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कश्मीर के लिए समाधान के सूत्र
पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक कश्मीर की खूबसूरत वादी उथल-पुथल के एक ऐसे दौर से गुजर रही है, जिसे सभी राजनीतिक दलों तथा भारतीयों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. कई हफ्तों से एक आंशिक अथवा पूरा कर्फ्यू लागू है. कश्मीरियों और सुरक्षा बलों एवं सेना दोनों ही तरफ की दर्जनों जानें […]
पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
कश्मीर की खूबसूरत वादी उथल-पुथल के एक ऐसे दौर से गुजर रही है, जिसे सभी राजनीतिक दलों तथा भारतीयों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए. कई हफ्तों से एक आंशिक अथवा पूरा कर्फ्यू लागू है. कश्मीरियों और सुरक्षा बलों एवं सेना दोनों ही तरफ की दर्जनों जानें जा चुकी हैं. पूरे राज्य में गुस्से और अलगाव की एक लहर है. राज्यसभा ने इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की है और यह हमारे लोकतंत्र का बड़प्पन है कि सदन ने वादी में अमन और यकीन के माहौल की अहमियत पर जोर देते हुए एकमत प्रस्ताव पारित किया है.
अब भविष्य की कार्य-दिशा क्या होगी? एक ओर तो सख्ती के समर्थकों का यह मत है कि कश्मीर में जब-तब सिर उठानेवाले राष्ट्रद्रोह को क्रूरता से कुचल दिया जाना चाहिए. पर, क्या कश्मीर में एक स्थायी शांति स्थापित करने की दिशा में हम हमेशा इसी एक कदम की सोचते रहेंगे? मैं ऐसा नहीं समझता. समस्या की गहराइयों में जाने का सामर्थ्य ही एक सफल राजनय की पहचान है. कश्मीर की समस्या जटिल है, ऐसे में मैं चार-सूत्री प्रयासों की अनुशंसा करना चाहूंगा.
पहला तो हमें सामान्य स्थिति बहाल करने की कोशिशें करनी ही चाहिए. इसके निहितार्थ यह हैं कि हिंसा और आतंक की भाषा में बातें करनेवालों से हमें दृढ़ता से निबटना चाहिए. सशस्त्र बल एक कठिन काम में लगे हैं. हमें यह देखना होगा कि उनका आत्मबल और संकल्प कमजोर न होने पाये. साथ ही हमें पेलेट गन के अंधाधुंध इस्तेमाल की भी समीक्षा करनी चाहिए, जिसकी वजह से दर्जनों कश्मीरी अंधे अथवा अपंग हो चुके हैं. हमारे सशस्त्र बलों द्वारा भीड़ के नियंत्रण के लिए कोई कम मारक, लेकिन उतना ही प्रभावी साधन अवश्य ही हासिल किया जा सकता है.
दूसरा, हमें पाकिस्तान द्वारा प्रशिक्षित तथा हथियारों से लैस किये गये आतंकियों की सीमा पार से होती घुसपैठ रोकने की अपनी क्षमता बढ़ानी चाहिए. इसके लिए सुरक्षा बलों की जो भी जरूरतें हों, उनकी तेजी से तथा सतत आपूर्ति की जानी चाहिए. इसके साथ ही, हमें पाकिस्तान से किसी भी संवाद के लिए आतंकवाद के प्रायोजन को ही मुख्य मुद्दा बनाना चाहिए. जैसा अपेक्षित ही है, यदि पाकिस्तान अपनी करतूतों से बाज नहीं आता, तो हमें इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय रंग देने तथा पाकिस्तान पर प्रभाव रखनेवाले अमेरिका जैसे देश की मदद मांगने में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए.
तीसरा, राज्य तथा केंद्र दोनों सरकारों को एक राजनीतिक रोडमैप तय करना चाहिए, जिसमें कश्मीर के लोगों से संवाद का तत्व प्रमुखता से शामिल हो. प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा दिये जम्हूरियत, इनसानियत तथा कश्मीरियत के नारे को दोहराया है. यह स्वागतयोग्य तो है, पर इस दिशा में आगे क्या करने की योजना है?
राज्य में भाजपा-पीडीपी गंठबंधन बनते वक्त मार्च 2015 में एक एजेंडा तय किया गया था, जिसमें राज्य के सभी आंतरिक हितधारकों (स्टेकहोल्डर्स) से सार्थक संवाद-प्रक्रिया आगे बढ़ाने की बात कही गयी थी.
क्या उस दिशा में कोई प्रगति हुई? माना जा सकता है कि सैयद शाह गिलानी जैसों से बातचीत करने से कुछ खास हासिल होनेवाला नहीं है, पर क्या हुर्रियत समेत समाज के अन्य तबकों से अधिक संवादशील वार्ताकारों की पहचान किये जाने की दिशा में कुछ किया गया? यह प्रक्रिया चाहे जितनी कठिन हो, प्रयास तो करने ही होंगे. बीते दिनों दिल्ली में प्रधानमंत्री द्वारा आहूत सर्वदलीय बैठक एक अच्छी शुरुआत है, पर इसके बाद सर्वप्रथम कश्मीर में एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के जाने की जरूरत है.
चौथा, जम्मू-कश्मीर में विकास की रफ्तार तेज की जानी चाहिए. पिछले वर्ष की बाढ़ ने आजीविका तथा बुनियादी ढांचे को काफी नुकसान पहुंचाया है. ऐसे अनुमान हैं कि कश्मीर की दो-तिहाई आबादी युवा है, जिसमें से लगभग आधे लोग बेरोजगार हैं. पिछले साल प्रधानमंत्री ने राज्य के लिए 80,000 करोड़ रुपयों के ‘दिवाली उपहार’ की घोषणा की थी. इसमें से अब तक कितनी राशि खर्च की जा चुकी है? क्या हम मुख्य रोजगारपरक क्षेत्रों पर व्यय में और तेजी ला सकते हैं?
साल 1947 से लेकर अब तक भारत में कोई भी अलगाववादी आंदोलन सफल नहीं हो सका है. हमने नागालैंड, असम तथा पंजाब के विद्रोही गुटों से भी समाधान की बातचीत सफल करने की परिपक्वता दिखायी है.
माओवादियों के विरुद्ध सख्त रुख अपनाने के बावजूद, हम उनमें भी उन तक पहुंच सके हैं, जो मुख्यधारा में वापस होना चाहते हैं. अब वक्त है कि हम जम्मू-कश्मीर पर गौर कर वहां लोगों के दिल-दिमाग जीतने हेतु मरहमी नीतियां अपनायें. भाजपा-पीडीपी सरकार को अपने अंतर्विरोधों से ऊपर उठ कर इस लक्ष्य की ओर प्रगति सुनिश्चित करनी चाहिए.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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