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विशाल श्रम बल का लाभ लें

आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया अगले चार वर्षों में भारत में कामकाजी लोगों की संख्या करीब 87 करोड़ हो जायेगी. इस तरह भारत विश्व में सबसे ज्यादा कामकाजी आबादी वाला देश बन जायेगा. जब कोई देश ऐसी स्थिति में होता है, कि वहां कामकाजी आबादी का प्रतिशत उच्च स्तर पर पहुंच जाता है, […]

आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
अगले चार वर्षों में भारत में कामकाजी लोगों की संख्या करीब 87 करोड़ हो जायेगी. इस तरह भारत विश्व में सबसे ज्यादा कामकाजी आबादी वाला देश बन जायेगा. जब कोई देश ऐसी स्थिति में होता है, कि वहां कामकाजी आबादी का प्रतिशत उच्च स्तर पर पहुंच जाता है, तब वह कुछ पाने की उम्मीद करने लगता है. ऐसी स्थिति को जनसांख्यिकीय विजाभन (डेमोग्राफिक डिविडेंड) कहते हैं.
इसका अर्थ यह हुआ कि जब किसी देश के ज्यादातर लोगों के पास काम होता है, तब वहां की अर्थव्यवस्था भी तेजी से बढ़ती है. चूंकि भारत में आज कामकाजी आबादी उच्च स्तर पर है, ऐसे में इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि बहुत जल्द भारत जनसांख्यिकीय लाभ लेने की स्थिति में आ जायेगा. हालांकि, इस संबंध में एक दूसरी राय भी है. कुछ महीने पहले ‘इंडिया स्पेंड’ ने डेटाबेस जर्नलिज्म के आधार पर रोजगार को लेकर छह आकलन जारी किये थे. ये आकलन हैं :
1. वर्ष 2015 में भारत ने संगठित क्षेत्र में रोजगार के बहुत कम अवसर पैदा किये. बीते सात वर्षों में बड़ी कंपनियों और फैक्ट्रियों जैसे आठ महत्वपूर्ण उद्योगों में भी लगभग यही हाल रहा है.
2. वर्ष 2017 में असंगठित क्षेत्र में रोजगार का अनुपात 93 प्रतिशत तक हो जायेगा, लेकिन यह भी सच है कि यहां न हर महीने वेतन मिलता है, न ही सामाजिक सुरक्षा जैसे लाभ मिलते हैं.
3. ग्रामीण स्तर पर आमदनी दशक के निम्न स्तर पर पहुंच चुकी है. कृषि क्षेत्र 47 प्रतिशत लोगों को आजीविका प्रदान कर रहा है. लेकिन, इतनी बड़ी आबादी को रोजगार प्रदान करनेवाले इस क्षेत्र में वर्ष 2014-15 में 0.2 प्रतिशत की गिरावट आयी और 2015-16 में मात्र एक प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी.
4. कृषि से जुड़े लोगों में से 60 प्रतिशत के पास साल भर कोई काम नहीं होता है. यह स्थिति बड़े पैमाने पर अंडर इंप्लॉयमेंट यानी ठेके के काम और अस्थायी रोजगार के हालत को दर्शाती है.
5. कंपनियों की स्थापना की दर गिर कर 2009 के स्तर पर आ गयी है और मौजूदा कंपनियां दो प्रतिशत की दर से विकास कर रही हैं, जो कि पिछले पांच वर्षों का सबसे निम्न स्तर है.
6. बड़े निगमों और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर भारी वित्तीय दबाव है. कंपनियाें का औसत आकार छोटा होता जा रहा है, जबकि इसी माहौल में सुगठित बड़ी कंपनियां रोजगार दे रही हैं.
उपरोक्त अाकलन से यह पता चलता है कि बहुत बड़ी तादाद में हमारे श्रम बल ऐसे माहौल में आते जा रहे हैं, जहां उनका पूरा इस्तेमाल करने की क्षमता नहीं है. यह रिपोर्ट इस ओर भी इशारा करती है कि भले ही भारत ने 1991 के बाद उच्च विकास दर देखी है, लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि यहां की आबादी के आधे से भी ज्यादा लोगों के पास पूरे साल कोई काम नहीं होता है.
इस संबंध में तुलना करते हुए संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यानी यूएनडीपी की रिपोर्ट कहती है कि चीन में 1991 से 2013 के बीच रोजगार 62.8 करोड़ से बढ़ कर 77.2 करोड़ तक पहुंच गया.
इस तरह इस अवधि में चीन में 14.4 करोड़ रोजगार के अवसर बढ़े. साथ ही वहां काम करनेवालों की संख्या में 24.1 करोड़ की बढ़ोत्तरी हुई. इसी रिपोर्ट के मुताबिक, भारत और चीन के बीच बड़ा अंतर चीन के मुकाबले भारत में सीमित क्षमता में रोजगार के अवसर का उत्पन्न होना है. ये हालात 35 वर्षों से श्रम बल को लेकर भारत के सामने लगातार गंभीर चुनौती पेश करते आ रहे हैं. भारत की अर्थव्यवस्था में तब तक बड़ा बदलाव नहीं आयेगा, जब तक पिछले 25 वर्षों में जो भी हुआ है, उससे अलग हट कर काम नहीं होगा. ऐसा नहीं हुआ तो बड़ी संख्या में नये रोजगार नहीं आयेंगे.
किसी भी देश के विकसित होने का परंपरागत तरीका छोटे स्तर के उद्योग, जैसे कपड़ों का निर्यात, से शुरुआत कर बाद में ऑटोमोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे बड़े उद्योगों की ओर रुख करना रहा है.
भारत में ये सभी उद्योग मौजूद हैं, लेकिन छोटे पैमाने पर. मसलन, कपड़ा उद्योग में हमारी प्रतिस्पर्धा बांग्लादेश, वियतनाम और श्रीलंका जैसे देशों से है और प्राय: यहां भी हम पीछे रह जाते हैं, क्योंकि इन देशों में श्रम बल कुशल और सस्ते हैं.
पिछले सात वर्षों में वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी आने का मबलब है बड़े स्तर पर बाहरी मांग का खत्म हो जाना, जिनका हम इस्तेमाल कर सकते थे. ऐसे में अगर परंपरागत रास्तों को पूरी तरह नहीं खोला गया, तो हम अपने जनसांख्यिकीय विभाजन का लाभ कैसे ले पायेंगे, यह एक बड़ा सवाल है. इसका जवाब शीघ्र पाना जरूरी है, क्योंकि हमारे पास बहुत ज्यादा समय नहीं है.
मेरे नजरिये से ऐसा सोचना पूरी तरह से गलत है कि सरकार अकेले या ज्यादातर उद्योग इस समस्या का समाधान निकालेंगे. इसका एक कारण तो हमारे देश में बुनियादी ढांचा का कमजोर होना और संपर्क सुविधा का अभाव होना है, जिस कारण निर्माण उद्योग को बड़े पैमाने पर निवेश नहीं मिलता है. निवेश और निजीकरण के मामले में यहां हम केंद्र सरकार की स्पष्ट भूमिका देख सकते हैं.
लेकिन, दूसरा बड़ा कारण योग्य लोगों की कमी होना भी है. ये सारी बातें उच्च वर्ग के शहरी भारतीयों को आश्चर्यजनक लग सकती हैं, क्योंकि उनके पास अपेक्षाकृत बेहतर शिक्षा होती है, इसलिए तुलनात्मक रूप से उन्हें आसानी से अच्छी नौकरी मिल जाती है.
लेकिन, भारत की ज्यादातर आबादी के पास शिक्षा प्राप्त करने के पर्याप्त साधन नहीं हैं और इसीलिए वे औद्योगिक ढांचे में फिट नहीं बैठ पाते हैं, और बेहतर नौकरी प्राप्त नहीं कर पाते हैं. यह बात उद्योगों में छोटे स्तर पर काम करनेवालों पर भी लागू होती है.
वहीं, दूसरी ओर फिलीपींस जैसे देश हमारी नौकरियों को खत्म करते जा रहे हैं, क्योंकि वहां ऑटोमेशन के जरिये हर साल नौकरी की संख्या में कटौती की जा रही है. प्रधानमंत्री मोदी ने इस समस्या को समझा है और यही कारण है कि उन्होंने स्किल इंडिया योजना की शुरुआत की है, ताकि लाखों लोगों को हुनरमंद बनाया जा सके. हालांकि, इसका परिणाम आने में समय लगेगा, क्योंकि हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा दयनीय स्थिति में है.
इस संबंध में हम जितना सोचते हैं, उतनी ही परेशानी बढ़ती जाती है कि आखिर हम अपने देश के जनसांख्यिकीय विभाजन का लाभ किस प्रकार उठा पायेंगे? जब तक बाहरी और भीतरी स्तर पर बदलाव नहीं आयेगा, तब तक बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और सामाजिक उथल-पुथल की स्थिति बनी रहेगी. लेकिन, वर्तमान में बदलाव की स्थिति कहीं दिखाई नहीं दे रही है.

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