लाश को कंधा न मिले, ऐसा विरले ही होता है. लाश को कंधा न नसीब हो, तो उसे किसी अघट का संकेत समझना चाहिए. समझना चाहिए कि कोई बड़ी विपदा आन पड़ी है, जो मनुष्य से अपने मानव-धर्म के न्यूनतम का भी निर्वाह नहीं हो पा रहा. हालांकि मानवता के सामने ऐसे विकट वक्त आते रहे हैं, जब लाशों के अंतिम संस्कार के लिए कोई जीवित ही न बचा हो, अगर कुछ बचा रहा तो सिर्फ लाशें. ऐसे कुछ वक्त अकाल, महामारी, युद्ध, सुनामी और भूकंप के भयावह अनुभवों के रूप में हमारी यादों में दर्ज हैं. ऐसे वक्तों में एक पूरा इलाका अपने इतिहास के साथ काल के गाल में समा जाता है, कुछ नहीं बचता, बस लाशें ही बचती हैं लाशों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए!
ओड़िशा के कालाहांडी में इस वक्त कोई युद्ध नहीं चल रहा, महामारी नहीं पसरी है, सुनामी भी नहीं आयी है. यहां खुली सड़क पर एक आदिवासी दाना माझी अपनी जीवन-संगिनी अमंगदेई की लाश को कंधे पर उठाये 10 से 12 किलोमीटर तक चला. देखनेवाली सैकड़ों जोड़ी आंखें मौजूद रही होंगी उस सड़क पर, लेकिन किसी आंख में इतना पानी नहीं बचा था कि वह दाना माझी को मनुष्य होने के नाते अपना भाई समझती और उसके दर्द से भींगती. युद्ध और अकाल जैसी आपदा की ही तरह अमंगदेई की लाश को उस सड़क पर चार जनों का कांधा तक नसीब नहीं हुआ.
क्या सोच रही होगी लाश के पीछे अपनी पथरायी आंखों में जमानेभर का विषाद समेटे चलती अमंगदेई की बेटी? क्या इस बेटी ने किसी ‘रामराज्य’ के सुख-दुख से बाहर कर दी गयी एक बेटी- सीता- की ही तरह नहीं सोचा होगा कि- ‘हे धरती! अगर तू ही मेरी मां है, तो फिर आज मेरे दुख से अपने हृदय को फाड़ और मुझ जीवित रहते मृत मान ली गयी बेटी को अपनी उस चिर-पुरातन कोख में जगह दे दे, जहां जाकर तमाम सृष्टि अपने मिथ्या होने पर पर मौन साधती है!’ ताकती हुई सैकड़ों जोड़ी आंखों की गैरत को ललकार आखिर को सवा अरब लोगों के लोकतंत्र में एकदम निपट अकेला होने का जहर पीने को मजबूर दाना माझी के मन में क्या कौंधा होगा? सती की लाश को कंधे पर उठाये क्रोध से कंपकंपाते शिव की तरह क्या उसके मन में एकबार भी नहीं आया होगा कि मेरे जीवित रहते मुझे मनुष्य होने की गरिमा से वंचित करने पर उद्धत इस बगैरत समाज का नाश हो!
कोई कह सकता है यह एक अकेले दाना माझी का दुख नहीं है, चार जन के कांधे को तरसती लाशों की कमी नहीं है इस देश में. कंधे पर जीवनी-संगिनी की लाश उठाये दाना माझी की तसवीर के बगल में ओड़िशा के बालासोर के सोरो इलाके की 76 साल की विधवा सालामनी बारिक के लाश की भी तसवीर रखी जा सकती है. चार जन का कांधा इस लाश को भी नहीं मिला. स्वास्थ्य केंद्र पर स्वीपर ने लाश पर खड़े होकर उसकी हड्डी तोड़ी, ताकि लाश छोटी हो तो गठरी बनायी जा सके. जैसे कोई मरे पशु को ले जाता है, वैसे ही दो जन के कंधे पर एक बांस के सहारे गठरी बनी इस लाश की आगे की यात्रा पूरी हुई.
इसी कड़ी में मध्य प्रदेश के पनागर तहसील की उस शवयात्रा को भी जोड़ा जा सकता है, जिसका श्मशान तक पहुंचना जातिगत दबंगई ने मुहाल किया. भरी बरसात में कच्ची सड़क के डूबने पर शव को श्मशान तक पहुंचाने का तरीका एक ही था कि उसे खेतों के बीच से होकर ले जाया जाये. लेकिन मृतक के परिजन को लाश ले जाना पड़ा तालाब को पार कर, क्योंकि खेत गांव के दबंग लोगों के थे और जीवित रहते बराबरी का अधिकार ना देने को आतुर जातिगत दबंगई ने अपने ही गांववासी के साथ उसकी मौत में भी बराबरी का बरताव नहीं किया. लाश को कंधा तो नसीब हुआ, लेकिन श्मशान तक जाने के लिए दो गज जमीन नहीं नसीब हुई.
जब लाश कंधे और जमीन को तरसे तो क्या यह कह कर मन को समझाया जा सकता है कि सारा दोष व्यवस्था का है? यह ठीक है कि दलित, आदिवासी और स्त्री को इस देश के संविधान ने आदर्शों के अपने किसी परम क्षण में नागरिक का दर्जा दिया और उसके बाद बरताव की जमीन पर आज तक हर क्षण सह-नागरिक होने के उसी दर्जे को छीनने में बिताया, लेकिन इतनाभर कहने से आदिवासी अमंगदेई, विधवा स्त्री सालामनी बारिक या फिर मध्य प्रदेश के पनागर के दलित-बहुजन के शव के साथ हुए बरताव की व्याख्या नहीं होती.
भेद का कोई भी भाव, चाहे वह कितना भी अन्यायी क्यों न हो, जीवितों के साथ हो तो समझ में आता है, मृतक के साथ हो तो अपने मनुष्य होने पर संदेह किया जाना चाहिए. मृत होते ही व्यक्ति भेद भरी दुनिया का हिस्सा नहीं रहता. मृत देह उठ कर आपसे अन्याय का हिसाब नहीं मांग सकती. मृत देह का स्वभाव है मिट्टी हो जाना. जीवितों द्वारा चिता पर चढ़ायी जाती हर लकड़ी, ताबूत पर डाली गयी हर मुट्ठी खाक पूरी मानवता से अपने लिए एक प्रार्थना होती है, और साथ ही शपथ भी, कि मिट्टी होती देह के साथ सम्मान का जो बरताव अभी हुआ, वैसा ही आगे भी हो, ताकि मनुष्य होने के नाते अपने मृत शरीर के साथ मैं भी कभी इसी सम्मान का भागी होऊं. लाशों को चार कंधे और दो गज जमीन के लिए तरसाने का हमारा बरताव मनुष्य होने के इसी न्यूनतम नैतिक-बोध से चूकने का संकेत है, एक भयावह सूचना कि एक मनुज-लोक के रूप में यह देश आगे बढ़ने की बजाय बड़ी तेजी से मर रहा है!
चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज