।। कमलेश सिंह।।
(इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के प्रबंध संपादक)
स्विट्जरलैंड का छोटा सा शहर दावोस हर साल इस महीने अचानक बड़ा हो जाता है. रूई के फाहे की तरह गिरती बर्फ के बीच आर्थिक दुनिया के धुरंधर आ धमकते हैं. वल्र्ड इकॉनमिक फोरम यानी डब्ल्यूइएफ शुरू होता है. दुनिया के कई राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, वित्त और वाणिज्य मंत्री, बड़े उद्योगपति, निवेशक, अर्थशास्त्री तो आते ही हैं, बहुत सारे अनर्थशास्त्री और रायबहादुर भी आते हैं. भारत से इस साल पी चिदंबरम, छह अन्य मंत्रियो के साथ 124 लोगों का बेड़ा लेकर गये हैं, पर सुनते हैं कि जो हुआ है वह गर्क हुआ है. उभरती अर्थव्यवस्था ब्राजील, रूस, इंडिया और चीन के समूह को ब्रिक कहके बुलाते थे, तो गर्व से हमारा सीना फूल जाता था. तेजी से बढ़ती आर्थिक महाशक्ति का तमगा लिये भारत इस सम्मेलन के केंद्र में होता था, इस बार हाशिये पर है. अर्श से फर्श पर आये लोग विमर्श कर रहे हैं कि ये कहां आ गये हम यूं ही साथ-साथ चलते.
भैया दावोस तो छोड़िए, देवास में भी कोई माथा नहीं खपा रहा, क्योंकि हम जहां हैं, वहां से हमको भी, कुछ हमारी खबर नहीं आती. भारत उस मोड़ पर खड़ा है, जहां जिंदगी चल जाये काफी है. क्योंकि जब राजनीति मंच पर आती है, तो अर्थनीति के लिए नेपथ्य में भी संभावना नहीं रहती. बाकी समय अर्थ ही अर्थ है, बाकी सब व्यर्थ है. चुनाव के समय अर्थ का अनर्थ है. चुनाव के चौराहे पर दिशा तय नहीं करते, चाय की चुस्कियां लीजिए. भाषणों में अर्थव्यवस्था की बात होगी, चुटकी भर नमक के साथ उसे भी चखिए. क्योंकि हमारे नेता चुनाव में जो कहते हैं, जरूरी नहीं कि चुनाव के बाद वे करें भी. जो करते हैं, वह अपनी रोटी सेंकने के लिए.
दिल्ली में केजरीवाल की तर्ज पर हरियाणा और महाराष्ट्र खुद आगे आ गये. उनको हराने के लिए अब अगले को बिजली मुफ्त करनी होगी. कई राज्यों में किसानों को मुफ्त बिजली मिलती है. जहां नहीं मिलती, वहां नेता वादा कर रहे हैं कि इस्तेमाल करो, हम माफ करवा देंगे. हर जगह बिजली के लिए सब्सिडी दी जायेगी. यानी जनता इस्तेमाल करे, पैसे सरकार दे. क्योंकि सरकार जब देती है, तो ऐसा महसूस नहीं होता कि जनता देती है.
ये नेता बताते नहीं कि जनता ही देती है. कई राज्यों में किसानों को मुफ्त बिजली है. बिल नहीं आने से बिजली खरीदने और वितरण के लिए पैसे नहीं रहे. बिजली विभाग मर गया. पर जिस पार्टी ने दिया उसका तो कल्याण कर गया और आगे की सरकारों के लिए बड़ी मुश्किल छोड़ गया. भविष्य में शायद ही कोई फिर बिल में हाथ डाले. यह सिर्फ बिजली में ही नहीं है. जो नीतियां लागू होती हैं, वे वापस कोई नहीं कर सकता. कोटा समेत. सरकार के पास कुछ नहीं होता कि वह ले या दे. नरेगा से कईयों को रोजगार मिला, देश को श्रम का छोटा-बड़ा ठेकेदार मिला, हजारों करोड़ बह गये, लोगों को भी कुछ हजार मिला. अर्थशास्त्री कहते हैं उससे जो महंगाई बढ़ी उससे गरीब आदमी का जीना मुहाल हो गया. भ्रष्टाचार बढ़ा सो अलग. मनमोहन मोहने निकले थे और हवा बताती है कि लोग अब मोहित ही नहीं हैं. चुनावी मौसम में अभी केजरीवाल और मोदी से सम्मोहित हैं.
इकोनॉमी के विशेषज्ञ बताते हैं कि राजनीति करनेवाले हमेशा लोगों को बरगलाते हैं. किसी ने आपको समझाने की कोशिश नहीं की कि विदेशी निवेश देश के लिए अच्छा भी हो सकता है. मुफ्त का आटा अर्थव्यवस्था के लिए जहर हो जायेगा या बिजली बिल माफ हो जाये, तो एक दिन करंट मारेगा. कौन समझाये, चलो जो लोकप्रिय हो वही कह डालेंगे. सोने की आयात पर अंकुश लगायेंगे, तो लोग भड़क जायेंगे. अव्वल तो ज्यादातर नेता इकोनॉमी का गणित जानते नहीं. उनका पूरा फोकस जाति और धर्म के गणित में लगा रहता है. जोड़-तोड़ की राजनीति करनेवाले बजट में भी जोड़-तोड़ कर ही लेते हैं. नरेगा से लोग खुश हों, तो सम्मानजनक नौकरी की व्यवस्था के चक्कर में कौन पड़े. शिक्षा का प्रसार और उसका स्तर क्यों बढ़ायें, जब लैपटॉप बांटने से काम चल जाता है. काम चलाने की आदत धीरे-धीरे कामचलाऊ संस्कृति बन जाती है. सब चलता है इस ‘चलता है’ संस्कृति में.
नेताजी को दोष देने से पहले जनताजी भी थोड़ा अपने गिरेबान में झांकें. हम नेताजी से पूछते ही नहीं हैं, क्योंकि हमको भी जात-पात के प्रपात में नहाने में बड़ा मजा आता है. इकोनॉमी की गहराइयों में गोते लगाने से मोती मिल सकता है, पर उसके लिए कूदना पड़ेगा. किनारे खड़े आनंद लेने में जो मजा है, वह डूबने का रिस्क लेने में नहीं मिलता. हम तेजी से विकसित हो रहे चीन और मलेशिया की मोतियों से रश्क करते हैं. और दावोस में घटती दमक पर सिर धुनते हैं.