्म मानना चाहिए. चौथी औद्योगिक क्रांति के मुहाने पर खड़ी दुनिया में पैठ बढ़ाने के लिए जरूरी है कि भारत के शिक्षण संस्थान […]

शिक्षा की स्थिति को लेकर एक ही दिन में दो वैश्विक रिपोर्ट यदि भारत के बारे में निराशाजनक तस्वीर पेश कर रही हों, तो देश के नीति नियंताओं को इसे जागने का एलार्म मानना चाहिए. चौथी औद्योगिक क्रांति के मुहाने पर खड़ी दुनिया में पैठ बढ़ाने के लिए जरूरी है कि भारत के शिक्षण संस्थान विश्वस्तरीय बनें. पर, ‘क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2016’ में भारत के आइआइटी और आइआइएससी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों की रैंकिंग भी नीचे खिसक गयी है.
इस रैंकिंग में शीर्ष 150 में कोई भी भारतीय संस्थान नहीं है. भारतीय विज्ञान संस्थान की रैंकिंग पिछले साल के 147 से पांच स्थान खिसक कर 152 हो गयी है, जबकि आइआइटी दिल्ली की रैंकिंग भी 179 से 185 हो गयी है.
यह एक संकेत है कि न तो सरकार अपने संस्थानों को विश्वस्तरीय बनाने की दिशा में प्रगति कर पा रही है, न ही हाल में थोक में खुले निजी तकनीकी एवं प्रबंधन संस्थानों में से कोई भी वैश्विक मानदंडों पर खरा उतर पा रहा है. यही कारण है कि आज देश में करोड़ों युवाओं के पास मोटी रकम खर्च कर हासिल प्रोफेशनल डिग्री तो है, पर इंडस्ट्री उन्हें हुनरमंद न मानते हुए जॉब देने से इनकार कर रही है. क्यूएस रिपोर्ट बताती है कि इस साल उन देशों के संस्थानों की रैंकिंग बेहतर हुई है, जहां शिक्षा के लिए ज्यादा फंड मुहैया कराये जा रहे हैं.
दूसरी ओर भारत में उच्च शिक्षा पर खर्च बढ़ाने की कोठारी आयोग सहित विभिन्न कमेटियों की सिफारिशें अमल का इंतजार ही करती रह जाती हैं. सिर्फ उच्च शिक्षा नहीं, पूरी शिक्षा व्यवस्था को लेकर रवैया ऐसा ही है. तभी तो यूनेस्को की ग्लोबल एजुकेशन मॉनीटरिंग रिपोर्ट में कहा गया है कि 2030 तक सबको शिक्षा देने के वैश्विक लक्ष्य से भारत अभी कोसों दूर है और मौजूदा रफ्तार से इसमें 50 साल लगेंगे.
वर्षों की कोशिशों के बाद देश में शिक्षा का अधिकार कानून बनने पर उम्मीद जगी थी कि माध्यमिक स्तर तक की नि:शुल्क शिक्षा सबको हासिल होगी. लेकिन, रिपोर्ट बताती है कि देश में करीब 1.1 करोड़ बच्चे स्कूल का मुंह नहीं देख पाये हैं, करीब 6 करोड़ बच्चों को माध्यमिक स्तर तक की औपचारिक शिक्षा नहीं मिल पा रही है.
कहने की जरूरत नहीं कि सबको शिक्षित किये बिना देश को गरीबी से मुक्त करने का सपना पूरा नहीं हो सकता. केंद्र और राज्य सरकारें आर्थिक विकास की रफ्तार तेज करने के चाहे जितने दावे कर ले, अपने मानव संसाधन की गुणवत्ता पर निवेश बढ़ाये बिना तरक्की की कोई भी रफ्तार न तो समावेशी होगी और न ही स्थायी.

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