उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
बीते कुछ समय से कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है, उससे कई मिथक टूटे हैं. पहला- जम्मू में असर रखनेवाली भाजपा और घाटी में सघन आधार वाली पीडीपी की मिलीजुली सरकार बनने से कश्मीर में शांति-बहाली को बल मिलेगा. दूसरा- महबूबा मुफ्ती घाटी में अलगाववादियों और मिलिटेंट गुटों के एक हिस्से में काफी लोकप्रिय नेता रही हैं, इसलिए उनके मुख्यमंत्री बनने से समस्या के समाधान में आसानी होगी. तीसरा- कश्मीर में अलगाव-आतंक के पीछे सिर्फ पाकिस्तानी साजिशें जिम्मेवार हैं.
चौथा- कश्मीर समस्या सुरक्षा बलों की आक्रामकता और ‘आतंकियों को देखते ही गोली मारने से’ खत्म हो जायेगी. ये चारों मिथक ध्वस्त होते दिख रहे हैं. कश्मीर में घरेलू-आधार वाली मिलिटेंसी का चेहरा दुनिया के सामने है. शासकों की गलतियों के चलते कश्मीरी अवाम में मिलिटेंसी को पहले के मुकाबले ज्यादा समर्थन मिल रहा है. हमारे राष्ट्रराज्य के लिए यह खतरनाक और चुनौतीपूर्ण है.
यह जानते हुए भी कि कश्मीर का विवाद बुनियादी तौर पर एक राजनीतिक मसला है, बीते कुछ समय से केंद्रीय नेतृत्व ने घाटी में राजनीतिक संवाद की प्रक्रिया पूरी तरह बंद कर रखी है. अप्रैल-मई, 1964, 1975-80 और 2004-08 तीन महत्वपूर्ण कालखंड हैं, जब कश्मीर मसले को हल करने की प्रबल संभावनाएं पैदा हुई थीं. लेकिन अलग-अलग कारणों से यह संभव नहीं हो सका.
इन तीन को छोड़ दें, तो कश्मीर के राजनीतिक सवाल पर हमारे सत्ताधारियों ने कभी अपेक्षित गंभीरता नहीं दिखायी. बयानबाजियां जरूर होती रहीं, कभी ‘स्काइ इज द लिमिट’ कहा गया, तो कभी ‘इंसानियत और कश्मीरियत के दायरे’ की बात की गयी. बीते दो-ढाई साल से तो बात भी नहीं हो रही थी.
दिल्ली के साउथ और नार्थ ब्लाॅक में इन दिनों कश्मीर को सिर्फ कानून-व्यवस्था के खतरनाक संकट के रूप में देखा जाने लगा है. सरकार के बड़े रणनीतिकारों को लगता है कि ज्यादा आक्रामक सुरक्षा बंदोबस्त और कुछ आर्थिक तरक्की के जरिये मिलिटेंट गुटों की बंदूकों को शांत किया जा सकता है. केंद्र की यह रणनीतिक सोच न केवल भ्रांत लगती है, बल्कि इसमें अतीत की गलतियों से न सीखने की एक जिद्द भी दिखती है.
सभी जानते हैं कि कश्मीर विवाद की नींव एक आधुनिक राष्ट्रराज्य के रूप में 1947-48 में हमारे जन्म के साथ ही पड़ गयी थी.
मिलिटेंसी भले सन 1990-91 में आयी, लेकिन विवाद तो अक्तूबर-नवंबर, 1947 में ही शुरू हो गया. शेख मोहम्मद अब्दुल्ला जब तक जीवित रहे, केंद्र की तरफ से उन्हें बीच-बीच में सताया जाता रहा. फिर भी उन्होंने पूरे सूबे के लिए कुछ बड़े काम किये, जिनमें भूमि सुधार पहला बड़ा कदम था. इसने कश्मीर का चेहरा और समाजशास्त्र बदल डाला.
उनके रहते घाटी में मिलिटेंसी को जगह नहीं मिल सकती थी, क्योंकि लोगों को भरोसा था कि उनके तमाम मसले शेख साहब हल करेंगे.
सन 1982 में शेख के इंतकाल के बाद घाटी लगभग नेतृत्वविहीन हो गयी और केंद्र की नियमित दखलअंदाजी और दादागिरी का शिकार भी. सन् 1987 के चुनावों में जिस तरह की हिंसा हुई और जनादेश को सुरक्षा बलों के जरिये रौंदा गया, उसने घाटी के मिजाज को बदल डाला. मुसलिम यूनाइटेड फ्रंट के अनेक जीत रहे प्रत्याशी हराये गये. इनमें श्रीनगर की अमीरकदल सीट के प्रत्याशी युसूफ शाह भी एक थे. इनके मतगणना एजेंट यासीन मलिक को मार-मार कर लहूलुहान कर दिया गया.
युसूफ शाह भी पीटे गये. कुछ समय बाद युसूफ शाह कश्मीर से गायब हो गये. बाद में इन्हीं शाह ने पाकिस्तान जाकर कश्मीर में मिलिटेंसी को तेज करने के लिए नये हथियारबंद संगठन-हिजबुल मुजाहिदीन की स्थापना की. इसके साथ ही उन्होंने अपना नाम भी बदला और बन गये कमांडर-इन-चीफ सलाहुद्दीन. मैंने यहां सिर्फ एक उदाहरण दिया. सत्ता और सियासत द्वारा ‘जख्मी’ किये ऐसे अनेक छोटे-बड़े किरदार हैं, जिन्होंने बाद के दिनों में कश्मीर की मिलिटेंसी या अलगाववादी हथियारबंद लड़ाई में शामिल होने का फैसला किया. हिजबुल कमांडर बुरहानी वानी के मारे जाने से उठा बवंडर कुछ समय बाद थम सकता है.
लेकिन, घाटी के अहम सवाल को जब तक संबोधित नहीं किया जायेगा, ऐसे बवंडर समय-समय पर उठते रहेंगे. वह सवाल है- कश्मीर के सियासी वजूद का निर्धारण. अगर बंदूकों का जवाब बंदूकें होतीं, तो अमेरिका की बंदूकों ने पश्चिम एशिया सहित पूरी दुनिया को अब तक शांत कर लिया होता.
जहां-जहां सिर्फ बंदूकों से जटिल राजनीतिक मसले को हल करने की कोशिश की गयी, बंदूकें विफल साबित हुईं. दुनिया में हर जगह ऐसे उदाहरण मिलेंगे. मिलिटेंसी और उग्रवाद से निबटने में सुरक्षात्मक कदम के साथ राजनीतिक पहल की सबसे बड़ी भूमिका होती है. फिलहाल कश्मीर में वह राजनीतिक पहल गायब है.