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पुरानी लुगदी नया पॉपुलर
प्रभात रंजन कथाकार मेरे कॉलेज के जमाने के एक मित्र ने हाल में बातों-बातों में एक ऐसा सवाल किया कि मैं सोच में पड़ गया. बोला कि आजकल हिंदी में कोई लुगदी साहित्य नहीं लिखता है लोग पॉपुलर साहित्य लिखने-कहने लगे हैं. इसका क्या कारण हो सकता है? कारण समझना इतना आसान नहीं है, लेकिन […]
प्रभात रंजन
कथाकार
मेरे कॉलेज के जमाने के एक मित्र ने हाल में बातों-बातों में एक ऐसा सवाल किया कि मैं सोच में पड़ गया. बोला कि आजकल हिंदी में कोई लुगदी साहित्य नहीं लिखता है लोग पॉपुलर साहित्य लिखने-कहने लगे हैं.
इसका क्या कारण हो सकता है? कारण समझना इतना आसान नहीं है, लेकिन उसका यह सवाल मुझे अपने बचपन के उन दिनों में ले गया, जब गुलशन नंदा, रानू, मनोज, कुशवाहा कांत के उपन्यासों को पढ़ने के लिए उस एकांत को ढूंढ़ना पड़ता था, जहां ऐसी ‘लुगदी’ पढ़ते हुए कोई यह न कहे- ‘यही सब पढ़ते रहते हो. क्या संस्कार आयेगा?’ मुझे आज भी कभी-कभी याद आ जाता है सीतामढ़ी के मथुरा स्कूल वाले शास्त्री सर का यह वाक्य. मैं कक्षा छोड़ कर पीछे मैदान में बैठ कर ऐसा ही एक उपन्यास पढ़ रहा था. शायद गुलशन नंदा का उपन्यास ‘पाले खां’ था.
लुगदी तब पाप का प्रतीक था. उसमें और पीली पन्नी में लिपटे ‘कोकशास्त्र’ जैसी किताबों में अधिक फर्क नहीं माना जाता था. तब ऐसे साहित्य को पढ़ना हमारे लिए विद्रोह का भी प्रतीक था. घरवालों से, बात-बात में संस्कार की शिक्षा देनेवाले मास्साब लोगों से जब विद्रोह करना होता था, तो हम वेद प्रकाश शर्मा और सुरेंद्र मोहन पाठक में डूबने लगते थे. प्रेम की पीड़ा को महसूस करना होता था, अपने प्रेम के गुमनाम रह जाने का अफसोस करना होता था तो गुलशन नंदा, रानू, प्रेम वाजपेयी को पढ़ते थे. हम प्रेम करते थे क्योंकि हमें कहा जाता था कि कैरेक्टर बनाये रखना है. हम लुगदी पढ़ते थे, क्योंकि हमें कहा जाता था कि इसको पढ़ने से संस्कार खराब हो जाते हैं.
बड़े हुए, समझदार हुए, तो यह बात पढ़ने-समझने लगे कि लुगदी साहित्य की इसलिए आवश्यकता है, क्योंकि इससे हिंदी पट्टी में लोगों में पढ़ने की आदत विकसित होती है. जो लुगदी पढ़ता है, वह आगे चल कर गंभीर साहित्यिक किताबों का पाठक बन जाता है. बहरहाल, यह अवधारणा बनी रही कि लुगदी साहित्य का मतलब है पाप का साहित्य और लुगदी से साहित्य की यात्रा पाप से पुण्य की यात्रा होती है. वैसे ही जैसे वाल्मीकि डाकू से कवि बन गये थे.
अब लुगदी साहित्य को लेकर पाठकों, प्रकाशकों, लेखकों सबका नजरिया बदल रहा है. अब हिंदी में लुगदी की वह दुनिया सिमट रही है और पॉपुलर साहित्य का स्पेस बढ़ रहा है. हिंदी का जो पुराना लुगदी साहित्य था, वह हिंदी पट्टी के आम पाठकों को संबोधित होता था. आज का जो नया पॉपुलर साहित्य है, वह शहरी पाठकों को संबोधित होता है.
सबसे बड़ा जो बदलाव दिखाई देता है, वह यह है कि हिंदी में लोकप्रिय साहित्य को पाप का साहित्य नहीं कहा जाता है. हिंदी में लोकप्रिय साहित्य को लेकर नजरिया सकारात्मक होता जा रहा है. इस हद तक सकारात्मक कि अब गंभीर साहित्य ही हाशिये पर दिखाई देने लगा है.
लुगदी से पॉपुलर के इस बदलाव के पीछे एक बड़ा कारण वह सोच भी है, जो किताबों की श्रेष्ठता को बिक्री के आंकड़ों के आधार पर देखने लगी है. जो किताब जितनी बिकती है, उसकी उतनी ही चरचा होती है. जबकि पुराना नजरिया यह था कि जो किताब जितनी बिकती थी, वह उतनी ही खराब मानी जाती थी. बिकना हिंदी में शर्मनाक शब्द माना जाता था. आज बड़े-बड़े लेखक भी यह बताते पाये जाते हैं कि कि उनकी किताब कितनी बिक रही है.
लुगदी साहित्य को पढ़ने के लिए हमें सुरक्षित एकांत ढूंढ़ना पड़ता था. आज के पॉपुलर साहित्य को हम घर में आराम से रख सकते हैं, कोई यह नहीं कहता कि संस्कार खराब हो जायेंगे. हां, यह बात जरूर है कि लुगदी साहित्य तब लाखों में बिकता था. आज का पॉपुलर हिंदी साहित्य कुछ हजार प्रति बिक कर ही बेस्टसेलर हो रहा है!
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